चुनाव से पहले इतना बड़ा दलबदल और कांग्रेस मौन…केवल डर आधार नहीं है दलबदल का

भारत को आजाद हुए 77 साल हो गये। इससे पहले 17 बार लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। यह 18वीं लोकसभा का गठन होने जा रहा है। कई पुराने पत्रकारों से बात की है लेकिन कोई भी यह स्मरण नहीं कर पा रहा है कि किसी भी लोकसभा या विधानसभा के आम चुनाव से पहले इस प्रकार का दल बदल हुआ हो।

सुरेश शर्मा। भारत को आजाद हुए 77 साल हो गये। इससे पहले 17 बार लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। यह 18वीं लोकसभा का गठन होने जा रहा है। कई पुराने पत्रकारों से बात की है लेकिन कोई भी यह स्मरण नहीं कर पा रहा है कि किसी भी लोकसभा या विधानसभा के आम चुनाव से पहले इस प्रकार का दल बदल हुआ हो। इस बार का दलबदल अपने आप में मिशाल है। भाजपा ने न्यू ज्वाइनिंग टीम का गठन करके इस प्रकार के दलबदल का अवसर दिया है। अन्य दलों को भी ऐसे अवसर मिल सकते हैं और ताक में भी हैं लेकिन नेताओं का आकर्षण उधर नहीं हो सकता है। इस दलबदल से सबसे अधिक प्रभािवत कांग्रेस हो रही है। लगभग सभी राज्यों में यह भगदड़ देखने को मिल रही है। इस भगदड़ से न तो प्रादेशिक ईकाई कुछ करती हुई दिख रही है और न ही केन्द्रीय नेतृत्व की ओर से ही कुछ होती दिख रही है। जब प्रभावशाली नेताआें का दलबदल शुरू हुआ तो कांग्रेस को इस बात का संतोष था कि जो नेता ईडी के दबाव में हैं वे पार्टी से जा रहे हैं। लेकिन अब प्रवक्ताओं का भाजपा में जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो संगठन के संचालकों का मूंह सिल गया। युवा और प्रतिभावान नेताओं का इस प्रकार जाना भी हर किसी संगठन के लिए अचछा संदेश नहीं होता है। जब पार्टी जनाधार खिसकता है और यह पता चलने के बाद भी कोई कुछ नहीं करता है तब ऐसी ही स्थिति बनती है।

कांग्रेस इस समय उस कमी से जूझ रही है जिसका पता होने के बाद भी वह उसे सुधार नहीं सकती है। सबसे पहली कमी यह सामने आ रही है कि उसके पास चमत्कारी नेतृत्व नहीं है। राहुल गांधी का प्रयोग विफल हो चुका है। चुनाव के जानकार प्रशान्त किशोर कहते हैं कि राहुल गांधी का एक गुण है कि वे चुनाव हारने के बाद भी अवसाद में नहीं जाते और अगले चुनाव में उसी मनोभाव से काम करते हैं। लेकिन यह वे नहीं समझ पाये कि उन्हें अवसाद का मतलब पता भी है या नहीं? जिस प्रयोगाें को वे करते जा रहे हैं वे कई बार जनता के द्वारा नकारे जा चुके हैं। इसलिए कांग्रेस के नेताओं को अपना भविष्य इस दल में सुरक्षित नहीं दिखता और भाजपा सहित एनडीए के सहयोगी दलों में जा रहे हैं। न कांग्रेस अपना नेतृत्व बदलेगी और न ही इस भगदड़ में कोई सुधार आयेगा? राहुल के बाद कांग्रेस का प्रियंका वाला प्रयोग भी उसी प्रकार का रहा है। उनमें कोई नेतृत्व क्षमता भी तक दिखी नहीं है। हालांकि भाजपा वाले राहुल को ही मोदी के सामने रखने का प्रयास करते हैं क्योंिक मुकाबला विजन और हास्य के बीच बन जाये।

राम मंदिर का निर्माण हुआ है। वह भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र का बहुत ही पुराना और महत्वाकांक्षी मुद्दा रहा है। यह बात तब से कांग्रेस सहित अन्य विपक्ष के नेता जब भाजपा ने इसे लपका था। भाजपा की जनसंघ के समय से यही नीति भी रही है। बहुंसख्यक समाज के वोटों में भाजपा की घुसपैठ को इसी अंदाज से देखा जा सकता है। इस चुनाव में राम मंदिर का निर्माण कर वहां पर राम लला का विराजमान होना चुनाव में एक बड़ा मुद्दा होना था। इसका तोड़ विपक्ष ने जरूर तलाशा होगा। वह या तो प्रतिक्रिया में अल्पसंख्यक समुदाय का एकीकरण हो सकता है या रामलला की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होकर नाराजगी को कम करना हो सकता था। लेकिन इसका अवसर गंवाया गया। आज यही भगदड़ का सबसे बड़ा बहाना है। रोहन गुप्ता ने जिस प्रकार से इसका वर्णन किया है कि मोहल्ले में हम हिन्दू होते हुए भी पार्टी के कारण रामलला संबंधित कोई भी उल्लास न दिखाना शर्मिंदगी का आधार बना था। अल्पसंख्यक मतदाता का प्रभाव कर्नाटक चुनाव की भांति पाया जा सकता है जब जदएस के 5 प्रतिशत वोट कांग्रेस को मिले जिससे जदएस की सीटें घटी और उससे भाजपा की भी कुछ सीटें लेने में कामयाबी मिली। जिससे कांग्रेस वहां सरकार बनाने में कामयाब हो गई। ऐसा कोई प्रयोग दिल्ली के लिए किया जाना योजना में शामिल हो। ऐसा होता तो दलबदल क्यों होता?

