आबरू और बेआबरू की बारीक लेन पर केजरीवाल …अदालत का मामला जनता की अदालत में

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस समय आबरू और बेआबरू की बहुत बारीक लेन पर चल रहे हैं। न्यायालय ने ट्रायल में देरी के आधार पर उन्हें जमानत देकर राहत दी है लेकिन अभी उनकी साख तो दांव पर लगी ही हुई है। केजरीवाल के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे सीएम बनेंगे या नहीं? महत्वपूर्ण यह है कि उनकी और उनकी पार्टी की ईमानदार वाली छवि का क्या होगा?

सुरेश शर्मा

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस समय आबरू और बेआबरू की बहुत बारीक लेन पर चल रहे हैं। न्यायालय ने ट्रायल में देरी के आधार पर उन्हें जमानत देकर राहत दी है लेकिन अभी उनकी साख तो दांव पर लगी ही हुई है। केजरीवाल के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वे सीएम बनेंगे या नहीं? महत्वपूर्ण यह है कि उनकी और उनकी पार्टी की ईमानदार वाली छवि का क्या होगा? ऐसा आज तक के राजनीतिक इतिहास में किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि किसी एक ही घोटाले के आरोप में सारे बड़े नेता फंसे हों और एक-एक करके जेल जा रहे हों। उन्हें जमानत कराने के लिए वकीलों की फौज उतारना पड़ रही हो। इसलिए जो आबरू ओढ़कर राजनीति शुरू की थी वह लोई उतरती हुई दिखाई दे रही है। उसको बचाने के िलए सबसे पहला प्रयास हुआ कि मामले को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सिर पर ठीकरा फोड़कर खुद गंगा स्नान कर लिया जाये। वह प्रयाेग अभी तक चल रहा है। लेकिन कुछ दिन के बाद उसका प्रभाव कम हो गया। अब तो मामला विशुद्ध रूप से न्यायालय का हो गया इसलिए मोदी पर कुछ भी और हर समय बोलने का प्रभाव नहीं हो पा रहा है। अब केजरीवाल जमानत पर आ गये और आप के कार्यकर्ता और नेताओं को इस बात का भरोसा था कि उनका नेता कोई न कोई हल समस्या का निकाल लेगा? यह सच भी साबित होता दिख रहा है। केजरीवाल ने घोषणा की है कि वे दो दिन में सीएम के पद से इस्तीफा दे देंगे और तब तक सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठेंगें जब तक जनता उन्हें ईमानदार होने का प्रमाण पत्र न दे दे? इसमें समझदारी यह है कि जिस मामले को न्यायालय में निपटना चाहिए था उसे जनता की अदालत की ओर मोड़ दिया गया और इसमें कुटिलता यह है कि अपने साथ उन्होंने पार्टी के शेष बचे दूसरे नेता मनीष सिसोदिया को भी अपने साथ जोड़ लिया।
सबको याद ही होगा जब हवाला मामला आया था कुछ नेताओं पर उसके आरोप लगे थे। लालकृष्ण आडवाणी ने उसी समय लोकसभा की सदस्यता से त्याग पत्र दिया था और कहा था कि जब तक वे बेदाग न सिद्ध हो जायेंगे सदन की सीढ़ियों पर नहीं चढ़ेंगे। उन्हें इस मामले में न्यायालय ने बरी किया और वे चुनाव जीतकर फिर सदन में आये थे।

केजरीवाल ने उसी प्रकार का रास्ता अपनाया है लेकिन अपनी कुटिलता के साथ। आडवाणी ने न्यायालय से बेदाग होने की स्थिति मेंं सदन में आने की प्रतीज्ञा ली थी जबकि केजरीवाल ने जनता की अदालत में विश्वास हासिल करने की बात कही है। एक तरफ न्यायालय की प्रधानता थी और दूसरी तरफ न्यायालय से बचाव का रास्ता अपनाया जा रहा है। यह पता है कि न्यायालय जमानत देने में नाकों चने चबवा रहा है तब बरी करने की स्थिति बन पायेगी या नहीं? इसलिए बहुत चतुराई भरी कुटिलता के साथ इस मामले को जनता की अदालत में ले जाया जा रहा है। वैसे भी दिल्ली विधानसभा के आम चुनाव नये साल की शुरूआत में होना ही हैं। केजरीवाल उन्हें महाराष्ट्र चुनाव के साथ कराने की मांग कर रहे हैं। आखिरकार कोर्ट का सामना करने की स्थिति में आप व उसके नेता दिखाई नहीं दे रहे हैं। ईडी और सीबीआई का दावा यह है कि उनके पास पर्याप्त सबूत हैं। यह तो न्यायालय के निर्णय के बाद ही समझ में आयेगा कि सबूतों में कितना दम है। फिर भी इस बात को ताकत के साथ माना जा सकता है कि जमानत के मामले तक ईडी और सीबीआई ने जिस प्रकार का प्रमाण न्यायालय के सामने रखा उससे तो जमानत देने के निर्णय के लिए भी पसीने छूट गये। केवल एक ही रास्ता दिखाई दिया कि ट्रायल में देरी के कारण यह तो नहीं हो सकता कि किसी मुख्यमंत्री स्तर के नेता को जेल में ही रखा लिया जाये? इसलिए जमानत का आधार बन गया। जमानत देने के मामले में किसी का कोई विरोध सामने नहीं आया। आना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह तो न्याय व्यवस्था का मामला है। यह कमी भी है कि सभी स्तंभों में चैक बैलेंस का मामला होता है केवल न्यायपालिका को ही ऐसे अधिकार हैं कि एक व्यक्ति किसी को भी जेल भी भेज सकता है और उसे बाहर भी कर सकता है। उसके निर्णय की न तो कोई समीक्षा होती है और न गलत निर्णय होने पर कार्यवाही करने का कोई विकल्प है। कई बार तो यह होता है कि निचली अदालत के निर्णय पर उससे बड़ी अदालत विपरीत टिप्पणी कर देती है लेकिन किसी भी प्रकार की सजा या कार्यवाही का कोई आधार नहीं बन पाता है।

