‘रील बाबा’ बनते जा रहे हैं परम पूज्य ‘शंकराचार्य’
सनातन धर्म की रक्षा और विस्तार के लिए आदि शंकराचार्य महाराज ने चार पीठों की स्थापना करके अपने खास गुणी शिष्यों को उनका उत्तराधिकारी बनाकर सनातन विस्तार और उसकी वास्तविक धारणा से समाज को जागृत करने का अलख जगाया था। इस विस्तार का आधार किसी की आलोचना न होकर शास्त्रार्थ हुआ करता था।

भोपाल। सनातन धर्म की रक्षा और विस्तार के लिए आदि शंकराचार्य महाराज ने चार पीठों की स्थापना करके अपने खास गुणी शिष्यों को उनका उत्तराधिकारी बनाकर सनातन विस्तार और उसकी वास्तविक धारणा से समाज को जागृत करने का अलख जगाया था। इस विस्तार का आधार किसी की आलोचना न होकर शास्त्रार्थ हुआ करता था। किसी विद्वान के तर्क यदि प्रभावकारी और शास्त्रोक्त नहीं हैं तब उसे शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया जाता था और उसमें जय-पराजय हुआ करती थी। हारने के बाद जीतने वाले के मत को स्वीकार किया जाता था। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। यही परम्परा शंकराचार्य के उत्तराधिकारियों की स्थापना पर भी बनी रही थी। इसके बाद शंकराचार्य यदि अयोग्य लगता था या रास्ता भटकता था तब उसे बदला भी जाता था। ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य का कानूनी विवाद इसी का प्रमाण है। यहां गुरू परम्परा की बजाए स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज को करपात्री महाराज ने शंकराचार्य नियुक्त कर दिया था और पहले से स्थापित शंकराचार्य के शिष्य वासुदेवानंद सरस्वती ने इसके विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा दर्ज करा रखा है। जब स्वामी स्वरूपानंद के देवलोगगमन के समय अविमुक्ताश्वरानंद का पट्टाभिषेक हुआ उस पर स्टे ले लिया गया था। पुरी पीठ ने भी इसे मान्यता नहीं दी थी।
इस विवादित तरीके से शंकराचार्य बने स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद महाराज राम मंदिर मामले में सबसे मुखर हैं। जिस पद पर वे विराजित हुए हैं उसका महत्व है। राम मंदिर आन्दोलन के तरीको का विरोध तो स्वरूपानंद जी भी करते थे लेकिन उनका अपना स्तर था। उनके विरोध में भी शंकराचार्य पद की गरिमा बनी रहती थी। आज वैसा नहीं हैं। शब्दों की बात छोडि़ए चेहरे के भाव भी नियंत्रण में नहीं हैं। जिनकी आस्था शंकराचार्य के पद में हैं वे भी इसकी आलोचना कर रहे हैं। गांव का व्यक्ति जातना है कि गर्भग्रह बन जाने के बाद उसमें विग्रह की स्थापना की जा सकती है तब शंकराचार्य महाराज मंदिर को दिव्यांग कर रहे हैं। यह शब्दों पर अनियंत्रण का प्रदर्शन है और धर्म के स्थान पर राजनीति करने का प्रमाण है। काशी के जिन विद्वानों ने प्राण-प्रतिष्ठा का मुहुर्त निकाला है वे आव्हान कर रहे हैं कि मुहुर्त में दोष निकालिए? मतलब, इस बारे में शास्त्रार्थ करिए? लेकिन शास्त्रार्थ का सामना करने की बजाए रील बनाकर मुकाबला किया जा रहा है। इससे पद की गरिमा को बड़ी गंभीर ठेस पहुंच रही है।
राम मंदिर का आन्दोलन हो या फिर धर्मान्तरण सहित अन्य विषय शंकराचार्य का मार्गदर्शन आपेक्षित रहता है लेकिन वह मिल नहीं पाता। काम करने वालों का विरोध ही दिखा। आजादी के बाद पहली बार सनातन का समर्थन सरकार स्तर पर मिला है इसके बाद भी मीनमेख निकालने का काम शंकराचार्य की ओर से किया जा रहा है। जो काम हो रहा है उसको सही शास्त्रसम्मत कराने में सहयोग करने की बजाए उसमें राजनीति की जा रही है। राजनीतिक पक्ष पर रील बनाकर डाली जा रही हैं। ऐसा लगता है शंकराचार्य न हो रीलबाबा हो गये हों। यह सनातन को बड़ा झटका है?