भारत की राजनीति अनुत्पादक विषयों पर अटकी… आर्थिक संकट कितना तैयार भारत?

अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप टैरिफ को लेकर समूचे विश्व पर आक्रामक हैं। वे आयात-निर्यात के सन्तुलन को बचाने के लिए विश्व के सन्तुलन को बिगाड़ने पर लगे हैं। सेवा क्षेत्र के लिए उनका सोच विश्व की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ता हुआ दिखाई दे रहा है।

सुरेश शर्मा, भोपाल।

अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप टैरिफ को लेकर समूचे विश्व पर आक्रामक हैं। वे आयात-निर्यात के सन्तुलन को बचाने के लिए विश्व के सन्तुलन को बिगाड़ने पर लगे हैं। सेवा क्षेत्र के लिए उनका सोच विश्व की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। आिखर भारत पर इसका क्या असर हो सकता है। अर्थशास्त्री इन सभी विषयों को परख रहे हैं और आगे के लिए रास्ता सुझाया जा रहा है। महिलाओं सहित किसान और अन्य क्षेत्रों को दी जाने वाली नकद प्रोत्साहन राशि अर्थव्यवस्था को किस प्रकार से प्रभािवत कर रही है। क्या यह प्रोत्साहन अर्थव्यवस्था के प्रभाव को रोकने में सहायक होगा? शेयर बाजार में आ रही लगातार की गिरावट ने भी आम निवेश की जेब को प्रभावित कर दिया है। इन सभी परिस्थितियों के बीच भारत की राजनीति आज भी अनुत्पादक विषयों पर उलझी हुई है। अधिकांश दल धर्म की राजनीति कर रहे हैं। धार्मिक आयोजनों में वोट का गणित तलाश रहे हैं। आपस में बोले गये शब्दों से समाज को भ्रमित करके किस प्रकार से वोट को अपने पक्ष में किया जाये। कभी शक्ति, कभी अम्बेडकर, कभी औंरगजेब कभी संघ व कभी भीख जैसे शब्दों को पकड़कर राजनीति करने का प्रयास होता है। जबकि सभी को पता है कि ये विषय भावनाओं को कुछ समय के लिए ही उत्तेजित कर सकते हैं। दक्षिण की राजनीति में एक फिर से भाषाओं का विवाद लाकर सत्ता बचाये रखने का प्रयास किया जा रहा है। ये सभी विषय चुनाव के समय तो राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन आम दिनों में उठाये गये विषय चुनाव तक टिक नहीं सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में संविधान और आरक्षण का विषय काम कर गया था जिससे भाजपा का पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का सपना धरा रह गया। इसलिए भारत के राजनीतिक दलों के पास विजन का अभाव साफ दिखाई दे रहा है। ये सभी दल भावनात्मक विषयों को ही राजनीति का आधार बना रहे हैं।

वह समय याद है जब राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के समय शक्ति को लेकर टिप्पणी की थी। वे शक्ति का अर्थ कुछ और बता रहे थे लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए शक्ति को मां दुर्गा के साथ जोड़ दिया गया। इसका चुनाव में लाभ मिला क्योंकि उस समय चुनाव चल रहे थे। लोकसभा के चुनाव के समय संविधान को हाथ में लेकर अजीब किस्म का प्रदर्शन किया गया। विदेशी सहायता और बाबा साहब के संविधान को बदलने की बात गले उतार दी गई। यूपी का चुनावी समीकरण बदल गया और वहां मिलने वाली भाजपा की सीटें कम हो गई। अन्य राज्यों का सन्तुलन तो संभल गया लेकिन यूपी का नहीं संभल पाया। इसलिए भाजपा की तीसरी बार अपने दम पर सरकार बनाने का सपना चूर हो गया। तभी से भारत की राजनीित में इसी प्रकार के अनुत्पादक विषयों को उछालने का काम शुरू हो गया। कोई भी दल रचनात्मक विरोध नहीं कर पा रहा है। वह मतदाताओं के सामने भाजपा से बेहतर विजन भी नहीं रख पा रहा है। अब संविधान को लेकर जिस प्रकार के तथ्य सामने आये हैं उससे तो कांग्रेस की तो लोई ही उतर गई है। पंडित जवाहर लाल नेहरू जिस काम को संविधान सभा में बाबा साहब से नहीं करवा पाये थे उसे संसद में पहले ही साल में खुद संविधान बदलकर पूरा कर लिया। भारत के सोच और जीवन पद्यति को नेहरू ने बिगाड़ दिया। कुछ बचा था आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने बदल दिया। संविधान की प्रस्तावना बदलकर भारत की तहजीब को ही खत्म कर दिया।

इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान निर्माताओं की मंशा के आधार पर देश नहीं चलता है? देश तो सरकार चलाने वालों की राजनीतिक विचारधारा के आधार पर चलता है। इसलिए गांधी परिवार की सरकारों के समय देश उनकी विचारधारा के आधार पर चलता था और आज मोदी व भाजपा की सरकार के समय इनकी विचारधारा के आधार पर देश व सरकार चल रही है। सरकार ने विचारधारा को देश के साथ जोड़ दिया और उसी प्रकार के कानूनों की संरचना करना शुरू कर दी। धारा 370 को हटाने के साथ ही समाज को भारत के विचार अनुसार बनाने के लिए कानून देश में तैयार हो रहे हैं। बंटवारे के बाद जिन कानूनों से देश का संचालन होना था वे कानून तो अब आना शुरू हुए हैं। आजाद भारत के बाद पहली बार देश को पता चला है कि कटोगे तो बंटोंगे? आज यह भी पहली बार ही सुनने में आया है कि होली साल में एक बार आती है जबकि जुम्मा बावन बार आता है? यह टकराव नहीं अपितु समानता की भावना को जागृत करने का टोनिक है?

