हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी क्या है?
कोरोना ऐसी महामारी के रूप में दूसरी बार सामने आया है जब सबकुछ बौना दिखाई दे रहा है। संक्रमण की गति खासी तीव्र है जिसके कारण व्यवस्थाएं छोटी होना स्वभाविक है। अस्पतालों की ओर लोगों का प्रवाह तेज है जिससे न तो बेड मिल रहे हैं और पहले से भर्ती मरीजों को आक्सीजन भी नहीं मिल पा रही है। जान जाने का सबसे बड़ा कारण आक्सीजन और दवा का पर्याप्त और समय पर न मिल पाना है। इससे यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि मौते कोरोना से अधिक हो रही हैं या व्यवस्थाओं के अभाव में अधिक हो रही हैं। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि 72 प्रतिशत के आसपास मरीज घरों में डाक्टरीय उपचार से ही ठीक हो जा रहे हैं। मरने वालों का प्रतिशत तुलनात्मक कम है। हालांकि कम होने का कारण यह है कि पिछली और इस बार में संक्रमितों का आंकड़ा अधिक है। फिर भी यदि मरने वालों का आंकड़ा कम है तो यह संतोष की बात है। स्वास्थ्य सेवाएं राज्यों का विषय है फिर भी केन्द्र सरकार इससे पल्लु नहीं झाड़ सकती है। मरने वाला या ईलाज के अभाव का सामना करने वाला भारत का ही नागरिक है इसलिए सरकारों के रूप में इस महामारी का विभाजन नहीं किया जा सकता है।
सरकारों के हाथ-पांव फूले हुये हैं। उनके सामने साख बचाने और जान बचाने के बीच सन्तुलन बनाने की प्राथमिकता है। सरकार काम करती हुई भी दिखना चाहिए और मरीजों का राहत मिलना भी जरूरी है। लेकिन आम आंकलन यह है कि देश की अधिकांश राज्य सरकारें अपने इस दायित्वों का पालन करने में सफलता का यश नहीं ले सकती हैं। इसलिए राजनीति होना स्वभाविक हो जाता है। केन्द्र में भाजपा की सरकार है। जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं उनकी सफलता और असफलता की ठीकरा केन्द्र की मोदी सरकार के सिर जाकर फूटता है। इसमें राज्यों के मुख्यमंत्रियों के कार्य का आंकलन भी शामिल किया जाता है। अभी किसी भी राज्य को अच्छे नम्बर नहीं दिये जा सकते हैं। नम्बर कम होने का आधार दवाओं का सही से प्रबंधन न कर पाना और आक्सीजन की उपलब्धता को बनाये नहीं रखना है। एक विषय हर बार समीक्षा से छूट जाता है वह है अधिकारियों की भूमिका, उनका आंकलन और व्यवस्थाओं का संपादन। क्या मोटा वेतन पाने वाले अधिकारी सलीके का आंकलन नहीं कर पाते हैं तब राजनीतिक नेतृत्व की आलोचना करने के साथ इन अधिकारियों के काम का लेखा-जोखा भी देखना चाहिए। न तो मीडिया की नजर इन पर जाती है और न ही समीक्षक लेखकों की। राजनीति पर लिखने से प्रतिक्रिया तत्काल मिलती है इसलिए लेखकों का प्रिय विषय राजनीतिक नेताओं पर टिप्पणी बनता जा रहा है। पांच साल में जनादेश लेने वालों को सबसे अधिक निशाने पर रखा जाता है जबकि जिन्हें वास्तव में व्यवस्था चलाना है और जनादेश से जिनका टकराव होता है उन अधिकारियों के बारे में समीक्षा करने का सिलसिला शुरू नहीं हुआ है। जो होना चाहिए।
