मुद्दों के विरोध से आगे निकलकर केवल विरोध ही विरोध… भारतीय राजनीति में नकारात्मक बदलाव

राजनीति पर जब भी चर्चा होती है तब वोट बैंक की राजनीति को अधिक केन्द्रीत किया जाता है। कांग्रेस का राज, गठबंधन की राजनीति और भाजपा का इस प्रकार का उदय सभी वोट बैंक की स्थितियों तक ही राजनीितक समीक्षा को रखता है। यह एक गंभीर विश्लेषण का विषय है भी। इस पर जब भी ध्यान जायेगा तो भाजपा के बढ़े वोट प्रतिशत और बहुसंख्यक समाज को वोट की महत्व समझने तक बात आ जाती है।

सुरेश शर्मा

राजनीति पर जब भी चर्चा होती है तब वोट बैंक की राजनीति को अधिक केन्द्रीत किया जाता है। कांग्रेस का राज, गठबंधन की राजनीति और भाजपा का इस प्रकार का उदय सभी वोट बैंक की स्थितियों तक ही राजनीितक समीक्षा को रखता है। यह एक गंभीर विश्लेषण का विषय है भी। इस पर जब भी ध्यान जायेगा तो भाजपा के बढ़े वोट प्रतिशत और बहुसंख्यक समाज को वोट की महत्व समझने तक बात आ जाती है। इसकी समालोचना भी होने लगती है। लेकिन दूसरी तरफ अल्पसंख्यक वोट बैंक को सहज मान लिया जाता है। वह तो आजादी के बाद से अपने वोट देने के तौरतरीकों के लिए जाना जाता है इसलिए वह सबको पता है तब इसकी चर्चा क्या करें? अब जब यह वोट समूह केवल भाजपा को हराने के लिए वोट कर रहा है तब भी वह चर्चा में आ रहा और बहुसंख्यक समाज वोट बैंक क्यों बन रहा है चर्चा इसी पर हो रही है। समय इस चर्चा को बदलेगा ऐसा मानकर इस विषय को अभी पीछे करते हैं। आज का मूल विषय जिस पर चर्चा होना है वह है राजनीति में नकारत्मक बदलाव का आना। राजनीति का उत्तराधिकार जिन युवा कंधों पर आ रहा है आखिरकार उनकी सोच देश के प्रति, समाज के भविष्य की संरचना कैसी हो, आज व्यक्ति का जीवनस्तर किस स्तर तक पहुंचे तो कैसे, अभाव को किस प्रकार से दूर किया जा सकता है। सभी को कानून व सुविधा बराबरी के आधार पर तिले इस स्थिति तक कैसे पहुंचा जा सकता है? इस प्रकार के विषयों पर आने वाला नेतृत्व किस प्रकार की अवधारणा रखता है इन बातों पर न तो चर्चा होती है और न ही युवा नेतृत्व खुद को इस बारे में प्रस्तुत ही करता है।

