लोकतंत्र में सदन की बैठकों का अपना महत्व रहा है… सदन से जनप्रतिनिधियों की बेरूखी

अब यह बात लुकी छिपी नहीं रही है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की रूचि लोकसभा व विधानसभाओं के सदन में चर्चा के प्रति नहीं रही। मध्यप्रदेश विधानसभा में बजट पास कराते समय विपक्ष के पर्याप्त सहयोग के बाद भी एक साथ बिना चर्चा के बजट पास कराये जाने की घटना इस बात तक पहुंच गई कि विधायकों की रूचि ही अब सदन में चर्चा के प्रति नहीं रही है।

सुरेश शर्मा, भोपाल।

अब यह बात लुकी छिपी नहीं रही है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की रूचि लोकसभा व विधानसभाओं के सदन में चर्चा के प्रति नहीं रही। मध्यप्रदेश विधानसभा में बजट पास कराते समय विपक्ष के पर्याप्त सहयोग के बाद भी एक साथ बिना चर्चा के बजट पास कराये जाने की घटना इस बात तक पहुंच गई कि विधायकों की रूचि ही अब सदन में चर्चा के प्रति नहीं रही है। यदि बजट जैसे गंभीर विषय की चर्चा को नीरस मानकर काेरम का अभाव होने जैसी स्थिति बनती है तब इसे क्या समझा जाये? सदन हंगामा और राजनीतिक प्रचार का आधार बनता जा रहा है। राजनीतिक दल अपनी विचारधारा के आधार पर सरकार को घेरने की बजाए अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए घेरने के आदि होते जा रहे हैं। जिससे सदन सार्थक बहस की बजाए राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने का स्थान बनते जा रहे हैं। जिसमें न तो कोई खर्चा पाटी को करना पड़ता है और न ही भीड़ ही जुटाना पड़ती है। मीडिया पहले ही वहां खड़ा रहता ही है। ऐसे में स्वरूप बदलता जा रहा है। एक समय था जब जनप्रतिनिधियों की ललक अपने चुनाव क्षेत्र के विकास के प्रति होती थी लेकिन अब चुनाव क्षेत्र की प्राथमिकता खत्म हो गई है। अब तो पार्टी के लिए काम करना ही मकसद हो गया है? क्या लोकतंत्र के स्वरूप के बदलने की आहट को आज सुनने का समय आ गया है? क्या लोकतत्र के सभी स्तंभों को इस पर विचार करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है? यदि बजट बिना चर्चा के पास किये जायेंगे? यदि कानून बिना चर्चा के पारित कर दिये जायेंगे? सदन काे बुलाना औपचारिक होता जायेगा तो लोकतंत्र के स्वरूप में बदलाव आयेगा? किसी भी संस्था की जवाबदेही नहीं रहेगी तब लोकतंत्र का मतलब बेमानी हो जायेगा?

बात मध्यप्रदेश विधानसभा के 9 दिनी बजट सत्र को लेकर शुरू हुई थी। पुराने प्रमुख सचिव भगवान देव ईसराणी का कहना है कि समान्यतया बजट पास कराने और विभागवार चर्चा करने के लिए 22 दिन का समय लगता है। कानून आदि के लिए और समय हो सकता है। इसलिए नो दिनी बजट सत्र बुलाने का मतलब ही यही है कि सरकार पहले से ही गुलेटिन से बजट पास कराने की मानसिकता बनाये हुई है। ऐसे में विपक्ष के असहयोग की संभावना को भी ध्यान में रखा गया होगा। अब विपक्ष का रूख हंगामा और चर्चा दोनों को गया तो सरकार के सामने असहज स्थिति बन गई। अब विधानसभा ने अपने अधिकारों का उपयोग करके एक साथ सारे विभागों की मांगेें प्रस्तुत कर दी और उन्हें पारित कर दिया। ऐसा करना कोई नया नहीं है और पहली बार हुआ को ऐसा भी नहीं हे। विधानसभा के प्रमुख सचिव अवधेश प्रताप सिंह का मानना है कि कार्य मंत्रणा समिति का निर्णय जो हुआ वही हुआ है। हमें भी लगता है कि अब बजट जैसी चर्चा पर विधायकों की कम रूचि है और अनेकों बार कोरम की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। ऐसे में यह तय हुआ था कि प्रमुख विभागों की मांगों पर चर्चा करा ली जाये और अन्य को एक साथ पारित करा लिया जाये? मतलब यह हुआ कि इस प्रकार की परिस्थितियों के लिए पक्ष और विपक्ष की समान भागीदारी है।

मध्यप्रदेश विधानसभा में गुलेटिन से बजट पास कराने का घटनाक्रम सच में पहली बार हुआ हो ऐसा नहीं है। इससे पहले भी ऐसा होता आया है। लेकिन ऐसा तब होता है जब विपक्ष हंगामा करता है और सरकार को काम जल्दी निपटाना होता है। इस बार ऐसा नहीं था। ऐसे में रणनीति के तहत भी काम किया जाता है। विपक्ष को उत्तेजित किया जाता है और उसे हंगामा करने के लिए उकसाया जाता है। उसी हंगामें में बजट पास करा लिया जाता है। लेकिन इस बार ऐसी कोई स्थिति नहीं बनी और विधानसभा अध्यक्ष को प्राप्त असीमित अधिकारों का उपयोग करते हुए बजट पास करा लिया गया। इसलिए जनप्रतिनिधियों पर सवाल उठना स्वभाविक है। विधायक का अर्थ ही विधायी कार्यों से जुड़ा हुआ है। बजट भी विनयोग विधेयक ही होता है जिसे सदन पास करता है। उसी के आधार पर सरकार अपना खर्च चलाती है। अब तो आम बजट में राशियों का उल्लेख औपचारिक हो गया उसका स्थान अनुपूरक बजट ने ले लिया। अनुपूरक बजट को आमतौर पर बिना अधिक चर्चा के पारित कर दिया जाता है। इसलिए बजट के प्रति गंभीरता को सरकार ने खत्म कर दिया। समूचे विधायक उसको स्वीकार भी कर बैठे? मतलब यही हुआ कि विधायिका की रूचि गंभीर विषयों पर नहीं रही। विधानसभा के उच्चाधिकारियों से बात करो तो उनका साफ कहना है कि अब कोई विधायक कानून और बजट की बारीकियों को समझने का प्रयास ही नहीं करता। उसके पास तथ्यों का अभाव रहता है जिसका लाभ शासन पक्ष उठा लेता है।

