राष्ट्रपति पर निशाना साधते घिरे तीनों गांधी और वाड्रा… खीज दिखा रही गांधी परिवार की भाषा
भारत की राजनीति में शीत युद्ध चलता हुआ दिखाई दे रहा है। कई बार तो लग रहा है कि प्रधानमंत्री और गांधी परिवार आमने सामने आ रहे हैं। कई बार ऐसा भी लगता है कि गांधी परिवार के लोग दूसरे रास्ते से प्रधानमंत्री को निशाने पर लेने का प्रयास कर रहे हैं।

सुरेश शर्मा, फोपाल।
भारत की राजनीति में शीत युद्ध चलता हुआ दिखाई दे रहा है। कई बार तो लग रहा है कि प्रधानमंत्री और गांधी परिवार आमने सामने आ रहे हैं। कई बार ऐसा भी लगता है कि गांधी परिवार के लोग दूसरे रास्ते से प्रधानमंत्री को निशाने पर लेने का प्रयास कर रहे हैं। अडाणी अंबानी का नाम लेकर निशाना साधना इसी प्रकार के तरीके के रूप में देखा जा रहा है। आखिर गांधी परिवार को सीधे सरकार से टकराने की जरूरत क्यों आन पड़ी है। इससे पहले ऐसा राजनीतिक नजारा नहीं दिखता था। सब मुद्दों और विचारधारा का विराेध होता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से गांधी परिवार सीधे आक्रमण में आ गया। अब जब तीसरी बार सरकार बनाने में मोदी को कामयाबी मिल गई और कांग्रेस शतक भी नहीं लगा पाई तब यह विरोध खीज में बदलता हुआ प्रतीत होता है। राष्ट्रपति पर अभिभाषण के बाद की गई सोनिया गांधी की टिप्पणी खीज के बिलकुल करीब आ पहुंची थी। मोदी जिस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं यह परिवार खीज को धारण करेगा यह पक्का दिखाई दे रहा है। उसमें बजट ने और सहयोग कर दिया है। जिस प्रकार का बजट आया है उसने देश में सकारात्मक वातावरण बना दिया। हर वर्ग यह कह रहा है कि इस प्रकार का बजट आजादी के बाद से कभी आया हो याद नहीं है। मध्यम वर्ग को बजट से सबसे अधिक शिकायत होती थी लेकिन इस बार के बजट से यही वर्ग सबसे अधिक खुश है। जिसका लाभ आने वाले समय भाजपा को मिलेगा और कांग्रेस सहित विपक्ष का जनाधार कमजोर होगा। इस राजनीति कारण से आने वाले समय में कांग्रेस का नेतृत्व सेल्फ गोल करता जायेगा? दिल्ली का चुनावी समीकरण बदल जाने की चर्चा शुरू हो गई है। इसका सबसे अधिक खामियाजा कांग्रेस को ही भोगना होगा। अब कांग्रेस को एक ऐसे खाद की जरूरत है जिससे इसका ग्रोथ हो सके?
भारत सरकार का बजट जिस प्रकार का आया है उसकी आलोचना करने के लिए विपक्षी दलों को मौके तलाशना पड़े हैं। सबसे पहले प्रतिकि्रया के लिए अखिलेश यादव मीडिया के सामने पड़ गये। बजट के आकंड़ों की बजाए महाकुंभ में मरने वालों के आंकड़ों में उलझ गये। यह हो सकता है कि वहां सरकार जिस आंकड़ें का बता रही हो मृतकों की संख्या उस आंकड़े से मेल नहीं खाती हो? लेकिन बजट की प्रतिक्रिया में आंकड़ा बजट का ही देना होता है। इसके बाद शिवेसना उद्धव की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी सामने आई तो इतना कह कर निकल गई कि मध्यम वर्ग को राहत दी गई है। ठीक है। तब तक नेताओं के समझ में आ गया कि बजट की आलोचना किस रास्ते से की जा सकती है। तब जाकर यह कहा जाने लगा कि भाजपा को अपने दम पर बहुमत नहीं मिलने का प्रभाव है कि मध्यम वर्ग के सामने सरकार को झुकना पड़ा। अब तक कड़ी आलोचना करने जैसी स्थिति विपक्ष के हाथ नहीं लग पाई है। नेता विपक्ष राहुल गांधी ने मरहम बताया और वैश्विक अर्थव्यवस्था का सहारा लेकर अपनी प्रतिक्रिया दी। लेकिन सरकार मलहम लगा रही है यह उन्हें भी कहना पड़ा। यही वह राजनीति है जिसने कांग्रेस ने उसका जनाधार छीनना जारी रखा हुआ है।
दिल्ली विधानसभा के लिए मतदान सामने है। इसलिए मध्यम वर्ग की बहुत ही जरूरत है। इस वर्ग का समर्थन भाजपा को मिलता रहा है। आप को भी बराबर का समर्थन मिलता है। इसलिए वह सरकार में रहती है। अब समीकरण बदल सकते हैं। यदि दिल्ली के राजनीतिक समीकरणों को देंखे तो इंडी गठबंधन के दल कांग्रेस का समर्थन करने के लिए नहीं आप का समर्थन करने आ रहे हैं। अखिलेश यादव ने केजरीवाल के साथ सभा की। उद्धव का समर्थन भी केजरीवाल को ही मिला? किसी ने भी कांग्रेस का समर्थन नहीं किया। मतलब कांग्रेस दिल्ली में महत्वपूर्ण भूमिका में नहीं है। वह आप को नुकसान पहुंचायेगी और भाजपा को उससे लाभ होगा। इसलिए गांधी परिवार के दिलो दिमाग में हार और भविष्य का डर दिखाई दे रहा है। राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद जिस प्रकार की टिप्पणी राहुल और सोनिया ने की वह कांग्रेस के नेतृत्व की कार्यशैली को दिखाने के