दिल्ली की रेस में आ पाएंगे राहुल गांधी
कांग्रेस की भारत जोड़ा यात्रा का अंकगणित
सुरेश शर्मा। कांग्रेस की भारत जोड़ा यात्रा कुछ विवादों के बाद अब तक पांच राज्यों को पूरा करते हुए आगे बढ़ रही है। वह दिसम्बर महीने में मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की ओर से प्रवेश करेगी। भारत जोडऩे के मकसद पर हालांकि राजनीतिक विवाद जरूर हुआ इसके बाद भी यात्रा ने कांग्रेस को ताकत प्रदान करने की संभावना को जगा दिया है। जैसा कि अभी तक देखा गया है जिस भी नेता ने देश को या प्रदेश को पग-पग से नापने का प्रयास किया है उसकी पार्टी को मतदाता का समर्थन मिला है और उसे भी व्यक्तिगत रूप से शक्ति मिली है। इसमें से अधिकांश ने तो उच्च पदों को सुशोभित भी किया है। केवल मुरली मनोहर जोशी केन्द्र सरकार में मंत्री बनकर रह गये जबकि लालकृष्ण आडवाणी पीएम इन वेटिंग तक पहुंच पाये। चन्द्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये थे। मध्यप्रदेश के संदर्भ में देखें तो दिग्विजय सिंह और सुन्दरलाल पटवा दोनों प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। राहुल गांधी के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि वे पीएम इन वेटिंग तो कई बार रह चुके हैं। इसलिए उनकी संभावनाओं के लिए यात्रा के समापन का इंतजार करना होगा। देखने वाली बात यह भी होगी कि राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के साथ रेस करते दिखेंगे या फिर विपक्ष ने जो कांग्रेस को नकार रखा है उसी रेस में उलझकर अगुवा बनने की स्थिति में आ पाएंगे? अभी तक कांग्रेस का प्रबंधन इतना बेहतर रहा है कि राहुल के बयान और गतिविधियों की आलोचना का बवंडर खड़ा नहीं हो पाया है।
यात्रा पचास दिन से अधिक का समय पूरा कर चुकी है। राहुल गांधी को लेकर कोई ऐसा मीम नहीं आया है कि वे यात्रा में कुछ ऐसा कर बैठे हैं जिसको चटकारे लेकर बताया जा रहा हो। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस ने यात्रा का बेहतरीन प्रबंधन किया हुआ है। राहुल की ऐसी गतिविधियों का प्रचार भी किया जा रहा है जिससे यह संदेश जाये कि वे सामान्य होने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रकार यात्रा के वांछित परिणामों की कांग्रेस को अपेक्षा है। भारत जोड़ो नामकरण की सबसे पहले आलोचना हुई लेकिन वह संदेश देने के बाद भाजपा ने यात्रा को उसके हाल पर छोड देने की रणनीति के तहत चर्चा से बाहर हो गई। भारत जोड़ो का कांग्रेसी मतलब यह है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में समुदायों के बीच आई दूरी को एक करना या जोडऩा इस यात्रा का मकसद है। यह मंतव्य भारत रत्न, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस कथन को पूर्ण करता है जिसमें उन्होंने पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु से कहा था कि साम्प्रदायिकता दुधारी तलवार है जो दोनों तरफ से वार करती है। भारत जोड़ों में यदि समुदायों के बीच दूरी दिखाकर उन्हें नजदीक लाने का प्रयास है तब पहले दूरी दिखाना होगी और यहीं से वह धु्रवीकरण शुरू हो जायेगा जिसको मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। आजाद भारत के इतिहास में हिन्दू समाज के लिए वह सब नहीं हुआ जो अन्य समुदायों को प्राथमिकता में रखकर कांग्रेस की सरकारों ने किया था। एक उदाहरण सबसे मौजू है। देश में सभी समुदायों के धार्मिक स्थलों का संचालन समाज के द्वारा ही किया जाता है। चाहे वे चर्च हों, मस्जिद हों या फिर गुरूद्वारे। लेकिन हिन्दू मंदिरों का संचालन सरकारों के द्वारा किया जाता है। ऐसा इसलिए किया गया कि अंग्रेजों के शासनकाल में हिन्दू समाज को अपने धर्म का प्रचार करने के लिए आर्थिक संपन्न होने से रोका जा सके। ऐसा कानून गुलामी काल में आया था। सबसे दुखद पक्ष यह है कि कश्मीर को धारा 370 देने वाले पंडित नेहरू ने इसे आजाद भारत में भी जारी रखा। पंडित जी ने भी यही माना कि हिन्दू मंदिरों का रख रखाव हिन्दू समाज और उसके धर्मगुरू नहीं कर सकते। वे भी ईसाइयत के षडयंत्र में सहभागी हो गये। आज भी जब मोदी राज में अनुकूलता का वातावरण है तब राहुल गांधी अपने नाना की मंशा के अनुसार भारत जोडऩे की आड़ लेकर देश नापने निकल पड़े हैं।
