यह तो समझना ही होगा कि आप समर्थन में है या विरोध में… सत्ता की सीढ़ी बनता आतंकवाद
हिंसा और आतंकवाद की परिभाषा में उलझने की बजाए सीधे इस बात पर आते हैं। भारत के क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर आतंकवाद को आधार बनाकर हिंसा हो रही है। जम्मू और कश्मीर वह क्षेत्र है जहां पर सीमा पार से आतंकवाद की शह होती है। कुछ पाकिस्तान से और कुछ गुमराह भारतीय नागरिक भी आतंक को अंजाम देते हैं।
सुरेश शर्मा
हिंसा और आतंकवाद की परिभाषा में उलझने की बजाए सीधे इस बात पर आते हैं। भारत के क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर आतंकवाद को आधार बनाकर हिंसा हो रही है। जम्मू और कश्मीर वह क्षेत्र है जहां पर सीमा पार से आतंकवाद की शह होती है। कुछ पाकिस्तान से और कुछ गुमराह भारतीय नागरिक भी आतंक को अंजाम देते हैं। इस हिंसा से भारत को बड़ी सैन्य नुकसान हुआ है। कारगिल में जिस प्रकार से हमारे सेना के युवा अधिकारी शहीद हुए थे उससे अधिक संख्या कश्मीर हिंसा में शहीद होने वालों की है। एक दौर था जब खालिस्तान की मांग करके पंजाब भी हिंसा की गिरफ्त में रहा था। यह पाकिस्तान से लगा हुआ प्रांत है इसलिए वहां से शह की संभावना से कभी इंकार नहीं किया गया। इसके अलावा अमेरिका सहित कुछ देश ऐसे हैं जिनको इनका अड्डा माना गया। कनाडा काे इसमें नम्बर वन माना जा सकता है। कनाडा के साथ भारत का विवाद किससे छिपा है। इस विवाद का आधार केवल खालिस्तान समर्थकों का समर्थन ही है। आतंकवाद दो प्रकार से राजनीतिक लाभ देता है। एक उसको खत्म करने के रचनात्मक प्रयासों के कारण और दूसरा उसको परोक्ष समर्थन करके। भारत में इन दिनों इसी प्रकार का राजनीतिक विवाद छिड़ा हुआ है। कुछ आरोप ऐसे हैं जिसमें यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा है कि आतंकवाद का समर्थन करके पंजाब में सत्ता वापसी का प्रयास किया जा रहा है? जिन पर यह आरोप है वे इससे इंकार करते हैं। विवाद चरम पर है और यह लगता है कि इस विवाद का कोई न कोई परिणाम सामने आयेगा? सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जम्मू कश्मीर से आतंकवाद का प्रभाव कम हो रहा है विधानसभा के चुनाव के समय मतदान का प्रतिशत भी इसका समर्थन करता है इसलिए दूसरी तरफ के मरे आतंक को हवा दी जा रही है? जो भी हो आतंकवाद का समर्थन सत्ता की सीढ़ी नहीं हो सकता है?
विषय राहुल गांधी के अमेरिका के बयान के बाद उदभूत हुआ है। सीधा सवाल यह खड़ा हुआ कि जब जम्मू कश्मीर के चुनाव में मतदाता के रूझान को देखा गया तब यह संदेश गया कि यहां आतंकवाद की जड़ें कमजोर हो गई है। ऐसे में खलिस्तानी आतंकवादियों को जहां वे बैठे हैं वहां पर हवा दी गई? राहुल गांधी का एक बयान इसका आधार माना गया। राहुल ने अमेरिका में कह दिया कि भारत में सिखों का पगड़ी और कड़ा पहनने से रोका जा रहा है? जबकि अभी तक किसी भी स्थान से ऐसे शब्दों की गूंज सुनाई नहीं दी? ना कोई आन्दोलन का सुना गया और ना ही कोई रिपोर्ट पुलिस थानों में आई? फिर इस प्रकार की बात राहुल गांधी क्यों कह गये? इसके पीछे यही तर्क दिया जा रहा है कि देश में आतंकवाद का बने रहना ही विपक्षी राजनीति का बड़ा सहारा है। जब वह जम्मू कश्मीर से समाप्त होने की दिशा में पहुंच गया है तब खालिस्तान समर्थकों को हवा दी जाये। जिस आतंकवादी हिंसा को पंजाब से उखाड़ने का श्रेय कांग्रेस की सरकार को ही जाता है। श्रीमती गांधी को इसके लिए स्वर्ण मंदिर पर गोले दागना पड़े थे और उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी ने पंजाब समझौता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ किया था। अब उन्हीं का वंशज राजनीतिक हित के लिए उसी हिंसा को आमंत्रण देने के आरोपों में घिरा हुआ है?