लिए पर्याप्त आधार बन जाता है। देश का राष्ट्रपति बेचारा नहीं हो सकता है। इसलिए सोनिया गांधी की भाषा सामंती मानसिकता को ही प्रदर्शित कर रही है। लगातार तीन चुनाव बुरी तरह हारने के बाद भी उनके दिमाग से यह नहीं निकल रहा है कि देश की जनता में कांग्रेस और गांधी परिवार के प्रति वह भाव नहीं रहा है। जिन नेताओं ने देश के लिए कुछ किया था उनका लाभ भी आज का नेतृत्व अर्जित करने की स्थिति में नहीं है। उदाहरण के रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है। राजा महाराज का समय बीते समय हो गया। लेकिन उनका हाव भाव, चाल और व्यवहार आज भी उसी प्रकार की है। उनकी भाषा में वही गरिमा और वही रौब रहता है। इसलिए उनके प्रति सम्मान कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कई पीढ़ियों के बाद भी उनके प्रति आस्था कम नहीं हो रही है। लेकिन सोनिया, राहुल और पि्रयंका त्रिवेणी बनने की बजाए दिन प्रतिदिन अपनी छवि और गरिमा को प्रभािवत करने वाली घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। इसकी स्थिति अब खीज तक आ पहुंची है।
किसी भी देश में व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा तो सुनी है। दो उद्योगपति अपना आर्थिक साम्राज्य उच्च दिखाने या बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं ऐसा तो देखा है। लेकिन कोई राजनीतिक दल कुछ औद्योगिक घरानों के खिलाफ प्रचार करता इसी युग में देखा जा सकता है। पंडित नेहरू, इंदिरा और राजीव कालखंड में औद्योगिक घरानों को संरक्षण दिया जाता था? क्योंकि इससे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार और रोजगार की समस्या का निदान होता है। इसलिए कुछ बातों की अनदेखी करने का भी चलन रहा। अब तो हर विषय में अडाणी का आ जाना और वे जब अकेले कई बार आक्रमण का शिकार हो जाते हैं तब अंबानी का नाम लेना भी शुरू कर दिया जाता है। इससे ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि पार्टी और नाम के प्रति जनता की अवधारणा में बदलाव आ रहा है। अब तो यह भी हाे चला है कि पार्टी के अन्दर भी इस बात पर चर्चा होती है कि आखिर यह फोबिया पार्टी को कहां ले जायेगा? यह भी खीज तक पहुंच गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार की राजनीति गांधी परिवार के लिए निर्धारित की है उससे यह परिवार भाषा का नियंत्रण खोता जा रहा है। मोदी इनकी बातों का राजनीतिक रूप से इस्तेमाल करते हैं। वे इनको जवाब देने की बजाए मतदाता को जवाब देने के लिए आग्रह करते हैं। इन दिनों राजनीति में मोदी के स्टार बुलंद हैं इसलिए जनता उनकी बात को मान लेती है और कांग्रेस के सभी प्रयासों के बाद भी न तो कोई राज्य जीत पा रही है और न ही तीन प्रयास के बाद भी सांसदों का शतक लगा पाई है। मोदी को जब यह पता चला कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद सोिनया गांधी ने भी भाषा की मर्यादा को लांघ लिया है तब उसका दिल्ली की जनता के सामने उसे रख दिया। दिल्ली की जनता इसका उत्तर देगी यह संभावना उनके मन रही होगी? यह पहला अवसर है जब राष्ट्रपति भवन की ओर से भी गांधियों की भाषा पर एतराज जताया है। यह करारा जवाब है और यह खीज को दर्शाने का पर्याप्त आधार बनता है।
इसलिए गांधी परिवार को आज भी कोई यही सलाह देगा कि उन्हें भाषा की मर्यादा का ख्याल तो रखना ही होगा? अन्यथा कांग्रेस दल के रूप में केवल उन्हीं लोगों का स्थान बचा रह जायेगा जो अपने भविष्य के प्रति कोई उत्साह नहीं रखते हैं। उनका सुबह परिवार की तारीफ से शुरू होगा और तारीफ करते ही बीत जायेगा। उन्हें प्रमोद तिवारी जैसा ही बनना होगा? अन्यथा देश को फिर से अपना विजन देना होगा और एक विचारधारा का निर्धारण करना होगा? नेतृत्व को देश के प्रति अपनी सोच दिखाना होगी? यह आशा जगी थी जब प्रियंका वाड्रा सदन में आई थीं। उनका पहला भाषण छाप छोड़ने वाला था लेकिन वे अपने आप को अगले सत्र तक भी नहीं संभाल पाईं। वे राहुल गांधी जैसी ही राजनीति करती दिखने लग गई हैं। जो राजनीति सफलता का आधार नहीं बन पाई। उन्हें जन स्वीकार्यता वाला नेता नहीं बना पाई? जिनके प्रयास तेजी से होते हैं लेकिन परिणाम तक पहुंचने के समय पर परिणाम शून्य तक की स्थिति तक आ जाते हैं। प्रियंका को अपनी समीक्षा करना होगी ताकि कांग्रेस पार्टी और नेतृत्व कीे खीज की गर्त में जाने से रोका जा सके?
संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)