विकास और समन्वय राष्ट्रवाद का मूल आधार… सर्वधर्म समभाव की कब्र खोदती हिंसा

सुरेश शर्मा,भोपाल।

जैसा भारतीयता के बारे में नेरेटिव तैयार किया गया था यह वैसा ही कुचक्र और षडयंत्र है कि सनातन का संचालन संघ और मनुस्मृति से होता है। वस्तुत: इस्लाम कुछ समय चलने के बाद हिंसा की ओर अग्रसर हो रहा है। अब यह चाहे उसका मूल स्वरूप हो या न हो। ईसाइयित में सेवा, प्रेम और क्षमा की बात की जाती है लेकिन इसका मकसद धर्मान्तर पर आकर रूक जाता है। गरीब की सेवा होती है लेकिन उसे मतान्तरण तक ले जाया जाता है। जबकि सनातन में सहिष्णुता का चरम और सबको स्वीकार करने की अदभुत इच्छा रहती है। सनातन में माना जाता है कि दूसरे धर्म का व्यक्ति विचार बदलकर हिन्दू नहीं हो सकता है। सभी धर्मों का समान आदर करने की भावना ने इसे अन्य मान्यताओं से अलग सिद्ध किया है। सनानत में संत परम्परा और मान्यताओं का बड़ा आधार है। इसमें सबसे खास बात यह है कि सनातन मान्यताएं बहुत ही लचीली हैं और उन्हें कालखंड की जरूरतों के आधार बदला जा सकता है। अन्य किसी भी पंथ मान्यताओं में ऐसा कम ही होता है। सनातन में प्रतिकार करने पर अधिक जोर नहीं दिया जाता है जिससे इसमें हस्तक्षेप और मानने वालों की जिज्ञासा बार-बार सवाल लेकर सामने होती है। शंकराचार्य व्यवस्था ने इसे एक माला के रूप में बांधने का काम किया है। कालान्तर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसको आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। देश का हिन्दू एक साथ आया और संगठित होकर निर्णायक हो गया। इसी निर्णायक स्थिति ने देश से सर्वधर्म समभाव की राजनीति को हिलाकर रख दिया। बाद में हर विषय पर हिंसा ने इसकी कब्र खोद दी। एक पक्ष बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने लग गया और सर्वधर्म का पक्षधर समूह अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने लग गया। यह राजनीति धीरे-धीरे विकास व समन्वय और हिंसा और प्रतिशोध की ओर बढ़ रही है।

देश की आबादी का आकंड़ा साफ करता है कि बहुसंख्यकवाद की राजनीति का लम्बा भविष्य है। देश में 20 करोड़ के आसपास मुस्लिम हैं जो एक साथ वोट करते हैं। लेकिन वे भाजपा को वोट नहीं करते हैं। इसी परहेज ने बहुसंख्यकवाद की राजनीति को जन्म दिया है। आजादी के आन्दोलन के समय सभी साथ मिलकर संघर्ष करते थे। न जातियां थी न ही धार्मिक मान्यताओं की बाधा। लेकिन जब आजादी की रूपरेखा तय होने लगी। हिटलर ने बि्रटिश सरकार को हलकान कर दिया तब यूएनओ बना और उसमें ब्रिटिश साम्राज्य का अंत होने की नींव डाली गई। औपनिवेश समाप्त करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। वहीं से भारत में विभाजन की राजनीति शुरू हो गई। अंग्रेज अधिकारी ने क्रान्तिाकरियों के डर से इस पार्टी का गठन किया था। इसका संचालन करने में ब्रिटेन में पढ़े लिखे उसी मानसिकता के लोग नेता बन गये। महात्मा गांधी और लार्ड इरबिन का समझौता क्रान्तिकारियों के ख्िालाफ पहला खुला समझौता था। यहीं से जिन्ना की मानसिकता में विभाजन का बीज डल गया था।

विभाजन के समय पंडित नेहरू ने सरकार को धर्मनिरपेक्ष रखा लेकिन सर्वधर्म भाव की आड़ में इसायित को प्रश्रय दिया। उन्होंने मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उनके पास शिकायत आ रही है कि उन्हें धर्मान्तरण में परेशानी आ रही है। पूर्वोत्तर के लिए गर्वनर नियुक्त किया गया जिसने इस क्षेत्र को इसायित में बदल दिया था। फ्रेंच प्रतिनिधि मंडल को भारतीय संस्कृति को लेकर नेहरू की मंशा क्या थी यह बताकर सिद्ध कर दिया था कि अब सर्वधर्म समभाव ने सनातन मान्यताओं को रौंदना शुरू कर दिया है। यहीं से मुस्लिम प्रभाव की राजनीति की शुरूआत हुई थी। इसी के साथ जनसंघ का जन्म भी डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संघ प्रमुख गुरू जी के साथ मिलकर कर लिया था। लेकिन आजादी के आन्दोलन के नेताओं के सामने जनसंघ जनता का वोट हासिल नहीं कर पाया। उस समय कहा गया कि भारत में जनसंघ की विचारधारा का कोई खास बसर होने वाला नहीं है। 1977 में जनसंघ जनता पार्टी में मिल गया लेकिन 1980 में वह भाजपा बनकर फिर से सामने आ गया। इस काालखंड तक मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति हिन्दू विरोध की राजनीति में बदल चुकी थी। उस समय नारा प्रभावी हो गया था कि हम सभी दल मिलकर साम्प्रदायिक शक्तियों की सरकार नहीं बनने देंगे?

