‘सुप्रीम’ से टकराने से कोई नहीं बनता ‘सुप्रीम’
कर्नाटक का असर होता दिख रहा है। आने वाला साल लोकसभा के चुनाव का साल भी है। इसलिए अब नरेन्द्र मोदी सरकार भी चुनाव के मोढ में आती दिखाई दे रही है। आज सबसे महत्वपूर्ण खबर जिसकी चर्चा रही वह है वह है केन्द्रीय विधि व न्याय मंत्रालय में व्यापक बदलाव। मंत्री और राज्य मंत्री दोनों की छुट्टी हो गई।
सुरेश शर्मा, भोपाल। कर्नाटक का असर होता दिख रहा है। आने वाला साल लोकसभा के चुनाव का साल भी है। इसलिए अब नरेन्द्र मोदी सरकार भी चुनाव के मोढ में आती दिखाई दे रही है। आज सबसे महत्वपूर्ण खबर जिसकी चर्चा रही वह है वह है केन्द्रीय विधि व न्याय मंत्रालय में व्यापक बदलाव। मंत्री और राज्य मंत्री दोनों की छुट्टी हो गई। मजे की बात यह है कि अर्जुन राम मेघवाल को इसकी जिम्मेदारी दी गई है। वे राज्यमंत्री हैं और विधि मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार देखेंगे। उनके पास उनके पुराने विभाग पहले की भांति रहेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि इस विभाग का कोई दूसरा मंत्री तलाशा जायेगा तब तक जिम्मेदारी मेघवाल को दी गई है। एक संदेश यह भी निकल रहा है कि न्यायपालिका के दबाव में सरकार इस कदर भयभीत हो गई कि उसने मंत्री तलाशने के लिए भी वक्त नहीं लिया और प्रभार देकर खुश कर दिया। दोनों मंत्री हटा दिये और प्रमुख विभाग राज्यमंत्री के हवाले कर दिया। इससे पहले विधि विभाग को इतना कमतर नहीं किया गया था। कहा यह जा रहा है कि किरण रिजिजू को न्यायपालिका के साथ टकराव की सजा दी गई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय उन्हें दिया गया है। यहां सवाल यह उठता है कि मोदी सरकार के किसी भी मंत्री में इतना दम कब से आ गया कि वह न्यायपालिका से टकराने का साहस पैदा कर पाये? सजा देनी थी सो दे दी गई।
कॉलोजियम को लेकर केन्द्र सरकार का अपना मत है। न्यायपालिका इस मामले में किसी और को हाथ डालने नहीं दे रही थी। रिजिजू साहब ने इस मामले में कई बार देश के सबसे बड़े न्यायाधीश महोदय के सामने दमदारी से बोलने का साहस दिखा दिया। किसी ने सरकार के अंदर या बाहर इसकी आलोचना नहीं की। अब बली रिजिजू की चढ़ गई। साथ में बघेल साहब भी गेंहू के घुण की भांति पिस गये। न्यायपालिका के साथ टकराहट की स्थिति एक मंत्री कर ले ऐसा संभाव नहीं है। जिस सरकार में रेल मंत्री रेल को झंडी नहीं दिखा सकता उस सरकार का विधि मंत्री सर्वोच्च न्यायालय से टकरा जायेगा संभव नहीं है। इसलिए रिजिजू को पहले दिन से ही संभलकर बोलना चाहिए था। लेकिन नहीं संभले तो बली का बकरा बन गये। इस बली के बाद यदि सर्वोच्च न्यायालय खुश होकर सरकार को वरदान दे देता है तब ही बली का मतलब होगा। समलैंगिक मामले की बात हो या सरकार के नीतिगत मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय का रूख हो सरकार को एक दिन दबाव में तो आना ही था सो आ गई?
एक सीख इस घटनाक्रम से उन सभी व्यक्तियों को मिल गई है। आपके पास पंख हैं तो क्या हुआ उडऩे के लिए उतने ही फैलायें जितनी आपकी खुद की क्षमता हो किसी और की क्षमता के आधार पर पंख फैलाने से कब जमीन नसीब हो जायेगी पता ही नहीं चलेगा। न जाने विधि मंत्री के लिए इस प्रकार की राह इस सरकार ने क्यों तय कर रखी है। अच्छा खासा काम करते हुए रविशंकर साहब चले गये और अब किरण रिजिजू। एक के बाद चमकदार नेता शिकार हो रहे हैं। लेकिन एक बात मानना होगी सुप्रीम तो सुप्रीम ही होता है। सुप्रीम से लडक़र कोई सुप्रीम नहीं हो सकता है। अपनी सीमा रेखा का ध्यान नहीं रखने वाले कभी भी फाउल हो सकते हैं रिजिजू साहब की भांति।