अल्संख्यक वोटों के पीछे की मारामारी को भाजपा ने कभी तुष्टिकरण कहा था। आज वह शब्द प्रचलन में आ गया। प्रतिक्रिया में वोहरा समाज की मस्जिद से अबकी बार 400 पार और मोदी है तो मुमकिन है के नारे लगते दिखे हैं। अब यह चर्चा श्ाुरू हो रही है कि क्या आजादी के 77 वर्ष बाद भी मुस्लिम समाज की मानसिकता बंटवारे के समय वाली ही रहेगी? भाजपा को बहुसंख्यक समाज का समर्थन दिनों दिन मिलने का सबसे बड़ा आधार यही है। पाकिस्तान में वहां से आये हिन्दूओं की जमीन का कोई हिसाब किताब नहीं है लेकिन भारत में वक्फ कानून बनाकर उस जमीन सहित िबना किसी हिसाब किताब के भारत में जमीन बैंक उनके लिए तैयार कर दिया? जब प्रधानमंत्री श्रीलंका को दिए गये टापू की बात करते हैं तब उसमें चीन के आक्साई चीन, पाक के पीओके के साथ ही वक्फ की नाजायज जमीनों के प्रति भी विचार आता है? इस तुष्टिकरण को कांग्रेस ने हर चुनाव में गहरा किया है और उसी की प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक समाज के वोटों का भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ है। यही एक कारण भी ऐसा है जिसने भारत जैसे उदारवादी देश को इस्लामिक कट्टरपन की ओर धकेलने का प्रयास किया। भगवा आतंकवाद की थ्योरी की जनक कांग्रेस आज तक लोगों के निशाने पर हैं।
जातिगत जनगणना भी ऐसा मुद्दा है जिसने कांग्रेस के जनाधार को प्रभावित किया है और इससे कांग्रेस में बदलाव को देखा जा रहा है। इंदिरा जी के समय नारा होता था जात पर ना पात पर माुहर लगेगी हाथ पर। आज राहुल गांधी जातपात की बात करने वालों में सबसे मुखर नेता हो चुके हैं। दलित और अादिवासियों के ब्रांड नेता भी इतनी मुखरता से नहीं बोलते होंगे जितने राहुल बोल रहे हैं। आजादी के बाद देश के किसी भी उद्योगपित को लेकर कभी इतनी बयानबाजी नहीं हुई जितनी राहुल ने अडाणी अंबानी को लेकर की है। यह किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए विचित्र संदेश देने का आधार बनता है जब लाखाें लोगों को रोजगार देने वाले उद्योगपतियों को हर समय हर विषय पर निशाने पर कोई राजनेता लेता हो। भारत की राजनीति का इतिहास रहा है िक गांधी जी बिड़ला जी के यहां रूका करते थे और टाटा देश की स्मिता के िलए अपना विस्तार करते थे। आज इसे जार्ज सोरेस के इशारे पर नाचना माना जाता है?

भारत में जिस प्रकार से श्रीराम राजनीति के केन्द्र में आये हैं उसी प्रकार से राष्ट्रवाद भी प्रमुख मुद्दा है। जिन्होंने के विरोध को स्वीकार करके राजनीति की है उसी प्रकार से उन्होंने सेना के शोर्य पर सवाल उठाये हैं? सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगने से लगाकर राफेल की बात को उठाकर सेना के आधुनिकीकरण में बाधा बनकर राष्ट्रवाद के विरोध में खड़े होने का प्रदर्शन किया है। यही कारण है कि कांग्रेस के नेताओं का दलबदल करने का सिलसिला तेज हुआ है। राजनीति अवधारणा का सबसे बड़ा खेल होता है। जब किसी दल के बारे में यह अवधारणा बन जाये तब यह मान लेना चाहिए कि उसका पराभव शुरू हो गया है। कांग्रेस यदि इस पराभव को नहीं रोक पाई तो उसे संकट का सामना करना पड़ेगा। प्रवक्ता किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए आइना होता हे। वह सफेद को काला और काले को सफेद करने का सबसे बड़ा यंत्र होता है। नेताओं से अिधक प्रवक्ताओं ने कांग्रेस का दामन छोड़ा है। जिन प्रवक्ताओं को विद्वान माना जाता था उनका कांग्रेस का दामन छोड़ना यह बताता है कि कांग्रेस में विचार शून्यता आती जा रही है। तर्क कमजोर होता जा रहा है। गाैरव वल्लभ और रोहन गुप्ता का चुनाव के बीच में आना मायने रखता है। प्रदेशों में यह संख्या गिनी भी नहीं जा सकती है।

इसलिए कांग्रेस का यह कहना कि ईडी और सीबीआई के डर से नेताओं की यह भगदड़ है पूर्ण सत्य नहीं है। यह हो सकता है कि कुछ नेता समय से पहले रास्ता निकाल ले रहे होंगे। लेकिन यह आधार होता तो प्रवक्ताओं का बौद्धिक वर्ग इस प्रकार से दलबदल करने की हालात में नहीं पहुंचता। कांग्रेस को पूरे तौर पर आतम मंथन करने की जरूरत है। उसे भाजपा के मुकाबले अपनी विचारधारा और विजन को साफ करना होगा? नेतृत्व की समझ को आज के आधार पर तैयार करना होगा। जब देश में काम होता दिख रहा है तब आलोचना का हथियार काम नहीं आता अपने शासित राज्यों में कुछ अलग करके दिखाना होता है। वह कांग्रेस कर नहीं पा रही है।

(लेखक हिंदी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं) संवाद इंडिया

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