सात दशक तक सनातन को दबाये रखा पर… मुस्लिम ही देश बांटेगा ऐसा क्यों?
इस समय हर किसी घटना के साथ यह कहने का रिवाज हो गया है कि मुस्लिम समाज को लेकर देश में भेदभाव हो रहा है। इसका प्रमाण देने के लिए बयानों को आधार बनाया जाता है जबकि कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं हैं। आजादी के समय देश का विभाजन हुआ था। उस समय भारत में मुसलमानों की संख्या बढ़ोतरी हुई है।

सुरेश शर्मा, भोपाल।
इस समय हर किसी घटना के साथ यह कहने का रिवाज हो गया है कि मुस्लिम समाज को लेकर देश में भेदभाव हो रहा है। इसका प्रमाण देने के लिए बयानों को आधार बनाया जाता है जबकि कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं हैं। आजादी के समय देश का विभाजन हुआ था। उस समय भारत में मुसलमानों की संख्या बढ़ोतरी हुई है। जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दूओं की संख्या खत्म होने के कगार पर है। बांग्ला देश में तो पिछले दिनों तख्ता पलट के समय देख ही लिया कि वहां के हिन्दूओ को किस दुर्दशा से गुजरना पड़ा था। लेकिन भारत कके मुसलमानों को वोट बैंक समझने वाला एक भी राजनीतिक दल नहीं बोला था। स्थानीय कारणों से ममता बनर्जी ने जरूर कठोर तेवर दिखाये थे। इस समय होली का त्योंहार बीता ही है। देश ने अच्छे माहौल में होली खेली भी। लेकिन रंग वाले दिन रमजान का जुम्मा होने के कारण राजनीतिक वातावरण बनाने का प्रयास किया गया। खास बात यह है कि मुस्लिम समाज और धर्मगुरूओं ने कानून व प्रशासन का सहयोग किया है। लेकिन राजनीतिक दलों और मुस्लिम नेताओं ने इसे मुसलमानों के विरूद्ध आचरण प्रचारित करने का प्रयास किया गया। यदि कट्टर हिन्दूत्व की बात करने वाले बाला साहब ठाकरे के पुत्र और उनके अखबार सामना के संपादक का आलेख पढ़ लिया जाये तो यह बताने का प्रयास किया गया कि भारत का मुसलमान देश का बंटावारा करने की स्थिति में आ गया। वह ऐसे प्रयास कर सकता है? राजनीति और मीडिया को छोड़कर न तो मुस्लिम समाज विभाजन जैसी बातें सोच रहा है और न ही देश में कोई पक्षपात हो रहा है। सरकार की योजनाओं का लाभ सभी को बराबर बिना भेदभाव के मिल रहा है। कहीं कोई राजनीतिक दल इस प्रकार के आरोप लगाता नहीं दिखाई देता है। इससे उलट कांग्रेस की कर्नाटक सरकार ने ही मुसलमानों को सरकारी ठेके में आरक्षण देने का ऐलान किया है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि विपक्ष अपने वोट बैंक को एक बार फिर से विभाजनकारी बताने का प्रयास कर रहा है?
यदि सामना के आलेख को देखा जाये? यदि अन्य विपक्षी दलों के धार्मिक आधार पर किसी समुदाय के सामने बिछ जाने जैसी हालात बनाते दिखना हो। हिन्दी के विरोध का आन्दोलन हो या फिर बंगाल के हिन्दूओं को डराकर वोट कबाड़ने की घटनाएं हों। विपक्ष की भूमिका ही दिखाई देती हैं। जिस प्रकार से विपक्ष अपने वोट बैंक को संरक्षित रखने के लिए प्रयास करता है तब भाजपा को अपने वोट बैंक को संरक्षित करने का अधिकार क्यों नहीं हो सकता है? लेकिन यदि कर्नाटक सरकार के द्वारा किये गये पक्षपात के जैसा कोई उदाहरण देश भर में भाजपा की सरकारों का हो तो विपक्ष आज तक सामने नहीं ला पाया। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में आजादी के बाद जिस प्रकार के वोट बैंक नैरेटिव सैट किया गया था आज भी उस प्रयोग से अलग सोचने की मानसिकता बन ही नहीं रही है। जनसंघ के समय से भाजपा ने देश और देश की संस्कृति की बात थी उसका विचार उससे आगे नहीं बढ़ रहा हे। लेकिन देश के लिए कौन सा विचार अच्छा है और कौन सा घातक यह तो समझने वाली बात है। सामना के अालेख से यह पता चल गया कि देश का विभाजन करने की विचार मुस्लिम समुदाय के मन में ही पल रहा है।
आजादी के बाद बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। भीमराव अम्बेडकर ने संविधान बनाते समय और सरदार पटेल ने रियासतों का विलय कराते समय इस बात का उल्लेख किया था। उनका कहना था कि भारत में से मुसलमानों ने अपना देश ले लिया। अब उनके अधिकारों के बारे में विचार करनाद चाहिए। इससे विपरीत पंडित नेहरू ने सनातन को कमजोर करने और इस्लाम को ताकत प्रदान करने के लिए कानून भी बनाये और संस्कारों को खंडित करने का सीधा प्रयास भी किया। अनेकों कानून इसकाे प्रमाणित कर सकते हैं। मंदिराें का सरकारीकरण, हिन्दू मैरिज एक्ट सहित अन्य जबकि मुसलमानों के हितों को संरक्षण करने के लिए वक्फ बोर्ड कानून सहित शरिया को कानूनी रूप से मान्य बनाने के लिए बाबा साहब के संविधान का मानस बदला गया। लेकिन इसमें सबसे खास बात यह है कि सात दशकों तक सनातन को रौंदने के बाद भी कभी हिन्दू समाज ने देश विरोधी भाषा नहीं बोली? नेपाल से हिन्दू राष्ट्र की मान्यता को छीना गया लेकिन भारत में कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुए। अन्यथा जर्मन की घटनाओं पर भारत में प्रदर्शन होने का रिवाज बन गया है।