भारत किस प्रकार का हो इसको समझने के लिए आजादी के समय पर जाना होगा। पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे। देश गुलामी से बाहर निकला तब करने के िलए बहुत कुछ था। लेकिन करने के लिए जिस विजन और कि्रयान्वयन की क्षमता की जरूरत होती है वह पंडित जी में थी। इसलिए उन्होंने एक ऐसे भारत का निर्माण किया जिसकी आज भी कोई बराबरी नहीं कर सकता है। जिन प्रधानमंत्रियों को सरकार चलाने का अधिक समय मिला उनमें श्रीमती गांधी ने कृषि में आत्म निर्भर होने की दिशा में, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके आिर्थक दिशा में काम किया। अटल जी ने ग्रामीण क्षेत्रों में अधोसंरचना देकर और कृषि बजट से जोड़कर नयी दिशा देने का काम किया। मनमोहन सिंह का कार्यकाल भी बड़ा था लेकिन वे अपनी क्षमता का उपयोग सरकार पर नियंत्रण सोनिया गांधी का होने के कारण वह नहीं कर पाये जो उनसे उम्मीद थीं। अब प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी हैं और दो बार के उनके कार्यकाल में देश की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और कूटनीति में विश्वव्यापी बढ़ोतरी हुई है। जब भी विजन वाले प्रधानमंत्रियों का जिक्र होगा नरेन्द्र मोदी का क्रम स्थापित करने में हमेशा दिक्कत आयेगी? इसलिए नीतियों, सरकार संचालन के तौर तरीकों और भारत की वैश्विक छवि पर कभी कोई बहस नहीं होती? वोट बैंक की बातें ही की जाती है और उसका कारण यह है कि इसके अलावा मोदी का गौरव गान ही होगा?
अब भारत की राजनीतिक इतिहास पर गौर करते हैं। नेहरूकाल में सत्तापक्ष और विपक्ष देश के बारे में ही सोचता था। संविधान सभा की बहस हो या संसद की बहस सबमें एक ही भाव दिखाई देता था कि किस प्रकार से भारत के आम नागरिक का जीवनस्तर सुधारा जाये? किस प्रकार की शिक्षा हो? किस प्रकार से लोगों को स्वस्य रखा जा सकता है। इसके लिए अधोसंरचना की बात होती थी। यहीं से आइआइटी और आइआईएम का उदय हुआ? यहीं से एम्स की कल्पना लागृत हुई। यहीं से एक समस्या ने भी जन्म लिया। अब शिक्षित लोगों की संख्या अधिक होने लगी और रोजगार का संकट पैदा होने लगा। तब भेल से लगाकार औद्योगिकीकरण का सपना शुरू हुआ। टाटा बिरला के बाद देश को अंबानी और उसके बाद अडाणी मिले। बजाज आये, इस प्रकार की प्रतिभाएं आईं। देश को खुशहाली की दिशा मिलती गई। शिक्षित युवकों को आधार मिला। लेकिन यहां से राजनीति भूल हुई कि हमने नौकर बनाने की शिक्षा देकर एक बड़ी फौज खड़ी कीर ली और उसको नागरिक बनाने की बजाए वोट बनाना शुरू कर दिया। लेकिन आज के नेताओं की सोच क्या है?