इसीलिए न्याय व्यवस्था को मिले अधिकारों के कारण कई बार अिप्रय स्थिति भी बनती है। जिस प्रकार से देश की सबसे बड़ी अदालत ने दो बार देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी को तोता कह दिया। इसका मतलब यह हुआ कि न्यायपालिका जांच एजेंसी को किसी दबाव में काम करने वाली संस्था बताने का प्रयास कर रही है। क्या ऐसा करना उचित है? क्योंकि बड़ी अदालत को बड़ी जांच एजेंसी को कैसे काम करना चाहिए और जिससे उसके तोता बनने की स्थिति न बने ऐसे दिशा निर्देश जारी करना चाहिए। न कि उसे तोता तोती बोलकर अविश्वसनीय बनाना चाहिए? यदि जांच एजेंसियां सरकार के दबाव में किसी पर कार्यवाही करती भी हैं तब भी दंड देने का अधिकार तो उसको नहीं है दंड दिलवाने के लिए न्यायालय के पास ही उन्हें आना होता है तब फटकार के साथ केस का समाप्त करने कर बड़ा संदेश देना चाहिए। ऐसा तो नहीं हो पाता। इसलिए तोता कहकर जांच करने वाली संस्था का विश्वास घटाने का अधिकार भी किसी के पास नहीं आ सकता है? जब दो जजों की बैंच में दूसरा जज इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है तब केवल आदेश देना चाहिए विवादित टिप्पणी से बचना चाहिए।

अब देश के सामने आप और उसके नेताओं को बड़ी अग्निपरीक्षा देना बाकी है। आम चुनाव में जीत हो सकती है कि चौथी बार भी केजरीवाल को मिल जाये लेकिन इससे क्या भ्रष्टाचार का मुकदमा खत्म होने का आधार बन जायेगा? संभवतया कोई भी कानून का जानने वाला इससे सहमत नहीं होगा? लेकिन आप के नेताओं ने मोदी का प्रयोग फेल होने के बाद दूसरा प्रयोग जनता के सामने रखकर बचने का रास्ता निकाल लिया है। अब वह आबरू और बेआबरू होने की बारीक रस्सी पर चलना शुरू कर दिया है। यह चलने का क्रम चुनाव तक जारी रहेगा? भाजपा वाले केजरीवाल और उसके साथ के नेताओं को कट्टर बेइमान कहने का प्रचार करेंगे? दूसरी तरफ आप के सभी नेता मिलकर कट्टर ईमानदार होने का बिल्ला केजरीवाल के सीने पर लगाने का प्रयास करेंगे? जनता में इन्हीं दोनों बातों का भ्रम पैदा होगा। वैसे भी इन दिनों देश में भ्रम की राजनीति हो रही है। मोदी संविधान बदल देंगे? जबकि संविधान बदलने का काम कांग्रेस ने पंडित नेहरू के समय से ही शुरू कर दिया था और इंदिराकाल में तो संविधान की प्रस्तावना काे ही बदल दिया था। मोदी काल में कुछ बदलाव आयेगा तो वह अपराध कैसे हो जायेंगा? लेकिन भ्रम बनाया गया। आरक्षण का विरोध नेहरू ने भी किया था तथा ओबीसी आरक्षण का विरोध करने के कारण भी राजीव सरकार को वीपी सिंह ने गिराया था। अब तो खुद राहुल गांधी ही कह रहे हैं कि वे आरक्षण खत्म कर देंगे। उन्होंने परिस्थितियां ही बता दी।

इसलिए भ्रम दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी फैलाया जायेगा? यह हो सकता है कि केजरीवाल का जादू चल जाये या फिर जादू जब मोदी का लोकसभा चुनाव में उतर गया तो केजरीवाल का भी उतर सकता है। ऐसी स्थिति में यदि त्रिशंकु सदन आ गया तो क्या होगा? और यदि बंगाल की भांति दाे ही दल आ गये तब क्या होगा? इतना सच है कि जिस प्रकार दो चुनावों में आप के पक्ष में एकतरफा परिणाम दिये अब वैसा वातावरण शायद ही बने। इसलिए आप के नेताओं के मन में बड़ी आशंका है। केजरीवाल ने सीएम के पद से कब्जा न छोड़ने का मानस बना रखा है। उन्होंने अपने साथ मनीष को भी इसीलिए लपेटा है। इस्तीफा देने के बाद केजरीवाल का राजनीतिक भविष्य वे लोग खा जायेंगे जिनका भविष्य इन्होंने खाया है। कितने नेता थे आप में अब केजरीवाल की मिल्कियत हो चली है। लेकिन इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि जेल में रहने के बाद सौ गुणा शक्ति आये या न आये लेकिन कुटिलता पूर्ण राजनीति और चतुराई वाली राजनीति का अब भी कोई जवाब नहीं है। अरविंद केजरीवाल का कोई मुकाबला भी नहीं दिखाई दे रहा है।

संवाद इंडिया
(लेखक हिंदी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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