आस्था, विज्ञान, परम्परा और विश्वास का पर्व है दीपावली… खुश रहकर खुशियां पाने का त्योंहार

सनातन संस्कृति में दीपावली का पर्व उत्साह, उल्लास और खुशियों का त्योंहार है। महालक्ष्मी की पूजा के साथ मिठाईयों, दीपक का प्रकाश और पटाखों के शोर के बीच उत्साह दोगुना हो जाता है। परिवार के सभी लोगाें के लिए दीपावली के पर्व का अपना-अपना महत्व होता है।

सुरेश शर्मा भोपाल।

सनातन संस्कृति में दीपावली का पर्व उत्साह, उल्लास और खुशियों का त्योंहार है। महालक्ष्मी की पूजा के साथ मिठाईयों, दीपक का प्रकाश और पटाखों के शोर के बीच उत्साह दोगुना हो जाता है। परिवार के सभी लोगाें के लिए दीपावली के पर्व का अपना-अपना महत्व होता है। युवाओं में उत्साह रहता है कि नये कपड़े पहनने को मिलेंगे साथ में पटाखे फोड़कर आपसी प्रतिस्पर्धा को भी अंजाम दिया जा सकेगा। महिलाओं में इस समय घर को साफ करने से लगाकर सजाने संवारने उत्साह होता है साथ में रंगोली बनाने की होड़ दिखाई देती है। बुजुर्गों में एक दूसरे के साथ मिलने और पूजन के बाद परिवार की खुशहाली की कामना का आशीर्वाद देने की आत्म शान्ति रहती है। दीपावली का त्योंहार केवल सनातन आस्था भर का विषय नहीं है। यह सनातन के विज्ञान पक्ष को समझाने में भी बड़ा सहायक होता है। वैसे भी भारत के आजाद होने के बाद सनातन के उथले पक्ष को सामने रखकर उसे पीछे करने का प्रयास किया जाता रहा है। जबकि सही से इसे देखा जाये तो इसमें लिपी से लगाकर परम्पराओं में विज्ञान का ध्यान रखा गया है। स्वस्थ्य और आपसी तालमेल वाले जीवन को जीने की राह सनातन से दिखाई देती है। कदम दर कदम किस प्रकार का जीवन होना चाहिए इसको लेकर मनीषियों के सूत्र आज भी अनसुलझे से हैं। विदेशों में विज्ञान का वह पक्ष लिया है जो व्यवसायिक है। आयुद्ध से संबंधित हे। यदि भारत के सनातन की पुस्तकों को शोध के लिए सामने रखकर मंथन किया जाये तो वह सब मिल सकता है जिससे विश्व को शान्ति और विकास में बड़ी सहायता मिलेगा। दिवाली का पर्व खुशी की वह पराकाष्ठा देता है जिससे आने वाले समय में व्यक्ति अपने दैनदिनी कार्यों को पूरा करने में निरन्तरता से लगा रहता है। यह समृद्धि के पर्व के रूप में भी जाना जाता है।