देश की संसद में प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की चर्चा की जाये? सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है जो सरकार संचालन कर रही है। उसका सपना है कि देश विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बने। इसका मतलब ही यही होता है कि हर हाथ को काम मिले और व्यक्तियों की आमदनी में इजाफा हो। कृषि सुधार के कानून आये। जिसे कुछ किसानों ने नहीं माना तो उन्हें विवाद के बाद वापस लेना। समाज में से विवाद के मुद्दों को एक के एक समाप्त किया जाने लगा। मेक इन इंडिया की योजना का आज लाभ दिखाई देने लगा है। सड़कों की अत्याधिक स्थिति ने करोबार को सहारा दिया है। नौकरों की जगह नौकरी देने की मानसिकता तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ा गया है। देश की विलुप्त संस्कृति को फिर से पहचान दी गई है। देश में समानता का भाव आये इस पर काम हो रहा है। यह कहा जा सकता है कि संघ व भाजपा को यह पता है कि देश के लिए क्या करना हे। संभवतया पंडित नेहरू के बाद देश में ऐसा विजन पहली बार आया है?
दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी है कांग्रेस और उसके नेता हैं राहुल गांधी। वे किसान के लिए एमएसपी देने की बात करते हैं क्योंकि यह विवाद के बाद पनपी मांग है। वे जातिगत जनगणना की बात करते हैं और उसके बाद देश के आर्थिक संसाधनों को जाति के अनुपात से बांटने की बात कहने के पीछे किस विकास प्रकार की विकास थ्योरी है सामने नहीं आ पाई है। हम समझ सकते हैं कि अखिलेश यादव की देश या यूपी के विकास के लिए क्या सोच है? मायावती का विजन किसे पता है? तेजस्वी यादव का विजन बिहार और देश के लिए क्या है? उद्धव ठाकरे का विजन किस बदलाव से गुजर रहा है। दक्षिण के उत्तराधिकारियों की सोच का मंथन करने पर क्या निकलता है? तब आने वाले भविष्य का भारत किस प्रकार का बनेगा इसके बारे में आम राय की बजाए नकारात्मक राजनीति ही दिखाई दे रही है। ऐसा इससे पहले नहीं था। जिनसे उत्तराधिकार प्राप्त किया है उनमें अपना वोट बैंक साधने के साथ ही देश व देश की सरकार के लिए रचनात्मक सहयोग था। अब तो इसका सर्वथा अभाव दिखाई दे रहा है। आखिर भारत में इस नकारात्मक राजनीति का कारण क्या है?
भारत की राजनीति और सत्ता प्राप्त करने नीति आजादी के बाद से मुस्लिम वोटों पर आधारित रही थी। हिन्दू समाज को जातियों के आधार पर विभाजित करके सत्ता का सुख भोगा जा रहा था। कांग्रेस बड़ा दल था तो उसने अपनी सुविधा के लिए समुदायों के नेता तैया किये जो जातियों के वोट का लाभ कांग्रेस को दिलाते थे। बाबू जगजीवन राम दलितों में, शरद पवार मराठाओं में, लालू-मुलायम यादवों में, कुछ नेता ब्राह्मणों के नेता हो गया, कुछ ने आदिवासियों का जिम्मा ले लिया। इसके बाद नेता क्ष्त्रपों ने समझ लिया कि अपने दल से हम अधिक ताकतवर हो जायेंगे इसके बाद क्षेत्रीय दल शक्तिशाली हुए और बहुमत की सरकार का दौर समाप्त हो गया। लेकिन यहां से देश के लिए विजन कमजोर पड़ने लगा। जनसंघ और अब भाजपा ने समग्र हिन्दू समाज की रचना से काम करना शुरू किया। वह वर्षों के प्रयास के बाद भी वोट बैंक नहीं बन पाया और उसको पुख्ता होने के लिए 2014 तक का समय लग गया। अब राजनीतिक नकारात्मकता का कारण यह है कि वर्षों से जिन बहुसंख्यकाें को जातियों के आधार पर बांटकर सत्ता सुख भोगा जा रहा था उसको यह समझ में आ गया कि उन्हें देश के लिए एक होना है। इसलिए भाजपा और सरकार के नाम पर मोदी के खिलाफ सोशल मीडिया से लगाकर बयानों में विष दिखाई दे रहा है। इन दिनों का जो शोर दिख रहा है वह तीसरी बार बहुमत से रोक देने के कारण पनपा है। यदि बहुसंख्यक समाज जाग जाता है तब देश से नकारात्मक राजनीति को बढ़ने से रोका जा सकता है। अन्यथा जिस प्रकार का भारत निर्माण का सपना नेहरू, अटल और उसके बाद मोदी ने देखा है वैसी सोच की तरफ कोई युवा उत्तराधिकारी जा ही नहीं पायेगा? वे तंज की राजनीति करते रहेंगे। जो देश के लिए सबसे घातक होगी।

राजनीति पर जब भी चर्चा होती है तब वोट बैंक की राजनीति को अधिक केन्द्रीत किया जाता है। कांग्रेस का राज, गठबंधन की राजनीति और भाजपा का इस प्रकार का उदय सभी वोट बैंक की स्थितियों तक ही राजनीितक समीक्षा को रखता है। यह एक गंभीर विश्लेषण का विषय है भी। इस पर जब भी ध्यान जायेगा तो भाजपा के बढ़े वोट प्रतिशत और बहुसंख्यक समाज को वोट की महत्व समझने तक बात आ जाती है। इसकी समालोचना भी होने लगती है। लेकिन दूसरी तरफ अल्पसंख्यक वोट बैंक को सहज मान लिया जाता है। वह तो आजादी के बाद से अपने वोट देने के तौरतरीकों के लिए जाना जाता है इसलिए वह सबको पता है तब इसकी चर्चा क्या करें? अब जब यह वोट समूह केवल भाजपा को हराने के लिए वोट कर रहा है तब भी वह चर्चा में आ रहा और बहुसंख्यक समाज वोट बैंक क्यों बन रहा है चर्चा इसी पर हो रही है। समय इस चर्चा को बदलेगा ऐसा मानकर इस विषय को अभी पीछे करते हैं। आज का मूल विषय जिस पर चर्चा होना है वह है राजनीति में नकारत्मक बदलाव का आना। राजनीति का उत्तराधिकार जिन युवा कंधों पर आ रहा है आखिरकार उनकी सोच देश के प्रति, समाज के भविष्य की संरचना कैसी हो, आज व्यक्ति का जीवनस्तर किस स्तर तक पहुंचे तो कैसे, अभाव को किस प्रकार से दूर किया जा सकता है। सभी को कानून व सुविधा बराबरी के आधार पर तिले इस स्थिति तक कैसे पहुंचा जा सकता है? इस प्रकार के विषयों पर आने वाला नेतृत्व किस प्रकार की अवधारणा रखता है इन बातों पर न तो चर्चा होती है और न ही युवा नेतृत्व खुद को इस बारे में प्रस्तुत ही करता है।

