5 राज्यों के चुनाव और 3 बड़ी चिंताएं
नई दिल्ली ( विशेष प्रतिनिधि )। पश्चिमी बंगाल सहित 5 विधानसभा के आम चुनाव के परिणाम आने के बाद जब समीक्षक मंथन कर रहे हैं तो तीन बड़ी चिंताएं सामने आकर खड़ी हुई दिखाई दे रही है। यह तीनों चिंताएं देश के सामने आने वाले भयावह दृश्य को प्रस्तुत कर रही हैं। इन चिंताओं पर समय रहते यदि विचार नहीं किया गया तो देश के विभाजन का खतरा भी उत्पन्न हो सकता है। हालांकि अधिकांश लोग इसकी संभावना से इंकार कर सकते हैं फिर भी यह बड़ा खतरा सामने मुंह बाहे खड़ा है।
सबसे बड़ी और भयावह चिंता मुस्लिम वोट बैंक को लेकर है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा कि मुस्लिम समाज एक साथ, एक भावना से वोट करता है। ऐसा उसे और अन्य समुदायों को भी करने का अधिकार है और यह संविधान विरोधी नहीं माना जा सकता। इसमें चिंता की बात यह है कि मुस्लिम समुदाय का वोट भाजपा के विरुद्ध उसी प्रत्याशी को जाता है जो भाजपा को हराने की ताकत रखता है। यह कट्टरपंथी विचार भारत की लोकतांत्रिक और सहिष्णुतावादी संस्कृति के विरुद्ध है। आज देश का बहुसंख्यक समाज इस प्रकार से कट्टरवादी होकर मतदान नहीं करता जिस प्रकार से मुस्लिम समाज करता है। बंगाल और केरल के विधानसभा चुनाव में इसका जो रूप देखने में आया है वह आजादी के समय विभाजनवादी मानसिकता को प्रमाणित करता हुआ दिख रहा है। यह गंभीर चिंता आने वाले समय का संकट कैसा होगा इसे रेखांकित कर रही है।
दूसरी गंभीर चिंताओं में से एक क्षेत्रीयवाद की मानसिकता से ग्रसित राजनीतिक दलों के सत्तासीन होने का फिर से सिलसिला शुरू हो गया। 5 विधानसभाओं में से 4 में क्षेत्रीय दलों को सत्ता की कमान मिली है। तमिलनाडु में डीएमके, बंगाल में टीएमसी, पांडिचेरी और केरल में भी क्षेत्रीय मानसिकता के हिसाब से सत्ता की चाबी जनता ने सौंपी है। केवल असम विधानसभा में राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी को सत्ता प्राप्त हुई है। देश के राजनीतिक समीकरण में वर्षों से क्षेत्रीयता पर विचार हुआ है। राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस और भाजपा को राज्यों में सत्ता प्राप्त करने के लिए खासा संघर्ष करना पड़ा है। विशेषकर उन राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलों का अपना वर्चस्व है। इस पर आने वाला समय गहन चिंतन की अपेक्षा रखता है।
चुनाव के बाद बंगाल में हो रही हिंसा तथा इससे पहले हुई चुनावी हिंसा ने राजनीतिक समीक्षकों की आंखें खोल दी है। बंगाल में 3 दशक से अधिक का राजनीतिक इतिहास हिंसा से सत्ता प्राप्ति की ओर कदम दर कदम बढ़ता हुआ दिखाई देता है। अब तो वहां चुनाव के बाद बदले की भावना से हिंसा और मौत, चुनावी वातावरण के हिंसक होने की कहानी कह रहे हैं। इस पर राजनीतिक दलों, ब्यूरोक्रेसी और न्यायपालिका को संयुक्त रूप से चिंतन करना होगा अन्यथा चुनाव और चुनाव के बाद की हिंसा आने वाले राजनैतिक वातावरण को दूषित कर सकती है। एक राजनीतिक दल या नेता के प्रति विद्वेष या प्रतिस्पर्धा हिंसा और बदले की हिंसा को जायज नहीं ठहरा सकती।
इन तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं के कारण खतरे की घंटी को अभी से सुनने और इसकी भयावहता को समझने की जरूरत है। यह चेतावनी भारत की संप्रभुता के लिए भी आने वाले समय में खतरा हो सकती है। इसलिए संजीदा रूप में इस पर चिंतन करने की जरूरत महसूस की जाना चाहिए।