आस्था, संस्कृति और विश्वास का महा समागम प्रयागराज में… करोड़ों की डुबकी में एक ही विश्वास

इस बार के महाकुभ की विशेषता यह भी है कि लोग पूछ रहे हैं कि प्रयागराज गये? कब जाने का प्रोग्राम है? यह फिर से जागना सनातन के लिए शुभ संकेत तो है ही विश्व कल्याण की दिशा में बढ़ता एक कदम भी इसे माना जा सकता है। विश्व का कल्याण शान्ति, भाईचारे और आपसी सहयोग में है।

सुरेश शर्मा, भोपाल।

इस बार के महाकुभ की विशेषता यह भी है कि लोग पूछ रहे हैं कि प्रयागराज गये? कब जाने का प्रोग्राम है? यह फिर से जागना सनातन के लिए शुभ संकेत तो है ही विश्व कल्याण की दिशा में बढ़ता एक कदम भी इसे माना जा सकता है। विश्व का कल्याण शान्ति, भाईचारे और आपसी सहयोग में है। इसकी सीख केवल सनातन ही देता है। एक दौर था जब सनातन को समझने और समझाने में रूचि थी। लेकिन अब तो वोट की राजनीति ने इसे बहुत पीछे धकेल दिया। एक प्रयास फिर से शुरू हुआ और अब आस्था के इस महासंगम में जाने वालों की संख्या इतना तेजी से इजाफा हुआ है कि स्थल छोटा पड़ गया। इसके बाद भी न विश्वास हिला है? न संगम में व्यवस्थाओं की किसी को चिंता है? बस केवल गगां, जमुना और सरस्वती नदियों का वह संगम जिसे आस्था की त्रिवेणी कहा जाता है दिखाई दे रहा है। समूचा भारत इतनी सी जगह पर समाता हुआ दिखाई दे रहा है। एक माह के इस आयोजन में डुबकी लगाने वालों की संख्या किसी भी ताकतवर देश की कुल आबादी से अधिक हाेने वाली है। इससे भारत की प्रबंधन क्षमता और विश्वास की डोर दिखाई देने वाली है। याद होगा जब कोरोना ने विश्व को अपनी चपेट में ले लिया था। उस समय टीकाकरण करने की समस्या सबसे अधिक भारत के सामने ही थी। आबादी का अधिक होना प्रमुख समस्या थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे आपदा में अवसर कह कर साधने का प्रयास किया। भारत की पूर्णतया वैक्सीन लगाई गई। मतलब प्रबंधन भारत की शक्ति है। आज भी वही दिखाई दे रहा है। भारत की यही संस्कृति है जिसको पीछे करके लोग देश को आगे ले जाना चाहते थे लेकिन ले नहीं जा पाये। देश चला तो लेकिन आगे नहीं निकल पाया।

वह चित्र बार-बार दिमाग में जगह बना रहा हे। जब अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ विधि का आयोजन था। डोनाल्ड ट्रंप शपथ ले रहे थे। भारत के प्रतिनिधि के रूप में विदेश मत्री एस जयशंकर पहली पात में विराजे थे। यह स्थान बनाने का प्रयास इससे पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी किया होगा। सबकी इच्छा होती है कि वह ऐसा कुछ कर जायें जिससे उनका नाम अमर हो जाये। लेकिन यह भाग्य में नरेन्द्र मोदी के लिखा था। ट्रंप ने इसी के साथ एक और नया इतिहास रख है। अमेरिकी प्रशासन ने तय किया कि परम्परागत देशों के साथ नये विदेश मंत्री की पहली बैठक कराने के स्थान पर भारत के साथ कराई जाये। यह पहली बैठक अमेरिका और भारत के बीच हुई। इसक अर्थ क्या है? इसे कूटनीतिक मामले में भारत की सफलता माना जायेगा यह एक बात है लेकिन भारत और उसकी नीतियों की छाप इसे माना जायेगा। आखिर भारत की नीतियां किस आधार पर गढ़ी जा रही हैं। नरेन्द्र मोदी ने भारत को उस मूल रास्ते पर चलाया जिसमें व्यापार भी है। संस्कृति भी है और कूटनीति भी है। आखिरकार भारत की बातों को समझा और माना जाने लगा है। यह कूटनीतिक सफलता और भारतीय संस्कृति का जागना है। इसको लेकर कभी प्रयास नहीं हुए। महाकुंभ का आयोजन तो हर चौदह वर्षों में एक बार होता है। यदि यूं देखा जाये तो यह अन्य स्थानों को मिलाकर देखा जाये तो कई बार कुंभ आते हैं। यह आयोजन इस आधार पर होता है कि अमृत मंथन के समय मिले अमृत कुंभ से अमृत की कुछ बूंदे जहां-जहां गिरी वहां पर कुंभ आयोजित होता है। चार जगहों पर हर बारह साल में कुंभ का आयोजन होता है। हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज में हर बारह साल में कुंभ आयोजित होते हैं। हरिद्वार और प्रयागराज में अर्धकुंभ का आयोजन भी होता है। इस प्रकार कुछ वर्षों के अन्तर से भारत की इन चारों जगहों पर कुंभ का आयोजन होता है।
प्रयागराज का कुंभ इसलिए महाकुंभ कहा जाता है क्योंकि यहां तीन नदियों का संगम है। गंगा, जमुना और विलुप्त हो चुकी सरस्वती एक स्थान पर दिखाई देती है। विशेष बात यह है कि विलुप्त हो चुकी सरस्वती की बार-बार प्रयागराज में झलक अलग से दिखाई देती है। इसलिए इस कुंभ का विशेष महत्व हो जाता है। इन दिनों यह महाकुंभ कुछ विशेष हो गया है। पिछले दिनों इलाहाबाद को प्रयागराज किया गया और यह पूर्ण कुंभ प्रयागराज में पहली बार पड़ रहा हे। सरकार की आस्था और महाकुंभ की आस्था समान भाव लिए हैं। एक साधु यूपी का मुख्यमंत्री होने का भी विशेष प्रभाव और बढ़ा रहा है। आज तक के इतिहास में पहली बार हुआ है कि कोई सरकार अपने पूरे मंत्रीमंडल के साथ कुंभ स्नान के लिए ड़बकी लगाये और मेला क्षेत्र में ही बैबिनेट की बैठक का आयोजन करे। योगी सरकार ने एेसा करके संदेश दे दिया कि वे सनातन परचम फैहराने की किसी भी योजना को हाथ से जाने नहीं देंगे? इसलिए इस बार का महाकुंभ खास हो जाता है।