इस मामले में एक तथ्यात्मक बात यह भी है कि 1984 में भाजपा को महज दो सांसद लोकसभा में मिले थे। उन दो सांसदों का इतिहास भी इसी खालिस्तानी हिंसा और स्वर्ण मंदिर पर तोप दागने से जुड़ा हुआ है। भाजपा ने उस समय स्वर्ण मंदिर पर हमला करने का विरोध किया था। उस विराेध के कारण हिन्दू समाज ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। जब यह बात ज्योति बसु ने अटल बिहारी वाजपेयी को पूछी तब उन्होंने कहा था कि हमारे लिए संसद सदस्यों संख्या अधिक मायने नहीं रखती हम तो हिन्दू सिख एकता को बनाये रखना चाहते हैं। हिन्दू समाज को यह बात अगले चुनाव तक आ जायेगी। कमोवेश ऐसा ही प्रमाण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रस्तुत किया है। जिन तीन कृषि कानूनों का वापस लेने का घटनाक्रम है वह भी इसी भावना के कारण हुआ था। आन्दोलनकारियों का समर्थन करते हुए गुरूद्वारों में नमाज पढ़ने की अनुमति देने की घोषणा ने मोदी को विचलित कर दिया था। उन्होंने इस दिशा में आगे बढ़ने से रोकने के लिए कानून वापस लेने का निर्णय सुना दिया था। यह बात भी सबने समझी है कि लोकसभा चुनाव 2024 में पंजाब में भाजपा को वोट तो मिले लेकिन सीट नहीं जीती जा सकी। एक खालिस्तान समर्थक निर्दलीय चुनाव जीत गया। यह उनकी लोकतंत्र में आस्था है या फिर कोई और कारण है? इसी बीच इस बात काे भी समझना होगा कि कुमार विश्वास ने केजरीवाल को पंजाब की सत्ता में आने से पहले ही यह कह दिया था कि उनकी बैठक किनके साथ हो चुकी है और वे सत्ता में आयेंगे? यह बात साफ प्रमाणित हुई। इसी राह पर राहुल गांधी चलने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि उनके बयान का समर्थन खालिस्तान समर्थक आतंकी पन्नू ने किया है।
राहुल गांधी के अमेरिका में दिये गये भाषण जिसमें खालिस्तानी आतंक को हवा देने का प्रयास किया गया था का बड़ा विरोध हुआ। भारत से ऐसी प्रतिक्रिया आयेगी संभवतया कांग्रेसी रणनीतिकारों को भान नहीं था। लेकिन आ गई। यह हो सकता है कि इसके पीछे भाजपा ने रण्नीतिक रूप से रवनीत सिंह बिट्टू को सामने किया हो लेकिन बिट्टू का सामने आना राहुल का पूरा समीकरण बिगाड़ गया। बिट्टू का सीधा आरोप कांग्रेस की रणनीति की चूलें हिला गया। राहुल को नम्बर वन आतंकवादी कहने का अर्थ ही इतना गंभीर हो गया कि अब आतंकवाद का समर्थन करके सत्ता पाने की रणनीति पर फिर से विचार करना होगा। लेकिन राहुल गांधी अपने बयान पर कायम हैं। लेकिन उसमें अच्छा खासा बदलाव कर दिया गया है। अब वे यह कहते हैं कि सिखों का पगड़ी और कड़ा पहनने देना चाहिए या नहीं? यह उससे भी खतरनाक तरीका है आतंकवाद को समर्थन देने का। इसलिए राजनीति को आज के प्रभावी नाम किस दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं यह जरूर समझना होगा।
जिस दल को सरकार का संचालन करने का जनादेश मिल गया वह तो यह दिखा नहीं सकता है कि वह आतंकवाद का समर्थन करता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार की नक्सलवाद के प्रति लचीला व्यवहार यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वे हिंसा की मानसिकता को मरने नहीं देना चाहते हैं। वहीं भाजपा की पहले दिन से यह नीति रही है कि आतंक का कोई भी रास्ता हो वह विकास के लिए बाधक है। जम्मू कश्मीर को लेकर जिस प्रकार की नीति बनाई गई उसका परिणाम अब दिखाई दे रहा है। हिंसा में शामिल लोगों का खात्मा और आम नागरिकों का अवसर प्रदान करके उनको उससे दूर करने की नीति। इस बार के आम चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह अपनी नीति में कामयाब हो रही है। जेके के नागरिक यह मान रहे हैं कि भारत जैसा ताकतवर देश हिंसा से पराजित नहीं किया जा सकता है। इसलिए लोकतंत्र में भागीदारी करके ही मुख्यधारा में लौटा जाये? राशीद इंजीनियर का लोकसभा सदस्य होना किस दिशा की कहानी है यह तो कुछ समय बाद ही पता चलेगा। लेकिन अपेक्षा से अधिक मतदान ने नागरिकों का भारत की नीति और सरकार के प्रति आकर्षित किया है।
पंजाब की राजनीति को एक बार जिस तरीके से हिंसा की ओर ले जाने का प्रयास हुआ है उसको रोकने की नीति यही रहेगी या बदलना होगी। देखना चाहिए। कुछ कट्टर पर इमोशनल सिखों को छोड़ दिया जाये तो उन्हें यह समझ में आ रहा है कि मोदी ही देश के ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं जब सिख अपनी कृपाण लेकर उनसे मिलने जाते हैं। इससे पहले ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि कड़ा नहीं पहनने दिया जाता है। किसान आन्दोलन की आड़ में जिस प्रकार का वातावरण और दूरियां पैदा की गई है उनको पाटने के लिए भी काम हाे रहा ही होगा। किसान अपने खेतों की ओर लौट जायें तो किसी को आतंक खड़ा करने का मौका ही नहीं मिलेगा? सत्ता पाने के लिए हिंसा और आतंकवाद का सहारा लेना लोकतंत्र के स्वस्थ्य स्वरूप का अपमान ही है। और आज के युवा राजनेता यह संदेश देने में कामयाब नहीं हो पाये हैं कि वे देश को या अपने प्रदेश को विकास की राह पर ले जाने का किस प्रकार का विजन रखते हैं?
संवाद इंडिया
(लेखक हिंदी पत्रकारिता फांउडेशन के चेयरमैन हैं)