यह भारत की राजनीति का नया युग शुरू हुआ। जिन नेताओं का देशव्यापी प्रभाव था वे या तो प्रभावहीन हो गये या नहीं रहे। इसलिए गैर भाजपा नेताओं का अकाल पड़ता जा रहा था। दलों की कमान भी दूसरी पीढ़ी के पास आ गई। कांग्रेस में सोनिया युग खत्म होकर राहुल के पास आ गया और नामचीन नेताओं ने किनारा करना शुरू कर दिया। शेष नेताओं का क्षेत्रीय प्रभाव भी कमजोर हो गया। यहां मिलीजुली सरकारों का दौर होकर राजनीति समन्वय की हो गई थी। लेकिन नरेन्द्र मोदी के रूप में प्रखर राष्ट्रवाद का चेहरा सामने आया। साम्प्रदायिक शक्तियों को सत्ता में नहीं आने देंगे वाले नारे का तोड़ मोदी के माध्यम से देश ने देखा और पहली बार लम्बे अन्तराल के बाद देश ने बहुंसख्यक वाद की सफलता का स्वाद चखा। पहले पांच साल में नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश के सामने राष्ट्रवाद का विजन रखा। सांस्कृतिक पर्नजागरण का सपना दिखाया और जो देखने आया उसने उत्साह से मतदाता को भर दिया। पांच साल बाद छप्पर फाडकर दिया गया। इस सरकार ने अपने विजन के साथ कुछ अतिरिक्त ऐसा कर दिया जिससे देश को लगा कि यही तो देश को चाहिए था।

विकास खुली आंखों से दिख रहा है। विश्व में भारत की शक्ति का डंका बज रहा है। महाशक्तियों में भारत की शक्ति अलग से दिखाई दे रही है। अर्थव्यवस्था ने जब उछाल मारा तो आम आदमी को सकारात्मक प्रभाव महसूस हुआ। आत्मनिभरता सभी क्षेत्रों में दिखाई देने लगी। आतंकवाद और पाक जैसे अदने से देश के सामने कमजोर दिखाई देने वाला भारत अभिनंदन का मूछ पर ताव देने हुए वापस लाता है और सर्जिकल व एयर स्ट्राइक करके विश्व को बताता है कि भारत आतंक के साथ कोई समझौता नहीं करेगा? जिस सनातन को साम्प्रदायिक शक्ति कह कर सरकार से परे रखने का काम हो रहा था वह तीसरी बार भी सत्ता लाने में कामयाब हो गया। इससे पहले पंडित नेहरू को आजादी के आन्दोलन का लाभ मिला जिससे उन्होंने तीसरी बार सरकार बनाई थी। नरेन्द्र मोदी दूसरे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने तीसरी बार सरकार बनाई है। इस बार मोदी का अपना स्पष्ट बहुमत नहीं है लेकिन देश के मतदाताओं को यह अहसास हो रहा है कि कम सीटें देने का मायने क्या होता है। वक्फ संशोधन कानून के साथ जो किया जा रहा है और बंगाल की हिंसा का कारण यही है। लेकिन इसने सर्वधर्म समभाव की कब्र खोदने का खेला कर दिया है।

वक्फ बिल ने देश के सामने दर्जन भर राजनीतिक पार्टियों को बेनकाब कर दिया। इन दलों के छुपे एजेंडे को सामने रख दिया। आजादी के समय पाकिस्तान और बांग्लादेश देने के अपराधी नेताओं की मंशा वक्फ के माध्यम से भारत का बड़ा भूभाग देने की थी। इसकी पोल खुल गई। न्यायालय में उन्हीं विचार के वकील नेताओं की बोली ने देश की छाती को छलनी करने का काम किया है। सुनवाई से पहले ही दौर में न्यायालय का आदेश देने का उतावलापन भी देश को अखरा है। 2013 में मनमोहन-सोिनया सरकार ने वक्फ को असीमित अधिकार दिये उस संशोधन पर आज तक न्यायालय ने संज्ञान नहीं लिया और उस असीमित अधिकार को खत्म करने का संशोधन बिना सुनवाई के ही आदेश देने की बात हो गई? यह डराने के लिए पर्याप्त है। यहीं से देश ने सर्वधर्म समभाव की राजनीति को बिदा करने का मन बना लिया। देश की राजनीति में यह उथल-पुथल एक बेहतर भारत का सपना देखने का प्रेरणा देता है। लेकिन जिस प्रकार इस्लामिक हिंसा ने देश के कई भागों में तांडव किया है उसने विश्व भर में हो रही इस्लामिक हिंसा के साथ इसे भी जोड़कर देखने के लिए विवश किया है। यह हिंसा भारत में सर्वधर्म समभाव की राजनीति की कब्र खोदने और उसे कब्र में डालने का काम कर रही है। बहुसंख्यकवाद की राजनीति का प्रभाव आने वाले दिनों में बढ़ेगा इसकी संभावना खुली आंखों से दिखाई दे रही है। कांग्रेस इस झटके को संभाल पाने की स्थिति में नहीं दिखाई दे रही है। मोदीयुग भारत के लिए ताकतवर समय देने वाला है। उसकी गूंज सुनाई दे रही है।

संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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