जब आपदा होती है तब लोगों में स्वभाविक घबराहट होती है। उससे अव्यवस्थाओं का जन्म होता है। मीडिया और विपक्षी दल इस अव्यवस्था को संभाल भी सकते हैं, उसको संभालने में मदद भी कर सकते हैं और उसको हवा भी दे सकते हैं। कोरोना महामारी के पिछले क्रम में जब आपदा ने अपना रूप बढ़ाया तब मीडिया की ओर से सहयोग दिया गया। विपक्षी नेताओं की बातों को अधिक भाव न देकर उन्हें आलोचना का आइना दिखाकर थामने का प्रयास किया था। लेकिन इस बार ठीक उसी प्रकार की पत्रकारिता की जा रही है जो ताज होटल में हुये आतंकी हमले के वक्त की थी। जिससे लाइव देखकर आतंकवादियों ने योजना का अंजाम दिया था। इस बार की महामारी में जो दूसरे चरण में है में मौतों को लाइव दिखा कर, लाशों के आंकड़े सरकार छुपा रही है और उसका सच सामने लाकर खौफ पैदा कर दिया। जिससे भयभीत परिजन मरीज को अस्पताल में लेकर पहुंच रहे हैं। जो काम घर के ईलाज से चल सकता था उसका दबाव अस्पतालों को सहना पड़ रहा है। व्यवस्थाएं पहले से ही चरमराई हुई थीं ही और प्रभावित होकर विकाराल रूप में आ गईं। कई नेताओं को आकर कहना पड़ा कि घर में ईलाज की संभावना वाले घर में ही रहें। अब जाकर आक्सीजन की विदेशों से व्यवस्था करना पड़ रही है युद्ध स्तर पर व्यवस्थाएं करना पड़ रही हैं। यह मीडिया और विपक्ष का पैदा किया हुआ खौफ है।
इसका मतलब सरकार को क्लीनचिट देना नहीं है। सरकार को काम करने देने के लिए समस्या को सामने रखना और उसकी भयावहता बताकर डर पैदा करना दो बातें अलग-अलग हैं। विपक्षी दलों की गैर जिम्मेदाराना हरकतें और मीडिया की जल्दबाजी से देश को नुकशान हुआ है। आंकलन करने वाले यह भी आकंलन कर रहे हैं कि विपक्ष और मीडिया सक्रिय नहीं होता तो सरकारें के कान की जूं नहीं रेंगती और लोगों के प्राण नहीं बचाये जा सकते थे। यह भी एक तर्क हो सकता है लेकिन जितना भयावह दृश्य दिखाने का प्रयास किया गया उसकी कोई जरूरत नहीं थी। एक दिन दिखाकर भी सरकार को आगाह किया जा सकता था। लेकिन मुहिम में आगे निकलने की होड़ ने मीडिया का मानस बदलवा दिया। जनसरोकार की मीडिया अवधारणा ध्वस्त हो गई। विपक्षी नेताओं की काल्पनीक बातों को इससे हवा मिली और देश में भगदड़ मच गई। जिससे कमजोर व्यवस्था और चरमरा गई।
जब पहली वेव आई थी तक नरेन्द्र मोदी ने पूरा प्रबंधन प्रधानमंत्री के रूप में देखा और राज्य कर सरकारों ने मिलकर व खुलकर साथ दिया। तब व्यवस्था को जल्द संभाल लिया गया था। तब राहुल गांधी ने कहा था कि उपलब्धि राज्यों की है और केन्द्र सरकार उसे भुनाने में लगी है। अब राज्य सरकारें नियंत्रण कर रही है तब उनकी इस असफलता को केन्द्र सरकार के खाते में नहीं डाला जा सकता है। लेकिन इससे बचाया कैसे जाये इसका भी कोई तरीका नहीं है। राज्यों के संसाधन कमजोर हैं। केन्द्र की सहायता के बिना व्यवस्था संभालना संभव नहीं है। इसलिए अव्यवस्था का तांडव केन्द्र व राज्य सरकार के नियंत्रण की कमी और मोटी तन्खा लेने वाले अधिकारियों की अदूर्शिता का परिणाम है। जिसमें आमजन को अपनी जान का जोखिम उठाकर भुगतना पड़ा हे। न्यायपालिका ने चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा चलाने की बात कह कर संविधान का कितना पालन किया है यह तो वे जाने लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि वेतनभोगी अधिकारियों के कारण लोगों के प्राण चले जायें और कोई जवाबदारी तय न हो ऐसा कैसे हो सकता है। इसलिए सभी को अपने राष्ट्रीय जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए। फिर चाहे वह मीडिया हो, राजनीतिक दल और अधिकारी। संवाद इंडिया