‘धार्मिक’ जुलूसों पर यह हमला बोलना है ‘तंगदिली’
यह कहना बिलकुल भी उचित नहीं होगा कि धार्मिक जुलूसों पर पथराव सहित अन्य प्रकार का व्यवधान केवल मुस्लिम समाज की ओर से हो रहा है? फिर भी यह कहना तो बनता ही है कि पिछले समय से इस प्रकार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
सुरेश शर्मा, भोपाल। यह कहना बिलकुल भी उचित नहीं होगा कि धार्मिक जुलूसों पर पथराव सहित अन्य प्रकार का व्यवधान केवल मुस्लिम समाज की ओर से हो रहा है? फिर भी यह कहना तो बनता ही है कि पिछले समय से इस प्रकार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। यह तंगदिली ही कही जायेगी? क्या तंगदिली कहने से काम चल जायेगा? जब महाकाल की सवारी पर थुकने जैसा काम होता है। जब अगली सवारी के लिए धमकी दी जाती है तब यह मामला अधिक गंभीर हो जाता है। लेकिन मुस्लिम आबादी की बहुलता वाले क्षेत्रों में से कोई धार्मिक जुलूस निकाला जाता है तब पथराव और हिंसा की घटनाओं की बढ़ोतरी अच्छा संदेश नहीं है। कुछ ऐसा वातावरण बनता जा रहा है जिसे सामाजिक विद्वेष की परिभाषा देने का मन बनता है। क्या हम सामाजिक टकराव की ओर बढ़ रहे हैं। तब यह विचार करना होगा कि ऐसा क्या हो रहा है जिससे यह सामाजिक टकराव की स्थिति बन रही है? क्या सामाजिक असन्तुलन बन रहा है? यह सामाजिक असन्तुलन सरकार की योजनाओं से बन रहा है या अन्य सामाजिक गतिविधियों के कारण है। इस प्रश्र का उत्तर खोजने से पहले यह विचार करना होगा कि आखिरकार हम सामाजिक असन्तुलन किसको मानेंगे? तब उत्तर मिलता है कि सरकार की ओर से भेदभाव को ही बस सामाजिक असन्तुलन की परिधि में रखा जा सकता है।
भारत वर्ष में सत्ता संचालन के दो दौर हैं। 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद सत्ता की विचारधारा में बदलाव आया है। जबकि 2014 से पहले की सत्ता विचारधारा ऐसी नहीं थी। तब क्या सत्ता की विचारधारा के आधार पर सामाजिक असन्तुलन की बात की जा सकती है? यदि ऐसा होता तो देश में विवाद और हिंसा इससे पहले ही हो जाना चाहिए थी? बहुसं यक समाज की सामाजिक प्रताड़ना और लगभग सत्ता से दूर करने की योजना लम्बे समय से चलती रही है। यह कहा जा सकता है कि सत्ता में बहुसंख्यक समाज की भागीदारी तो अधिक होती थी और अल्पसंख्यकों की कम ही रहती थी तब असन्तुलन कैसा? झुकाव का संदेश से यह बात प्रमाणित होती है। क्योंकि शासन का स्वभाव की अल्पसंख्यकवादी हो चला था। इस सामाजिक असमानता के बाद भी देश में धार्मिक आयोजनों में हिंसा और पथराव की घटनाएं नहीं होती थी। यह समाज की मानसिकता और उसकी जीवन शैली के आधार पर समझा जा सकता है। लेकिन आजकल पथराव और हिंसा की घटनाएं बढ़ना सामाजिक मानसिकता का परिणाम है।
अभी तक समानताएं नहीं हुई हैं। आजादी के बाद ये राजनीति ने समाज को प्रभावित करके जिस स्थिति में खड़ाकर दिया था वहां से बराबरी नहीं हो पाई है। जिस प्रकार आरक्षण देकर दलित और आदिवासियों को आजादी के अमृतकाल तक बराबर नहीं किया जा सका है तब हम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बराबरी होने में इतनी जल्दबाजी क्यों कर रहे हैं? जहां भी अल्पसंख्यक जनसंख्या में आगे आये वहां बहुसंख्यक धार्मिक आयोजनों में समस्या पैदा होना आम बात है। यह तंगदिली और उससे अधिक कहा जाने वाला को शब्द भी प्रयोग हो सकता है। इसे रोकने की जरूरत है।
सरकारी योजनाओं में किसी भी प्रकार के भेदभाव की शिकायत विरोधियों की ओर से भी नहीं आई है। हमें कुछ बातों को याद करना ही चाहिए। आजादी के समय भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था। मुस्लिम समाज को पाकिस्तान मिल गया और हिन्दूओं को भारत वर्ष। यहां समझने वाली बात यह है कि हिन्दू समाज सनातन धर्म नहीं है। हिन्दू भारत के लोगों की जीवन पद्यति है। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया हुआ है। सयह निर्णय आया उस समय मोदी सरकार नहीं थी। इसलिए जो भारत में रूके उनके पंथ और पूजा पद्यति अगल हो सकते हैं लेकिन जीवन पद्यति हिन्दू ही थी। इसलिए आज भी उन्हें अपनी जीवन पद्यति हो हिन्दू ही रखना चाहिए। जब वह इस्लाम बनने का प्रयास करेगी इस प्रकार के पथराव होंगे ही। अन्यथा सभी धर्मों के आयोजनों के सहभागियों को शरबत पिलाने की मान्यता रहती थी पथराव से स्वागत करने की नहीं। सरकारों को विचार करना होगा कि देश के किसी भी भाग में जनसंख्या अनुपात नहीं बिगडना चाहिए?