हम दिवाली के विज्ञान पक्ष से अपनी बात की शुरूआत करते हैं। भारत के अधिकांश त्योहारों का निर्माण फसल के बाद का समय ध्यान में रखकर बनाया गया है। यह दो मौसमों का संधिकाल भी होता है। दिवाली देख लें या होली? सभी मौसम के संधिकाल के समय पर ही हैं। इसका वैज्ञानिक आधार है। त्योंहार की आड़ में हम अगले मौसम के लिए खुद को और आवास को तैयार कर लेते हैं। यदि दिवाली के वैज्ञानिक महत्व की बात करें तो यह वर्षाकाल के बाद का समय है। सर्दी का मौसम आने वाला होता है। वर्षाकाल में नमीं से भवनाें में शीलन आती है और उससे विभिन्न प्रकार के वैक्टेरिया पैदा होते हैं। बीमारियों का सीजन भी इससे निर्मित हो जाता है। सनातन के समाज मनीषियों ने वर्षाकाल के बाद दीपावली का पर्व रख दिया। इस पर्व की प्राथमिकता साफ-सफाई लिपाई पुताई और गरम कपड़ों को धूप दिखाने आदि की होती है। गोबर से लिपाई का मतलब ही वर्षा से उत्पन्न कीटाणुओं को समाप्त करने से होता रहा है। आज का रंगरौगन हालांकि गोबर की लिपाई से अधिक सहायक नहीं होता अपितु पर्यावरण को अधिक दूषित करने वाला होता है। इसलिए दीपक का महत्व तो होता ही है पटाखों का महत्व भी होता है। जब सफाई होती है तब तब जीवाणु मरते हैं और प्रदूषण होता है। दीपक से निकलने वाली लौ से वह प्रदूषण समाप्त होता है। इसकी निरन्तरता बनी रहे इसके लिए भगवान श्रीराम के आगमन के संयोग के साथ इसे जोड़ दिया गया। भारत एक धर्म परायण देश है। वह भगवान में आस्था रखता है इसलिए श्रीराम के अयोध्या लौटने से दीपोत्सव जोड़ा गया। जो समयाकूल भी है और पर्यावरण संरक्षण के लिए जरूरी भी। इस प्रकार दीपावली का विज्ञान पक्ष सामने आता है। इसी प्रकार की अन्य बातें भी इसके साथ जोड़ी जा सकती हैं। और विषयों पर शोध किया जा सकता है।

भगवान धन्वंतरी और खजांची भगवान कुबेर का जन्म भी इसी समय पर हुआ है। इसलिए आरोग्य के देवता का एक दिन इस समय रखा गया है। यह मौसम परिर्वतन के कारण आने वाली बीमारियों के संधारण का विचार देता है। आज के समय आयुर्वेद को गिराकर अंग्रेजी दवाओं का चलन तेजी से कर रखा है। जबकि अंग्रेजी दवाओं से होने वाले ईलाज से मरीज के पूर्ण स्वस्थ्य होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। ईलाज के बाद सपोट में प्रतिदिन दवा लेने का परखा लिखा जाता है जबकि आयुर्वेद में पूरे और पक्के ईलाज का दावा होता है और अनेकों प्रमाण भी इसके दिये जाते हैं। बाजार का दबाव और राजनीति की नासमझी ने आयुर्वेद का पीछे धकेला है। भगवान धन्वंतरी का प्रयोग दीपावली के साथ जोड़ा गया है और धनतेरस का त्योंहार इसका आधार बनाया गया। कुबेर और महालक्ष्मी का साथ देकर इस पर्व को अदभूत स्वरूप मनीषियों ने दिया है। दिवाली के इस पर्व पर बाजार का अपना महत्व बनाया गया था। भारत का बाजार दिवाली मुर्हुत के सौदों के लिए मसहूर हुआ करता था। लेकिन वीपी सिंह की सरकार ने आय-व्यय के वार्षिक तौर तरीकों को दीवाली से दीवाली के स्थान पर कलेन्डर के आधार पर कर दिया था जिससे बाजार का प्रभाव घट गया था। यह हो सकता है कि राजस्व के लिए सरकार का यह निर्णय उचित हो लेकिन सनातन मान्यताओं को प्रभािवत करने वाला जरूर रहा। हालांकि इस बदलाव काे बाजार ने आखिरकार स्वीकार कर लिया।