इतना गूढ अर्थ सहज रूप से समझा नहीं जा सकता है यही मानकर कांग्रेस के नेताओं ने इस यात्रा का नाम भारत जोड़ो रखा है। अनेकों बार ऐसे प्रमाण मिले हैं कि नाम के अनुसार काम नहीं हो पाता और यात्रा हो या कोई और आन्दोलन उसके राजनीतिक निहितार्थ कुछ और ही हो जाते हैं। अन्ना आन्दोलन देश को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए आयोजित हुआ था लेकिन उससे हुआ आम आदमी पार्टी का जन्म। आज आम आदमी पार्टी के नेताओं पर आबकारी घोटाले के आरोपों में सीबीआई जांच चल रही है। कुछ मंत्री जेल में हैं और उन्हें जमानत के लाले पड़े हुए हैं। नई राजनीतिक संस्कृति की अवधारणा के साथ दिल्ली की सरकार में काबिज आप आज मुफ्त का लालच दिखाकर वोट कबाडने का काम कर रही है। इसलिए राहुल गांधी की यात्रा के राजनीतिक निहितार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती है। वैसे भी कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है और राहुल गांधी भी स्वभाविक कि अपने पूर्वजों की भांति देश की कुर्सी संभालने का मंसूबा रखते होंगे। ऐसे में यात्रा के राजनीतिक महत्व के बारे में चर्चा स्वभाविक हो जाती है।
कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को अपना नेता लांच करने के अभी तक आधा दर्जन प्रयास कर चुकी है। हर बार के प्रयासों का परिणाम आपेक्षित नहीं रहा। इसका मूल कारण यह रहा कि राहुल गांधी के पास राजनीतिक ज्ञान का खजाना उतना नहीं है जितना गांधी परिवार के अन्य नेताओं के पास रहा था। राजीव गांधी राजनीतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति नहीं थे लेकिन उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए कम्प्युटर युग की शुरूआत की। उसी नींव पर आज हम डीजिटल युग का सामना कर पा रहे हैं। नेहरू जी और इंदिरा जी की बात तो कुछ अलग थी यह तो देश कह रहा है। सोनिया गांधी को न तो भारत के इतिहास का पता और न ही वे भूगोल जानती हैं लेकिन राजनीति को उन्होंने अपने आस-पास ही रखा। लेकिन राहुल गांधी प्रत्येक प्रयोग में वांछित परिणाम नहीं दे पाये। उनके साथ श्रीमती प्रियंका वाड्रा को भी कांग्रेस ने यूपी सहित अन्य स्थानों पर आजमाने का प्रयास किया लेकिन वे राहुल से आगे निकलने की स्थिति वाली नेता साबित नहीं हो पाईं। इसलिए बड़े प्रोग्राम के साथ राहुल गांधी को एक बार फिर से लांच करने की योजना बनी है। इस योजना के वांछित परिणामों की संभावना से कोई इंकार नहीं कर सकता है।
अभी तक जिन भी नेताओं ने यात्रा निकाली उनमें से अधिकांश को वांछित परिणाम मिले हैं। लालकृष्एण आडवाणी रथयात्रा के जनक माने जाते हैं लेकिन वे पीएम इन वेटिंग तक पहुंचे। जनता ने उन्हें स्पष्ट बहुमत नहीं दिया और गठबंधन की स्थिति भी नहीं बनी इसलिए वे किनारे हो गये। मुरली मनोहर जोशी ने भी कश्मीर के लालचौक तक यात्रा की लेकिन वे अधिक कुछ प्राप्त नहीं पाये। लेकिन उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा आज भ्ी अव्वल है। वे वैचारिक तौर पर पहले से ही समृद्ध रहे हैं इसलिए उनकी हार-जीत पर चर्चा नहीं होती। चन्द्रशेखर की पदयात्रा का उस समय तो कोई परिणाम आंका नहीं गया लेकिन वे कालान्तर में देश के प्रधानमंत्री बने। राहुल की यात्रा के प्रभारी दिग्विजय सिंह की मध्यप्रदेश में पदयात्रा का प्रभाव यह हुआ कि उनके समर्थकों की बड़ी फेहरिस्त हो गई और वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसी प्रकार सुन्दरलाल पटवा ने भी बस्तर से झाबुआ तक की पदयात्रा की थी और वे भी प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और भाजपा को सत्ता लायक जनाधार देने वाले नेता भी वे ही माने जाते हैं। ऐसे में राहुल गांधी को किस श्रेणी में रखा जाये इसकी चर्चा स्वभाविक है। आज कांग्रेस की राजनीतिक ताकत सबसे नीचले स्तर पर है। देश के बड़े राज्यों से वह गायब है। विपक्षी दल भी कांग्रेस को दौड में नहीं मानकर उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसे में राहुल की या पदयात्रा उन्हें मोदी के साथ रेस में लाकर खड़ा करती है या फिर विपक्ष में अपनी प्रधानता तक सीमित रखती है। इसका इंतजार हमको तक तब करना होगा जब यात्रा का कश्मीर में समापन न हो जाये। दिन-प्रतिदिन यात्रा की गतिविधियों पर जहां सत्ताधारी भाजपा और समीक्षकों की है उसी प्रकार हमको भी रखना होगी।
संवाद इंडिया