जनसंख्या असन्तुलन पर राजनीति
कश्मीर, पूर्वोत्तर व मेवात पर विपक्ष का इमोशन खेल
सुरेश शर्मा
जिस प्रकार की राजनीति भारत वर्ष में होती है वैसी शायद ही किसी अन्य देश में दिखाई देती हो। विभाजन के समय बना पाकिस्तान हमारा पड़ौसी है, वहां की राजनीति को ही देख लेते हैं। वहां कब्जाये हुए कश्मीर और ब्लूचिस्तान की बात आये तब सभी राजनीतिक दलों का एक ही स्वर सुनाई देता है। ऐसा भारत में नहीं है। जिन विषयों पर राष्ट्रीय एकता दिखाने की जरूरत होती है विपक्षी नेता उस समय अधिक बयानबाजी करते हैं। यह राजनीतिक फिदरत सभी दलों की है। एक और गंभीर राजनीतिक खामी देश में दिखाई दे रही है। जिन क्षेत्रों में सामाजिक रूप से जनसं या का असन्तुलन हो गया है वहां पर यदि असहज स्थिति निर्मित होती है तब सरकार के कदमों की आलोचना कर सच की अनदेखी करके संवदेनाओं की राजनीति की जाती है। सबसे पहले कश्मीर में देखा गया। पूर्वोत्तर में देख रहे हैं। साथ में मेवात के हालात पर तो विपक्ष, खाप और न्यायालय भी बहुत जल्दबाजी में दिखाई दे रहे हैं। हालांकि मोदी सरकार समस्या को अपने हिसाब से हल करने का प्रयास कर रही है फिर भी वह यदि प्रमुख दलों को विश्वास में लेकर काम करे तो इस राजनीतिक विवाद को रोका जा सकता है। विचारों और विचारधारा का कोसो दूर होना विरोधियों को किसी भी मामले में सरकार के साथ खड़ा नहीं होने देता है। विपक्ष आवेश में भरकर राजनीति कर रहा है जिसमें तथ्यों के साथ इमोशन का घालमेल हो जा रहा है।
भारत की राजनीति के एक महत्वपूर्ण तथ्य को समझने की जरूरत है। भारत का बंटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था। यह सर्वमान्य सत्य है। भारत की विचारधारा हिन्दूत्व की जीवन पद्यति पर थी और पाक की इस्लामिक अवधारणा पर। इसके बाद भारत में जो भी पंथ, समुदाय और जातियां रहीं वे इसी हिन्दूत्व की जीवन पद्यति को मानने वाली थीं। प्रारंभिक सरकारों ने धीरे-धीरे हिन्दूत्व की जीवन पद्यति को विस्मृत करना शुरू किया और वोट बैंक की राजनीति शुरू हुई। इसकी पराकाष्ठा उस समय हो गई जब सरकार की चाबी मौलवियों और मस्जिदों के फतवों से निकलने लगी। इसका एक और नुकसान हुआ जब गैर सनातनी पंथ हिन्दूत्व की पद्यति को छोड़कर कट्टर बनने लग गये। जिसमें इस्लाम को मानने वाले अधिक हैं। शासन का एक कालखंड में धर्मान्तरण कराने वाली मिशनरी का समर्थन बढ़ गया लेकिन वोट बैंक के कारण इस्लामिक प्रभाव यथावत रहा। यहीं से भारत में उस शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ जिसके कारण लगातार भारत का विभाजन होता रहा है। आमतौर पर भारतीय समीक्षक इस पक्ष की अनदेखी करके भावनात्मक आधार पर अपनी बात कहने लगते हैं जिससे भ्रम पैदा होता है।
देश में कभी भी सामाजिक असन्तुलन को समझने और उसे सुधारने का प्रयास नहीं हुआ। जिससे यह समस्या और विकराल होती गई। कश्मीर ऐसा विषय है जिसे पहले दिन से गलत तरीके से संभाला गया। इतिहास इस बात को चीख-चीख कर कह रहा है कि कबिलाई आक्रमण को पाकिस्तान की सेना का समर्थन था। सरदार पटेल से राजा हरिसिंह के समर्थन मांगने पर भारत की फौज ने उन्हें खदेडऩा शुरू कर दिया था। पंडित नेहरू ने अपने आदेश से सेना को रोक दिया और कश्मीर का विवाद सुलझने से पहले ही युद्ध रूक गया। पंडित जी ने यही स्थिति 1962 के चीन युद्ध के समय भी पैदा की और कश्मीर का एक और हिस्सा चीन के पास चला गया। इतिहास जिन्हें गलतियां मानता है वे यहीं नहीं रूकी। धारा 370 और 35ए की सुविधाएं भी प्रदान कर दीं। जिनके कारण दो निशान, दो संविधान और दो प्रधान की स्थिति बन गई। भारत वर्ष का कोई भी कानून जब तक वहां पारित न हो जाये लागू नहीं हो सकता था ऐसी सुविधा भी प्रदान कर दी गई। आखिर इसका औचित्य क्या हो सकता है? यह प्रश्र आज भी अनुत्तरित है। यूएन में विषय ले जाने की भूल के बाद भी हम उद्घोष में दावा करते रहे हैं कि कश्मीर भारत का अभिभाज्य अंग है। संसद ऐसे प्रस्ताव पारित करती रही है। जब मोदी सरकार ने धारा 370 और 35ए समाप्त करने का काम किया तो कई विपक्षी दलों का आज भी कहना है कि वे सरकार में आये तो इसे वापस करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ इस वापसी की समीक्षा कर रही है?
