विकास, महंगाई की बात को पीछे छोड़ नेतागण पहुंचे जातियों की गिनती कराने
मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले ही लोकसभा के चुनावों का गणित तय होने लग गया है। राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के बाद ओबीसी शब्द से कांग्रेस इतना भयग्रस्त हो गई है कि उसके नेताओं ने जनसंख्या
भोपाल (सुरेश शर्मा)। मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले ही लोकसभा के चुनावों का गणित तय होने लग गया है। राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के बाद ओबीसी शब्द से कांग्रेस इतना भयग्रस्त हो गई है कि उसके नेताओं ने जनसंख्या की जातिगत आधार पर गणना की मांग करना शुरू कर दी। यह मांग पहले बिहार से होती आई है। बिहार जातिगत आधार पर राजनीति का सबसे बड़ा गढ़ है। जिस प्रकार भाजपा ने राम मंदिर के लिए यात्रा निकालकर कमंडल को राजनीतिक का आधार बनाया था उसका तोड़ वीपी सिंह ने मंडल के रूप में पेश किया था। ठीक इसी प्रकार से भाजपा ने सारे मोदी चोर हैं शब्द को ओबीसी की ओर मोड़कर सहानुभूति बटोरने का काम कर लिया। अब कांग्रेस इसको जातिगत गणना से काटकर संकट कम करने का प्रयास कर रही है।
यह बात उस समय से शुरू होती है जब भाजपा ने देश के प्रधानमंत्री को ओबीसी का बताकर राजनीति शुरू की थी। देश में ओबीसी की जातियों की जनसंख्या आधे से अधिक है। साथ में हिन्दूत्व का कार्ड पहले से ही भाजपा के पास है ही। ऐसे में मतदान का 51 प्रतिशत भाजपा अपने पक्ष में करने की योजना पर काम कर रही है। इसका परिणाम भी सामने आ रहा है। देश में दो बार अपने दम पर सरकार बनाने का कारनामा मोदी के कारण ही हुआ है। अनेक राज्यों में सरकार बनाना और सरकार को बचाये रखने का करिश्मा भी इसी राजनीतिक गुणा-भाग का परिणाम है। ऐसे में भाजपा की इस रणनीति का तोड़ विपक्ष के हाथ में नहीं है। राज्यों के विधानसभा चुनाव जब होने होते हैं उससे बहुत पहले भाजपा के नेता राज्यवार रणनीति बनाकर काम शुरू करते हैं और अगली बार के लिए सरकार की जमीन तैयार कर लेते हैं। त्रिपुरा जैसे राज्य में उस स्थिति में सरकार बना ली गई जब वाम दल और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। बंगाल में तो इन दोनों दलों के हाथ खाली हैं। अब एक उपचुनाव में कांग्रेस का खाता खुल पाया है।
भाजपा का यही फार्मूला उस समय और ताकत पकड़ गया जब राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का मामला कोर्ट में आया। इसमें भी मोदी जाति को ओबीसी का बताकर कांग्रेस के हाथ से वोट छीनने का प्रयास किया गया। न्यायालय का फैसला ऐसा आ गया कि भाजपा के हाथ में लाटरी लग गई। राहुल गांधी की सदस्यता चली गई और कांग्रेस सबकुछ भूल कर इसी काम में लग गई। जब आज ऊपरी कोर्ट से राहुल को राहत नहीं मिली तब कांग्रेस अपनी उसी रणनीति पर तेजी से बढ़ रही है जहां से जीत की राह नहीं बचाव की पगडंडी निकलती है। भाजपा का ओबीसी फार्मूला कांग्रेस की जातिगत गणना के सामने बड़ा दिख रहा है। समूचा विपक्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध चलती चाबुक से भयग्रस्त होकर एक छतरी के नीचे आने का प्रयास कर रहा है लेकिन कांग्रेस के पास डरा हुआ नेतृत्व और वह उसमें आत्म विश्वास पैदा करने का मंत्र फूंक रही है। ऐसे में एकता का गुब्बार उठता है और बिना किसी परिणाम के समाप्त हो जाता है। चुनाव में समय है इसलिए अभी इसको और कसौटी पर कसने दिया जा सकता है।
जिन तीन प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इस साल के अन्त में चुनाव होने वाले हैं उसकी रणनीति से पहले कांग्रेस केन्द्रीय लड़ाई में भिड़ी हुई है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को अभी भी कोई चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है। भाजपा का संगठन और उसके किरदार निभाने वाले नेता बिना रूके और बिना थके काम पर लगे हैं। वहीं कांग्रेस प्रदेश में व्योवृद्ध नेताद्वय कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के दंगल संभाले होने के कारण बाकी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कमलनाथ बीना गये थे। भाजपाईयों को ाी धमका आये और कर्मचारियों को भी। कह दिया पांच महीने बाद हमारे टारगेट पर सागर होगा सब देख लेंगे। यह छिन्दवाड़ा नहीं सागर और मध्यप्रदेश है। यहां धमकी से डरने की प्रथा नहीं है। लोग मतदान के समय धमकी का हिसाब कर देते हैं। इसलिए यहां शिवराज से सीखने की जरूरत है। राजस्थान में सचिन पायलट बार-बार गहलोत सरकार की जडें उखाड़कर देखने का प्रयास कर लेते हैं कि जड़ें जमी तो नहीं हैं? परिणाम जनता तय करेगी। दत्तीसगढ़ में कांग्रेस ताकतवर है। मु यमंत्री भूपेश बघेल जनता के बीच लोकप्रिय हैं। वे वहां भाजपा की वापसी को रोकने की क्षमता रखते हैं। अपनों की कुराफात न हुई तो वहां कांग्रेस विश्वास कर सकती है। लेकिन इस संभावना से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि सरगुजा महाराज के साथ जो हुआ है वह बघेल के साथ न होगा ऐसा कैसे मान सकते हैं?
कर्नाटक में कांग्रेस पके आम समेट कर सत्ता का सपना संजो रही है। जो घटनाक्रम हुआ है उससे उसे यह अधिकार मिलता है। फिर भी चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद समीकरण किस प्रकार के होंगे यह समझना होगा। मोदी-शाह इतनी आसानी से अपने मोहरे पिटने तो नहीं देते हैं। फिर भी कर्नाटक में क्या नाटक होगा समझने में समय लगेगा।
इन सभी बातों से एक बात साफ हो गई कि संसद का बजट सत्र बीत गया। विपक्षी दलों के पास विकास के भाजपाई नारे को कोई तोड़ नहीं दिखा। महंगाई पर जनता की भावनाओं को हवा देने का भी उसके पास समय नहीं रहा। वह तो राहुल द्वारा चलाई गई अडाणी की मुहिम का हिस्सा बन गया और भूल गया कि वोट जनता देती है और जनता कभी भी किसी उद्योगपति की आलोचना पर वोट नहीं देती। इसलिए जनता के मुद्दों पर सरकार विपक्ष को जाने ही नहीं दे रही है और विपक्ष एकता और सत्ताधारी दल की योजना में उलझा हुआ है।