विश्व के धार्मिक आंकड़ों को देखने का प्रयास करें तब विश्व में इस्लाम को मानने वालों की संख्या 1.9 बिलियन है। इसमें न जाने कितने इस्लामिक राष्ट्र हैं। हिन्दू जनसंख्या विश्व में 1.2 बिलियन है। जबकि बौद्ध और जैन मान्यता वाले लोगों को मिला लिया जाये तो कोई बड़ा अन्तर नहीं रह जाता है। इसके बाद भी समूचे विश्व में कोई भी देश हिन्दू मान्यता वाला देश नहीं है। इसका मतलब यह ही निकाला जाता है कि हिन्दू सहिष्णु है और वह इस प्रकार के शक्ति प्रदर्शन पर कोई भरोसा नहीं रखता है। लेकिन अब समय के साथ बदलाव आ रहा है। पिछले दिनों मोदी की मॉरीशस की यात्रा पर गये थे। तब उन्होंने न केवल संस्कृति की बात की अपितु सनातन भाव को जगाने का प्रयास भी किया था। आखिर ऐसा करने की कोई जरूर है? भारत का पिछले समय से यह प्रयास है कि विश्व को बताया जाये कि भारत की नीति और संस्कृति पुण्य और पाप पर आधारित है। जिसमें खुशी मिलने का पुण्य माना जाता हे। सनातन अपने विस्तार के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेता और न ही कुटिल प्रयासों से अपना विस्तार करता है। उसकी मान्यताओं को वैश्विक मान्यताएं मिल रही हैं। लेकिन भारत जैसे शान्ति प्रिय देश में राजनीतिक दलों के द्वारा एक और विभाजन की बात करने का राजनीतिक अर्थ खोजने का प्रयास किया जा रहा है। विपक्षी दल सरकार पर सामाजिक व धार्मिक भेदभाव के आरोप लगाता है। हाल में होली का त्योंहार बीता है। रंगों का पर्व मनाने के लिए सरकार और प्रशासन को सहयोग देना पड़ा। मुस्लिम समुदाय ने भी साथ दिया और टकराव को टाला गया। लेकिन जिस प्रकार का संदेश दिया गया वह खतरनाक इरादों वाला संदेश है। मस्जिदों को ढ़ंका गया ताकि रंग दिवारों का लग नहीं जाये? यह तो माना जा सकता है कि नमाज अदा करने जाते व्यक्ति पर रंग गिर जाये तब वह नमाज के लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं रहेगा लेकिन मस्जिदों की दिवारें भी नापाक हो जायेगी? यह बात हजम नहीं हुई। क्यों दिवारों के लिए इस प्रकार की बात कह कर यह संदेश नहीं दे दिया गया कि हिन्दूओं का रंगों वाला त्योंहार नापाक प्रयास है। लेकिन कोई इसे गंभीरता से नहीं लेगा और न ही लेना भी चाहिए। यह मानसिकता है और आजादी के बाद जिस मानसिकता से भारत में रहने का निर्णय मुस्लिम समुदाय के लोगों ने लिया था उससे अलग मानसिकता है।
यह विचार इतना खतरनाक है इसके बारे में प्रमाणित करने का प्रयास कौन कर रहा है? प्रमाणित करने का प्रयास वे नेता या दल कर रहे हैं मुस्लिम समाज जिनको वोट देकर सत्ता में पहुंचाने का प्रयास करता है। पिछले एक सप्ताह से विभिन्न माध्यमों से यह बताने का प्रयास हो रहा है कि मोदी सरकार मुस्लिम समाज के साथ भेदभाव कर रही है। इससे देश में एक बार फिर से बंटवारे जैसे हालात बनते जा रहे हैं? क्या आजादी के बाद से पंडित नेहरू, गांधी जी और इंदिरा काल में सनातन के विरूद्ध खुलकर षडयंत्र करने के बाद किसी नेता ने कहने की स्थितियां देखीं कि सनातन के मानने वाले विभाजन की स्थितियां पैदा कर सकते हैं। जब हिन्दूओं को खुलेआम साम्प्रदायिक बताने का चलन छेड़ दिया था तब भी कोई ऐसी आवाज सुनाई दी। बिलकुल कभी भी कहीं भी ऐसा सुनने को नहीं मिला? तब आज के विरोधी दल देश को क्या बताना चाहते हैं कि आज के जागरूक भारत में मुसलमान विभाजन करने के प्रयास कर सकता है? क्या भारत की राजनीतिक व कूटनीतिक परिस्थितियों के सामने विभाजन जैसी बात सोची जा सकती है? पड़ौसी दोनों इस्लामिक देशों में बन रही परिस्थितियों के बाद भारत में विभाजन के प्रयास कोई कर सकता है? संभवतया यह संदेश देना ही मुसलमान भाइयों को बेनकाब करने का प्रयास है। दुखद पजक्ष यह है कि जिनके वोट से जिनकी राजनीतिक दुकान सजी है वे ही भारतीय मुसलमानों के सामने यह असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं? वे एक्सपोज कर रहे हैं?
संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फांडेशन के चेयरमैन हैं)