कश्मीर की समस्या का सामाजिक असन्तुलन से कितना गहरा संबंध है। इस पर किसी भी सरकार ने कभी ध्यान देने का समय नहीं निकला। सेना को भेज दिया गया लेकिन वह बिना कश्मीर सरकार की लिखित अनुमति के गोली नहीं चला सकती थी। शेष भारत के नागरिकों को कई बार आक्रोशित होना पड़ा जब सेना के जवानों को पत्थर मारने वाले या नजदीक जाकर मार-पीट करने वाले दृश्य सामने आते थे। लेकिन पीडीपी के साथ सरकार बनाकर भाजपा ने इस अधिकार को समाप्त किया। आज देश की सेना आतंकवादियों को वहीं पर मार रही है। इस अन्तर को बताने की बजाए विरोध किया जा रहा है। आतंकवादियों को एक कोने में देश की सेना ने समेट दिया और खत्म करने के फार्मूले पर काम कर रही है। कश्मीर में 1961 की जनगणना के अनुसार मुसलमान और हिन्दू की आबादी का प्रतिशत 68.30 और 28.40 के आसपास ही बना हुआ है। लेकिन हिन्दूओं का यह प्रतिशत उस समय प्रभावित हो गया जब कश्मीरी पंडितों को घाटी छोडऩा पड़ी। वे आज तक वापसी की प्रतिक्षा कर रहे हैं। अब इस असन्तुलन को समाप्त करने का रास्ता खुला है।
पूर्वोत्तर की स्थिति क्या है? मणिपुर विवाद ने उसे सामने लाने का मौका दिया है। मणिपुर की समस्या को केवल इमोशन के साथ नहीं देखा जा सकता है। महिला स मान भारत के प्रत्येक नागरिक की मंशा भी है और जि मेदारी भी। लेकिन यह सब केवल इमोशन तक समेटने के पीछे का भी वही राजनीतिक खेल है जो देश भर में खेला जा रहा है। मणिपुर का मेतैई हिन्दू समाज 80 प्रतिशत से अधिक है लेकिन उसको रहने के लिए पूरे क्षेत्र का 8 प्रतिशत स्थान और धर्मान्तरित कुकी और नागा को शेष मणिपुर? आखिर यह कानून कौन और क्यों लाया गया था। इसमें भी खास बात यह कि कुकी और नागा उस 8 फीसद स्थान पर रह सकते हैं जमीन खरीद सकते हैं लेकिन यह अधिकार मेतैई को नहीं है। जब केन्द्र और राज्य सरकार ने इसको ठीक करने का प्रयास शुरू किया तो हिंसा हो गई। हिंसा वहां पर परागत है। महिलाओं के साथ बेआबरू जैसी शर्मनाक घटना वहां सामान्य घटनाएं बनी हुई है। अफीम का कारोबार करने का कुकी को अधिकार किसने दिया? उसमें सुधार किया जा रहा है तब शोर मच रहा है। पूरा विपक्ष देश को यह बताने का प्रयास कर रहा है कि सरकार मणिपुर को संभाल नहीं पा रही है लेकिन संभालने के समय की प्रतिक्रिया ही तो है यह, जिसको देश के सामने अपने तरीके से परोसा जा रहा है। मणिपुर पहली बार नहीं जल रहा लेकिन पहली बार सुधार के लिए जल रहा है। आपरेशन के समय बहने वाले रक्त की चिंता कभी कोई करता है? नहीं।
मेवात भी देश के सामाजिक असन्तुलन का सबसे भयावह घटनाक्रम है। इसे केवल बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद की यात्रा से जोड़कर देखना इतिहास की बड़ी भूल होगी। जिस प्रकार की भूल कश्मीर और मणिपुर में हो रही है। मेवात देश को वह आइना दिखाता है कि जहां एक विशेष मतावलंबी अधिक सं या में हो जाते हैं वहां कोई कानून नहीं चलता केवल उनका राज चलता है। यह सच जांच के बाद भी सामने आ गया है। खाप पंचायतों ने क्षेत्रीय मान्यताओं और पर परओं का पालन करके निर्णय लिया है। लेकिन ये मान्यताएं और पर पराएं पुरानी हैं। जिनको आज के संदर्भ में एकतरफा माना जायेगा। सरकार ने बुलडोजर का निर्णय लिया उसे न्यायालय ने खुद संज्ञान लेकर रोक दिया। देश में यह बहस भी चल निकली है कि न्यायालय को इतना शक्तिमान बना देने से देश का हित होगा या अब नुकसान हो रहा है? यदि हिंसा में मारे गये लोगों को लेकर भी इसी प्रकार का संज्ञान लिया जाता तो यह सवाल नहीं खड़ा होता। इसलिए समय की मांग यह है कि सामाजिक असन्तुलन को राजनीति का बिन्दु बनाने की बजाए उसके समाधान की ओर जाना चाहिए। संवाद इंडिया