सवाल यह उठता है कि जिस काम के लिए विधायकों को चुनकर भेजा जाता है वे यदि अपने उसी दायित्व को पूरा करने में संकोच करते हैं तब इस निर्वाचन प्रकि्रया पर ही आने वाले समय में सवाल उठना शुरू नहीं हो जायेंगे? फिर लोकतंत्र की जरूरत ही क्या है? तभी समय-समय पर निर्वाचन प्रणाली को लेकर सवाल उठते हैं और अमेरिका जैसा लोकतंत्र बनाने की संभावना जताई जाने लग जाती है। जहां एक राष्ट्रपति निर्वाचित होता है और अपने हिसाब और पंसद का मंत्री मंडल बना लेता है। हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधि की इसी दिशा ओर बढ़ते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं? जहां से भारतीय लोकतंत्र की जमीन कमजोर होती हुई दिख रही है। भारतीय लोकतंत्र में तीन स्तंभ स्वीकार किये गये हैं। कार्यपालिका जिसको प्रशासन का संचालन करना है। न्यायपालिका जिसको संरक्षण प्रदान करना है और विधायका जिसको सृजन करना है। जब देश को लगा कि तीनों के बीच का सन्तुलन कौन बनायेगा तब खबरपालिका का जनता ने मान्यता दी और वह तीनों स्तंभों का सन्तुलन बनाने के लिए काम कर रही है। आज देश में यही चौथा खंबा अपने काम से सबसे अधिक भटका है। राजनीति याने कि विधायिका सबसे ताकतवर स्तंभ हो गया जो सबको धीरे-धीरे गिटकता जा रहा है। खबरपालिका को वह सबसे पहले निगलने का प्रयास कर रहा है। इसके बाद शेष स्तंभों को निगलने में उसे परेशानी नहीं होगी? खबरपालिका अपने विशेष गुण जनसरोकार को छोड़ती जा रही है। उसे जनता का विश्वास था तभी वह सबका सन्तुलन बनाती थी। लेकिन उसके हाथ से जनता की नब्ज निकलती जा रही है। मीडिया को यह पता नहीं होता कि चुनावों में जनता का मूढ़ क्या है? उसे यह पता नहीं होता कि जनता के बीच से किस बात पर क्या प्रतिक्रिया आ रही है? उसे यह भी पता नहीं होता कि राजनीतिक दलों में चल क्या रहा है। जब से मीडिया ने नेताओं के गार्डन में डेरा जमाना शुरू किया है उसकी प्रतिष्ठा भी गेट से बाहर वाली होती जा रही है। मध्यप्रदेश विधानसभा में फाग आयोजन में प्रदेश के मीडिया को आमंत्रण के बाद गेट के बाहर करके भोजन देने से यह सब उजागर भी हो गया। इसलिए जब तक मीडिया जनसरोकार की ओर नहीं लौटेगा तब तक उसकी साख वापस नहीं आयेगी? मीडिया को औद्योिगक घरानों कब्जाकर गुलाम बना लिया है जिससे भी यह स्थिति बन रही है। इसलिए मूल पत्रकारों के संरक्षण के लिए जनता को आगे आना होगा।

यही बड़ा कारण है कि विधायिका अपने मूल दायित्व से विमुख हो गई है। विधानसभाएं हों या लोकसभा व राज्यसभा वहां हंगामा करने वाला ही सबसे सकि्रय जनप्रतिनिधि गिना जाने लग गया है। मीडिया में भी उसी को भाव दिया जाता है। जनप्रतिनिधियों को उनके दल पार्टी का एजेंडा देते हैं और उसको पूरा करने के लिए भरसक प्रयास करता है। उसके लिए वह विभिन्न प्रकार के नाटक प्रायोजित करता है। विभिन्न प्रकार के रूप धारण करके सदन में आता है। विभिन्न प्रकार के प्रदर्शन सदन में करता है। इससे जनहितैषी आचरण न होकर दलीय राजनीतिक आचरण होता है। इसलिए देश के वे सभी लोकतंत्र हितैषी लोगों को एक मंच पर आकर इसके लिए आवाज उठाने की जरूरत है। राजनीति को अपने अधिकार क्षत्र से बाहर निकलकर अन्य संस्थाओं के अधिकारों पर अतिक्रमण करने की ताकत नहीं देना चाहिए। जिस बारीक रेखा से काम का बंटवारा किया हुआ है उसे बनाये रखने के प्रयास करने चाहिए। अन्यथा लोकतंत्र की भारतीय मान्यताओं को जनप्रतिनिधि ही नष्ट करने की दिशा में निकल चुका है। उसे खुद को खुदा समझने से रोकना होगा और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आकर कदम उठाना होंगे? तभी लोकतंत्र प्रभावी हो पायेगा।

संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फांउडेशन के चेयरमैन हैं)

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