इस बात पर सबसे अधिक चर्चा होती है कि आखिर इस आयोजन में शामिल होने का बुलावा कौन देता है? सनातन समाज का सबसे पवित्र दस्तावेज होता है पंचांग? इसके जानकार हर वर्ष के लिए पंचांग तैयार करते हैं। इसमें गणना होती है और उसी गणना के आधार पर मर्हुरत निकाले जाते हैं। इसमें सभी ग्रहों की चाल और स्थिति की आंकलन किया जाता है जिससे ही व्रत, त्योंहार और धार्मिक आयोजनों की जानकारी होती है। गांव-गांव में पंडित इस कार्य को करते आये हैं। इन्हीं से जानकारी मिलती है और अपनी प्रेरणा और आस्था से कदम अपने आप डइ पड़ते हैं। न सरकार के साधन की चिंता रहती है न व्यवस्थाओं की। फिल्मों के उस डायलाग से पता चलता है कि कुंभ के बिछड़े भाई अब जाकर मिले हैं? का मतलब यही होता है कि प्राचीन काल में कुंभ का आयोजन खुद की व्यवस्थाओं के आधार पर होता था और लोग आते थे। इस प्रसंग पर एकता, सांस्कृतिक भाईचारा और एक दूसरे के प्रति विश्वास का आधार ही इस प्रकार के आयोजनों के लिए खास होता था। यही वह भारत की ताकत है जो उसकी संस्कृति को सनातन बनाती है।

इस प्रकार के आयोजनों में आपसी समन्वय का जन्म होता है। एक दूसरे की सहायता करना और साथ देकर कार्य को पूर्ण करवाने की मानसिकता पनपती है। इस प्रकार के त्योंहारों को परिवार के साथ जोड़ने से लगाकर रिश्तेदारों को शामिल करने की परम्परा ने सबको साथथ जोड़ने की मानसिकता को जन्म दिया। एक से एक जुडते गये। चारधाम में सबसे पहले केदारनाथ के दर्शन की व्यवस्था की गई थी। यह दुर्गम स्थल था। यहां आना जाना जोखिम से भरा होता था। जोन वाले के बारे में यह अवधारणा बन जाती थी कि केदारनाथ जा रहा है मतलब वापस आने की संभावना कम ही है। इसके बाद अन्य तीन धाम द्वारका, पूरी और रामेश्वर करने का विधान बनाया गया। इसका क्रम भी यही निर्धारित किया गया था। इसमें सुविधाओं के अनुसार किया जाने लग गया। यह समूचे भारत को जोड़ने की शंकराचार्य महाराज की योजना का हिस्सा था। इसी प्रकार से मठ बनाये गये थे। जो सनातन संस्कृति के प्रचार का सबसे बड़ा आधार होते थे। समय के आधार पर सक्षम संतों की कमी ने इसके महत्व को कम किया। इससे संस्कृति को पीछे किया गया और राजनीति ने अपनी ताकत का विस्तार कर लिया। जब तक राजनीति ने धर्म को प्रधानता दी तब तक गुलामी काल भी सनातन की शक्ति काे प्रभावित नहीं कर पाया और आजादी के बाद राजनीति ने अपना वोट आधार इसमें से निकालने का प्रयास किया तब संस्कृति पीछे कर दी गई।
इस समय एक बार फिर से विश्व को समझ में आ रहा है कि भारत की संस्कृति ही उसकी ताकत है। उसे किसी के सहारे की नहीं साथ की भर जरूरत है। वह टकराने में नहीं समन्वय बनाने में विश्वास रखती है। वह हिंसा नहीं अपितु कल्याण की भावना को जगाती है। वह हर बुरी व्यवस्था को पाप कहने का साहस करती है जिससे हिंसा को स्थान नहीं मिल पाता है। वसुधा को कुटंब के रूप में मानने से धार्मिक सीमाओं में बांधने की परम्परा से वह आगे निकल जाती है। मानव के साथ जीव जन्तुओं के कल्याण तक की भावना को जागृत करती है। इसलिए समूचा विश्व उसे आज की समस्याओं का हल मानने लग गया है। ऐसे में महाकुंभ का आयोजन जिसमें इतने लोग डुबकी लगाने वाले हैं जितनी अमेरिका की कुल जनसंख्या है। इसलिए भारत के प्रति और विश्वास बढ़ता है। समूचा भारत इस पर गर्व करे। लेकिन राजनीति कारणों से इसका महत्व कम करने का प्रयास हो रहा है। यही बात है जिसको सुधारने की जरूरत है। संत इसके प्रयास में लगे हैं।

संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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