जलवायु परिवर्तन से गर्मी बढ़ेगी, सूखा पड़ेगा और पैदावार में कमी आएगी

रायपुर

जलवायु परिवर्तन के कारण विगत कुछ वर्षों में मौसम की चरम प्रतिकूल परिस्थितियों – गर्मी, सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि आदि घटानाओं में काफी बढ़ोतरी हुई है और यह मानव स्वास्थ्य तथा फसलों की पैदावार के लिए एक गंभीर चुनौती बन कर उभरा है। औद्योगिक क्रान्ति की शुरूआत के बाद से वायुमण्डल का तापमान 1.1 डिग्री सेन्टिग्रेट बढ़ चुका है और अगर यही रफ्तार रही तो आने वाले दो दशकों में औसत तापमान 1.5 डिग्री सेन्टिग्रेट और बढ़ जाएगा।

छत्तीसगढ़ भी जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अछूता नहीं रहेगा। मौसम वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2070 तक यहां औसत तापमान में 2.9 डिग्री सेन्टिग्रेट की वृद्धि होगी, वार्षिक वर्षा में लगभग 4.5 प्रतिशत की कमी होगी और फसल उत्पादन में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की जाएगी जो मानव तथा अन्य जीव प्रजातियों के अस्तित्व के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगा। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कृषि मौसम विज्ञान विभाग द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य में जलवायु परिवर्तन की समस्याएं चरम मौसम घटनाओं के लिए अनुकूलन और शमन रणनीतियां विषय पर आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी के दौरान मौसम वैज्ञानिकों द्वारा इस आशय के विचार व्यक्त किये गये तथा जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटने के गंभीर प्रयास करने पर जोर दिया गया। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल थे। विशिष्ट अतिथि के रूप में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्रबंध मण्डल सदस्य श्री आनंद मिश्रा, डॉ. एस.के. बल, परियोजना समन्वयक, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (कृषि मौसम विज्ञान), हैदराबाद तथा छत्तीसगढ़ में जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठ के नोडल अधिकारी श्री अरूण पाण्डेय भी उपस्थित थे।

कार्यशाला को संबोधित करते हुए कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें ऐसी प्रौद्योगिकी का विकास करना होगा जिससे जलवायु परिवर्तन का मानव जीवन तथा धरती के अस्तित्व पर अधिक प्रभाव ना पड़े। इसके लिए विभिन्न फसलों की ऐसी किस्मों का विकास करना होगा जो जलवायु परिवर्तन का सामना करने सक्षम हों। मिलेट्स अर्थात मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन से कम प्रभावित होते हैं, इनके उत्पादन को बढ़ावा देने होगा, जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा तथा ऐसी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित करना होगा जो कार्बन का कम उत्सर्जन करती है। उन्होंने कहा कि ग्लोबन वार्मिंग रोकने के लिए नीम, पीपल जैसे चौबीसों घंटे आॅक्सीजन देने वाले पौधों का रोपण करना होगा। इसी प्रकार प्लास्टिक वेस्ट मटेरियल का उपयोग सड़क निर्माण में किया जा सकता है। डॉ. एस.के. बल, परियोजना समन्वयक, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (कृषि मौसम विज्ञान), हैदराबाद ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा पिछले तीस वर्षां से काफी चर्चा में है। इन वर्षां में धरती के औसत तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। सूखा और गर्म हवाओं से फसलां की पैदावार प्रभावित हुई है तथा कार्बन डाईआॅक्साइड के उत्सर्जन में वृद्धि हुई है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1970 के पूर्व कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में वार्षिक वृद्धि की दर 1.32 पी.पी.एम. थी जो 1970 के बाद बढ़कर 3.4 पी.पी.एम. हो गई है।

इंदिरा कृषि विश्वविद्यालय प्रबंध मण्डल सदस्य श्री आनंद मिश्रा ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा मिलना है। उन्होंने कहा कि बिजली के आपूर्ति के लिए लगाए जाने वाले थर्मल पावर प्लान्ट जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। इन थर्मल पावर प्लान्ट में प्रति दिन हजारों टन कोयला और हजारो लीटर पानी लगता है। कोयला खनन के लिए प्रति वर्ष हजारो हेक्टेयर जंगल काट दिये जाते हैं तथा नदियों का लाखो लीटर जल उपयोग किया जाता है। श्री मिश्रा ने कहा कि उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते लाखों वर्षां में निर्मित प्राकृतिक संसाधनों का हम आज ही दोहन कर लेना चाहते हैं। हमें सोचना चाहिए कि हम आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़कर जाएंगे? छत्तीसगढ़ में जलवायु परिवर्तन प्रकोष्ठ के नोडल अधिकारी श्री अरूण पाण्डेय ने कहा कि जंगलों घटने से रोकने के लिए जंगलों की उत्पादकता बढ़ानी होगी। जंगलों में रहने वाले वनवासियों को जगरूक करना होगा तथा उनमें जंगलों के मालिक होने की भवना विकसित करनी होगी।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button