क्योंकि देश समानता के बिना चलता आया और चलता ही गया। क्योंकि राजनीति को विजन से कोसो दूर कर दिया गया था। केवल मुस्लिम वोट लेने के लिए सभी प्रकार के जुगाड़ तैयार किये जाते रहे और सत्ता प्राप्त की जाती रही? चीन धमकी देता था और समूचा भारत सहम जाता था। सैना की बात छोड़िए आम व्यक्ति को भी भय लगता था। आज क्यों नहीं लगता? पाकिस्तान जहां इच्छा होती थी बम फोड़ने का आदेश देकर कि्रयान्पयन करा लेता था आज उसके घर में बम मारने की ताकत कहां से आ गई? क्योंकि आज देश के विकास और आत्मसम्मान की राजनीति की जा रही है। आज सर्जिकल करने और एयर स्ट्राइक करने की क्षमता भारत में है। आज अर्थव्यवस्था के नाम पर रोने की नहीं मुकाबला करने की ताकत आ गई है? क्यों? क्योंकि भारत के पास विजन है। सरकार को पता है कि ताकतवर भारत व विकसित भारत बनाने के लिए करना क्या है? आज विश्व के सामने अमेरिका एक ऐसा देश बनकर उभर रहा है जिसके कारण लगभग देशों की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी? विश्व में भारत ही ऐसा देश होगा जिसने अपने लोगों को सीधी आर्थिक सहायता देकर उनको किसी भी चुनौती से लड़ने के लिए तैयार करना पहले ही शुरू कर दिया था। किसानों को आर्थिक सहायता उनके खाते में डालने की योजना आई। महिलाओं के लिए पहले से चल रही योजना के बाद उनके खाते में सीधे पैसे डालने की योजना हर चुनाव में राज्यवार शुरू होने जा रही है। मध्यप्रदेश से शुरू हुई लाड़ली बहना योजना विभिन्न नामों से अधिकांश राज्यों में शुरू हो चुकी है। इसलिए अमेरिका के कारण आ रही आर्थिक चुनौती का समाने करने के लिए देश को पहले से ही तैयार कर लिया गया था। शेयर बाजार के घाटे को पाटने के लिए किस प्रकार की योजना मोदी सरकार लाती है यही तो देखने वाली बात होगी?

लेकिन विपक्ष क्या कर रहा है? उसे इस बात की अधिक चिंता है कि उनके राज्य में हिन्दी क्यों प्रवेश करना चाह रही है? केन्द्र की सरकार उसे थोपने का प्रयास कर रही है? सारे भारत में आपसी संवाद की भाषा हिंदी ही हो सकती है इसलिए दक्षिण को विकास व समन्वय से दूर क्यों रखा गया? केवल वोटों के लिए? यदि तमिल की उत्तर भारत में जरूरत होगी तब उसे यहां कौन रोकने वाला है? क्या उत्तर भारत में दक्षिण की भाषा बोलने वालों के साथ भेदभाव होता है? तब दक्षिण की राजनीति ऐसा करने के लिए क्यों प्रेरित कर रही है। कारण यह है कि दक्षिण राजनीति में विकास का विजन नहीं है? यदि राहुल गांधी शक्ति शब्द का इस्तेमाल करके राजा के पास शक्ति केन्द्र होने की बात करते हैं तब उस शब्द शक्ति को देवी से क्यों जोड़ा जाता है? यह भावनाओं को भड़कान का काम है राजनीति नहीं है? सदन में बार-बार अम्बेडकर बोलकर उदाहरण देने से अम्बेडकर का अपमान हो जाता है ऐसा सिद्ध करने वाले भी विजन के मामले में खोखले हैं? क्या इस प्रकार की राजनीति आपसी भेदभाव को पैदा नहीं करती है? यदि कोई नेता अपने समाज के लोगों को इस बात के लिए रोके की अनावश्यक नेतागिरी करने के लिए मांग पत्र की आदत भीख मांगने जैसी है तब उस शब्द पर राजनीति करने का अर्थयह हुआ कि वाक्य का एक शब्द उठाओ और उस पर अपना अर्थ चिपकाओं और बाजार में छोड़ दो बहस करने के लिए? क्या इससे प्रदेश या समाज का कोई भला होने वाला है? इतना जरूर सिद्ध हो जाता है कि इस प्रकार की आवाज उठाने वालों के पास अपना कोई विजन नहीं है। अपनी बुद्धि केवल इतनी सी ही है? लेकिन देश की राजनीति का तौर तरीका ही आगे निकलने के लिए खुद को ताकतवर व योजनाकार सिद्ध करने की बजाए सामने वाले को बुद्धु सिद्ध करना ही रह गया है। यही कारण है कि देश की राजनीित मूल विषयों पर होने की बजाए यूं ही हो रही है?

संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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