भारत किस प्रकार का हो इसको समझने के लिए आजादी के समय पर जाना होगा। पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे। देश गुलामी से बाहर निकला तब करने के लिए बहुत कुछ था। लेकिन करने के लिए जिस विजन और कि्रयान्वयन की क्षमता की जरूरत होती है वह पंडित जी में थी। इसलिए उन्होंने एक ऐसे भारत का निर्माण किया जिसकी आज भी कोई बराबरी नहीं कर सकता है। जिन प्रधानमंत्रियों को सरकार चलाने का अधिक समय मिला उनमें श्रीमती गांधी ने कृषि में आत्म निर्भर होने की दिशा में, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके आिर्थक दिशा में काम किया। अटल जी ने ग्रामीण क्षेत्रों में अधोसंरचना देकर और कृषि बजट से जोड़कर नयी दिशा देने का काम किया। मनमोहन सिंह का कार्यकाल भी बड़ा था लेकिन वे अपनी क्षमता का उपयोग सरकार पर नियंत्रण सोनिया गांधी का होने के कारण वह नहीं कर पाये जो उनसे उम्मीद थीं। अब प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी हैं और दो बार के उनके कार्यकाल में देश की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और कूटनीति में विश्वव्यापी बढ़ोतरी हुई है। जब भी विजन वाले प्रधानमंत्रियों का जिक्र होगा नरेन्द्र मोदी का क्रम स्थापित करने में हमेशा दिक्कत आयेगी? इसलिए नीतियों, सरकार संचालन के तौर तरीकों और भारत की वैश्विक छवि पर कभी कोई बहस नहीं होती? वोट बैंक की बातें ही की जाती है और उसका कारण यह है कि इसके अलावा मोदी का गौरव गान ही होगा?
अब भारत की राजनीतिक इतिहास पर गौर करते हैं। नेहरूकाल में सत्तापक्ष और विपक्ष देश के बारे में ही सोचता था। संविधान सभा की बहस हो या संसद की बहस सबमें एक ही भाव दिखाई देता था कि किस प्रकार से भारत के आम नागरिक का जीवनस्तर सुधारा जाये? किस प्रकार की शिक्षा हो? किस प्रकार से लोगों को स्वस्य रखा जा सकता है। इसके लिए अधोसंरचना की बात होती थी। यहीं से आइआइटी और आइआईएम का उदय हुआ? यहीं से एम्स की कल्पना लागृत हुई। यहीं से एक समस्या ने भी जन्म लिया। अब शिक्षित लोगों की संख्या अधिक होने लगी और रोजगार का संकट पैदा होने लगा। तब भेल से लगाकार औद्योगिकीकरण का सपना शुरू हुआ। टाटा बिरला के बाद देश को अंबानी और उसके बाद अडाणी मिले। बजाज आये, इस प्रकार की प्रतिभाएं आईं। देश को खुशहाली की दिशा मिलती गई। शिक्षित युवकों को आधार मिला। लेकिन यहां से राजनीति भूल हुई कि हमने नौकर बनाने की शिक्षा देकर एक बड़ी फौज खड़ी कीर ली और उसको नागरिक बनाने की बजाए वोट बनाना शुरू कर दिया। लेकिन आज के नेताओं की सोच क्या है?
देश की संसद में प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की चर्चा की जाये? सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है जो सरकार संचालन कर रही है। उसका सपना है कि देश विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बने। इसका मतलब ही यही होता है कि हर हाथ को काम मिले और व्यक्तियों की आमदनी में इजाफा हो। कृषि सुधार के कानून आये। जिसे कुछ किसानों ने नहीं माना तो उन्हें विवाद के बाद वापस लेना। समाज में से विवाद के मुद्दों को एक के एक समाप्त किया जाने लगा। मेक इन इंडिया की योजना का आज लाभ दिखाई देने लगा है। सड़कों की अत्याधिक स्थिति ने करोबार को सहारा दिया है। नौकरों की जगह नौकरी देने की मानसिकता तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ा गया है। देश की विलुप्त संस्कृति को फिर से पहचान दी गई है। देश में समानता का भाव आये इस पर काम हो रहा है। यह कहा जा सकता है कि संघ व भाजपा को यह पता है कि देश के लिए क्या करना हे। संभवतया पंडित नेहरू के बाद देश में ऐसा विजन पहली बार आया है?

दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी है कांग्रेस और उसके नेता हैं राहुल गांधी। वे किसान के लिए एमएसपी देने की बात करते हैं क्योंकि यह विवाद के बाद पनपी मांग है। वे जातिगत जनगणना की बात करते हैं और उसके बाद देश के आर्थिक संसाधनों को जाति के अनुपात से बांटने की बात कहने के पीछे किस विकास प्रकार की विकास थ्योरी है सामने नहीं आ पाई है। हम समझ सकते हैं कि अखिलेश यादव की देश या यूपी के विकास के लिए क्या सोच है? मायावती का विजन किसे पता है? तेजस्वी यादव का विजन बिहार और देश के लिए क्या है? उद्धव ठाकरे का विजन किस बदलाव से गुजर रहा है। दक्षिण के उत्तराधिकारियों की सोच का मंथन करने पर क्या निकलता है? तब आने वाले भविष्य का भारत किस प्रकार का बनेगा इसके बारे में आम राय की बजाए नकारात्मक राजनीति ही दिखाई दे रही है। ऐसा इससे पहले नहीं था। जिनसे उत्तराधिकार प्राप्त किया है उनमें अपना वोट बैंक साधने के साथ ही देश व देश की सरकार के लिए रचनात्मक सहयोग था। अब तो इसका सर्वथा अभाव दिखाई दे रहा है। आखिर भारत में इस नकारात्मक राजनीति का कारण क्या है?
भारत की राजनीति और सत्ता प्राप्त करने नीति आजादी के बाद से मुस्लिम वोटों पर आधारित रही थी। हिन्दू समाज को जातियों के आधार पर विभाजित करके सत्ता का सुख भोगा जा रहा था। कांग्रेस बड़ा दल था तो उसने अपनी सुविधा के लिए समुदायों के नेता तैया किये जो जातियों के वोट का लाभ कांग्रेस को दिलाते थे। बाबू जगजीवन राम दलितों में, शरद पवार मराठाओं में, लालू-मुलायम यादवों में, कुछ नेता ब्राह्मणों के नेता हो गया, कुछ ने आदिवासियों का जिम्मा ले लिया। इसके बाद नेता क्ष्ात्रपों ने समझ लिया कि अपने दल से हम अधिक ताकतवर हो जायेंगे इसके बाद क्षेत्रीय दल शक्तिशाली हुए और बहुमत की सरकार का दौर समाप्त हो गया। लेकिन यहां से देश के लिए विजन कमजोर पड़ने लगा। जनसंघ और अब भाजपा ने समग्र हिन्दू समाज की रचना से काम करना शुरू किया। वह वर्षों के प्रयास के बाद भी वोट बैंक नहीं बन पाया और उसको पुख्ता होने के लिए 2014 तक का समय लग गया। अब राजनीतिक नकारात्मकता का कारण यह है कि वर्षों से जिन बहुसंख्यकाें को जातियों के आधार पर बांटकर सत्ता सुख भोगा जा रहा था उसको यह समझ में आ गया कि उन्हें देश के लिए एक होना है। इसलिए भाजपा और सरकार के नाम पर मोदी के खिलाफ सोशल मीडिया से लगाकर बयानों में विष दिखाई दे रहा है। इन दिनों का जो शोर दिख रहा है वह तीसरी बार बहुमत से रोक देने के कारण पनपा है। यदि बहुसंख्यक समाज जाग जाता है तब देश से नकारात्मक राजनीति को बढ़ने से रोका जा सकता है। अन्यथा जिस प्रकार का भारत निर्माण का सपना नेहरू, अटल और उसके बाद मोदी ने देखा है वैसी सोच की तरफ कोई युवा उत्तराधिकारी जा ही नहीं पायेगा? वे तंज की राजनीति करते रहेंगे। जो देश के लिए सबसे घातक होगी।

संवाद इंडिया
(लेखक हिंदी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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