दीवाली पर महालक्ष्मी पूजन का विशेष महत्व रहता है। लक्ष्मी को केवल धन तक सीमित नहीं रखना चाहिए। वह तो सुख की देवी हैं। लक्ष्मी के साथ परिवार की खुशियां धन के माध्यम से जोड़ने का अपना कारण है। धन की देवी के रूप में लक्ष्मी का मानना एक विशेष प्रकार की आत्म शान्ति देता है। क्योंकि सभी खुशियां धन बाद ही आती हैं। भगवान को गृहस्थ तभी याद कर सकता है जब उसके साधन परिवार की सामान्य जरूरतों काे पूरा करते हों। लक्ष्मी जी का पूजन हमें यही प्रेरणा देता है कि हम जरूर के हिसाब से आय की व्यवस्था को प्राथमिकता के आधार पर देखें। लक्ष्मी होने पर किसी की सहायता की जा सकती है। दीपदान का मतलब हमें उजियारे के लिए काम करना चाहिए। यह त्योंहार बताता है कि जहां जियारा नहीं पहुंचा है वहां आपके प्रयास से उजियारा हो। पवित्रता और सुन्दरता का संयोग भी दीपावली से निकलता है।

दीपावली का पर्व आस्था से भरा हुआ है। सनातन की यह खूबसूरती है कि उसने अपने सभी व्यवस्थाओं को आस्था के साथ जोड़ा है। ईश्वर के साथ तालमेल दिखाया है। दिवाली का भगवान श्रीराम के साथ आस्था संगम करने का मतलब यह है कि पवित्रता बनी रहे। सीता मां का स्मरण यह बताता रहे कि विपदा में संयम और चरित्र की रक्षा कैसे की जा सकती है? संयम बहुत काम आता है इसलिए किसी भी स्थिति में संयम और धैर्य बनाये रखना चाहिए। समय के हिसाब से त्योंहारों में परम्पराओ को जोड़ा गया। इनका विस्तार समय-समय पर होता रहा। लेकिन विश्वास के कारण उनको स्वीकार किया गया। जब भी कोई नया करने का मन हुआ तब विश्वास के साथ उसे जोड़ लिया गया और वह आने वाले समय की परम्परा बन गई। यही दिवाली की महत्ता है। यहां खुशियों का विस्तार होता ही गया और आगे भी हो रहा है। दिवाली का पर्व अब केवल भारत की सीमाओं पर तक नहीं रहा है। इसका वैश्विक विस्तार हो रहा है। विश्व के अधिकांश देशों में दिवाली मनाई जाती है। कुछ इस्लामिक देशों में भी इसकी पहुंच हो चुकी है।

सभी वर्ग के लोगों के लिए दीपावली का पर्व आसानी से पहुंचे इसके लिए आसपास का ध्यान रखा जाता है। मीठाईयों का आदान प्रदान होता है। इससे प्रेम और भाईचारा बना रहे। दिवाली मिलन के आयोजन के साथ ही आसपास तो जाकर मिलने की मान्यता है। जिससे आपसी भाईचारा बनता हैत्र सौहार्द का वातावरण बनता है। अनेकों स्थानों पर तो धर्म की सीमाओं को तोड़कर यह पर्व मिलने जुलने की अनुमति देता है। रात की पूजा और पटाखों से खुशियों का प्रदर्शन भी इस त्योंहार की विशेषता है। विज्ञान इस पर धार्मिक कारणों से मीनमेख निकालने की बातें करने लग गया है। कानून का उसे संरक्षण मिल जाता है। जिससे परम्पराओं में रूकावट आती भी कई बार दिखाई देती है। लेकिन किसी भी प्रदर्शन का अतिरेक हमेशा नुकसानदायक रहता है। पटाखों में पर्यावरण का ध्यान रखने की बात जरूर ध्यान में रहना चाहिए। इसे भी मान्यताओं का हिस्सा बना लेना चाहिए। यह त्योंहार खुशियों का संवाहक पर्व है। इसलिए दीपावली को मनाते समय यह प्रयास होना चाहिए कि हम खुशियों में खलल तो नहीं डाल रहे हैं। यह खुश रहकर खुशियां पाने का पर्व है। उत्साह से इसे मनायें।

संवाद इंडिया
(लेखक हिन्दी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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