78वें स्वतंत्रता दिवस पर देश की राजनीति की खोज-परख…. नकारात्मकता और विश्वास में तगड़ी जंग

आजाद भारत की पहली सरकार। जिसे आम चुनाव से पहले बनाया गया था। पन्द्रह अगस्त 1947 में पन्द्रह मंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सरकार का संचालन संभाला तब उसमें तीन मंत्री ऐसे थे जो कांग्रेस के इतर संगठन के नेता थे। इन्होंने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया। पहला नाम था भीमराव अम्बेडकर विधि अैर न्याय मंत्री, दूसरे थे बलदेव सिंह जो रक्षामंत्री थे लेकिन पंथिक पार्टी से थे। तीसरे थे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जिन्हें उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया था वे हिन्दू महासभा के नेता थे। बाकी बारह लो कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में प्रथम सरकार में शामिल हुए थे। जब 1952 में पहले आम चुनाव हुए तब कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई।

सुरेश शर्मा।

आजाद भारत की पहली सरकार। जिसे आम चुनाव से पहले बनाया गया था। पन्द्रह अगस्त 1947 में पन्द्रह मंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सरकार का संचालन संभाला तब उसमें तीन मंत्री ऐसे थे जो कांग्रेस के इतर संगठन के नेता थे। इन्होंने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया। पहला नाम था भीमराव अम्बेडकर विधि अैर न्याय मंत्री, दूसरे थे बलदेव सिंह जो रक्षामंत्री थे लेकिन पंथिक पार्टी से थे। तीसरे थे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जिन्हें उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया गया था वे हिन्दू महासभा के नेता थे। बाकी बारह लो कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में प्रथम सरकार में शामिल हुए थे। जब 1952 में पहले आम चुनाव हुए तब कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई। अस्सी के दशक तक देश में विपक्ष भी खुद को सरकार जैसा ही मानता था और उसके नेता सरकार के साथ खड़े दिखते थे। विरोध का स्तर भी बहुत ऊंचा था। नरसिंह राव की सरकार के समय यूएन में सरकार का प्रतिनिधि मंडल विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गया था। यह भारतीय राजनीति का आदर्श समय था। उसके बाद सत्ता का बदलाव हुआ और सरकार में रहने की आदि कांग्रेस विपक्ष में आई। तब से विपक्ष के नेता की भूमिका और विपक्षी दलों की भूमिका में गिरावट आई। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर तो विपक्ष में जितनी नकारात्मकता आई है वह तो अपने आप में एक रिकार्ड है। पहली बार में गांधी परिवार ने उन्हें प्रधानमंत्री माना ही नहीं? ऐसा उनके व्यवहार और बयान से दिखाई देता था। लेकिन दूसरी बार में प्रधानमंत्री तो मान लिया गया लेकिन आलोचना के स्तर को उससे अिधक गिरा दिया। अब तो माशाल्लाह भगवान ही रक्षा करेे वाली स्थिति है। इतनी नकारात्मकता कि कुछ भी होता हुआ िदखना ही बंद हो गया।

नरेन्द्र माेदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर पंडित जवाहर लाल नेहरू के रिकार्ड की बराबरी की है। पंडित नेहरू के पास आजादी के आन्दोलन का कवच था जबकि नरेन्द्र मोदी के पास लोकिप्रियता और अपने काम के अलावा क्या है? जनता ने उनको पंसद किया और उनके कामों को सही दिशा में मानते हुए समर्थन दिया। 2024 के चुनाव के परिणाम भी मोदी की ताकत को बताने के लिए पर्याप्त हैं। पूरा चुनाव कड़ी नकारात्मकता के आधार पर लड़ा गया था। मोदी को बहुमत मिल गया तो वह संविधान बदल देगा? संविधान को बदलने का काम तो उसके लागू होने के एक साल के भीतर ही हो गया था। जो काम पंडित नेहरू संविधान सभा में नहीं करा पाये थे वे सब काम उन्होंने संसद में प्रस्ताव के माध्यम से करा दिये थे। भारत का संविधान पंथनिरपेक्ष हो या सापेक्ष इस पर तीन बार संविधान सभा में प्रस्ताव आये थे लेकिन प्रस्तावना में पंथ निरपेक्ष नहीं लिखा गया। इंदिरा जी ने विवादित काल में यह प्रस्तावना बदली और पंथ निरपेक्ष देश बना दिया। जबकि भारत में धर्म सापेक्ष वातावरण रहा है। यहां राम, नानक और बुद्ध ने संदेश दिये हैं। इसलिए भारत धर्म सापेक्ष देश है। यहां कानून इतना सक्षम होने के बाद भी राम मंदिर निर्माण के समय श्रीरामलला का एक पक्ष माना गया। मतलब भारत धर्म सापेक्ष देश है। लेकिन नकारात्मक राजनीति ने राम को भी चुनाव में हरा दिया ऐसा कहने का साहस कर लिया। आरक्षण खत्म कर दिया जायेगा ऐसी नकारात्मकता जगाई गई। इससे वोट तो मिल सकते हैं लेकिन विश्वास संभालने की स्थिति नहीं बनती है। आज विपक्षी नेताओं के सामने यह संकट है कि वे जनता को कैसे समझायेंगे कि आरक्षण को लेकर सरकार का मत तो सहयोग का है। संविधान को और ताकतवर बनाने की बात हो रही है।

वक्फ कानून को सुधारने के लिए लाया गया बिल साफ बताता है कि कांग्रेस की सरकार के समय कानून वोट के आधार को ध्यान में रखकर बनाये जाते थे? देश का और कौन सा बोर्ड है जिसके निर्णय को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती? फिर वक्फ के माध्यम से मुस्लिम समाज के इस बोर्ड को क्यों दी गई? वह भी मनमोहन सिंह की सरकार के समय जब मिलीजुली सरकार थी और सोिनया गांधी परदे के पीछे से उसे चला रही थीं। समान नागरिक संहिता की बात को स्वीकार करने में क्या परेशानी है जब देश में समानता की बात है? लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के अनेकों बार के आदेश की अनदेखी की गई और देश में अल्पसंख्यक की आड़ लेकर बड़े-बड़े काम कर लिये गये। पहले अल्पसंख्यकों की शिक्षण संस्थाओं में अपने लोगों को नौकरी में दिखाया गया फिर सरकार ने उनका अधिगृहण करके उन बदों को सरकारी नौकरी दे दी। उन्हें स्थानान्तरित करके अच्छी जगह पर काम दे दिया गया। लेकिन देश को समान नहीं होने दिया गया।

देश की राजनीति में नकारात्मकता का भाव केवल कांग्रेस की धरोहर है ऐसा नहीं है? जहां विपक्ष में भाजपा है वहां भी विरोध की आड़ में कमिंया हीब ताई जाती हैं। गलती निकालकर सरकार को सचेत करने का काम तो विपक्ष के हिस्से ही आया है लेकिन कमियां प्रदर्शित करके विकास कार्यों के प्रति अविश्वास पैदा करना विपक्षी का नकारात्मक सोच है। देश ने पहले भी विकास का काम किया है। लेकिन मोदीकाल में जिस प्रकार का विकास हुआ है उसने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम किया है। देश में उत्पादन बढ़ा है। निर्माण क्षेत्र में देश ने बड़ी छलांग लगाई है। निर्यात बढ़ने लगा है। देश की सुरक्षा के मामले में भारत आत्म निर्भर होता जा रहा है। एक समय था जब सुरक्षा उपकरण खरीदने का मतलब ही भ्रष्टाचार होता था। लेकिन राफेल खरीदी की फाइल सर्वोच्च न्यायालय ने साफ सुथरी वापस आई तो देश को गर्व हुआ। ऐसा यदि पहले के कार्यकाल में हो जाता तो देश को भारी बदनामी से रूबरू होना होता।

अब तो सरकारों को काम करने की बड़ी जोखिम उठाना पड़ रही है। उन्हें प्रतिपस्पर्धा को पार करना होता है। उन्हें विपक्ष की नकारात्मकता का तोड़ भी निकालना पड़ता हे। महंगाई की बात होती है लेकिन अर्थव्यवस्था को साथ में नहीं देखा जाता है। जब भी अर्थव्यवस्था ताकतवर होगी अनुपात में महंगाई बढ़ेगी ही। महंगाई घातक तब होती है जब क्रय शक्ति नहीं होती? देश में प्रति व्यक्ति ने लगातार बढ़ातरी की है। रोजगार के अवसरों को विपक्ष नौकरियों से जोड़कर भ्रम पैदा करता है जबकि देश के युवाओं ने रोजगार में स्वरोजगार को शामिल कर लिया है। निर्माण कार्य तेजी हैं। भारत में उत्पादन बढ़ रहा है। सड़कों के कारण वाहन तेजी से उठ रहे हैं। लोगों को रोजगार की शिकायत नेताओं की अपेक्षा कम है। जिनको सरकारी नौकरी करना है और जो लोग निजी क्षेत्र में रोजगार से बचना चाहते हैं ऐसे ही लोग बेरोजगार खुद को दिखा कर विपक्ष का सहारा बन रहे हैं। ऐसे में विपक्ष केवल नकारात्मकता ही पैदा करने का प्रयास कर रहा है। भ्रष्टाचार में कमी आने के दावे हालांकि सरकार की ओर से किये जा रहे हैं उसमें दम भ्ाी है लेकिन जब तक भ्रष्टाचार से आम आदमी का रूबरू होना बंद नहीं होगा तब तक भ्रष्टाचार पर सरकार के दावे को माना नहीं जा सकता है।

अब हम आजादी के 78वें वर्ष में चल रहे हैं। लोकतंत्र ताकतवर और समझदार हो चला है। इसके बाद भी निजी हितों को लेकर आज भी पुरानी स्थिति ही है। आरक्षण के भंवरजाल से लोग निकलना नहीं चाहते हैं। कारण साफ है कि मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन वाली बात किसे बुरी लगती है। इसलिए अब सत्ता प्राप्त करने के लिए मुफ्त देने की होड़ मची है। यह न तो देश के हित में है और न अर्थव्यवस्था के हित में ही है। मुफ्त में बिजली और पानी देना जितना गलत है उतना ही गैस सिलेंडर देना भी है। महिलाओं को बहना बोलकर उन्हें हजार बारह सौ देना भी वैसा ही है। खटाखट देने की बात भी उतनी ही घातक है। जब देश अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। जब देश का लोकतंत्र चुनाव के परिणाम के बाद चर्चाओं में है। हमें तय करना है िक विकास का विश्वास को कड़ स्पर्धा नकारात्मकता दे रहा है। सरकारों के सामने दोहरी समस्या है। उसे विकास के लिए जनमानस तैयार करना है और विपक्ष की नकारात्मकता को भी समस्या बनने से रोकना है। ऐसे में विश्वास को कड़ी चुनौती मिल रही है। यही चुनौती इस समय के आम चुनाव में दिखाई दी है। स्वतंत्रता दिवस हमें इस नकारात्मकता से लड़ने की शक्ति प्रदान करने वाला है इसकी हमें उम्मीद है। संवाद इंडिया

(लेखक हिंदी पत्रकारिता फाउंडेशन के चयेरमैन हैं)

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