सोनिया, प्रियंका का चुनाव न लड़ना राहुल का सीट बदलना…. राजनीति से गांधी परिवार का मोहभंग?

पांच- छह दशक तक भारत की राजनीति में अपना एकाधिकार रखने वाला गांधी परिवार अब लगता है राजनीति में धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है या फिर उसका मोहभंग होता जा रहा है। इस परिवार को चुनौती कई बार मिली लेकिन उभर कर आता रहा है। लेकिन नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की चुनौती ने गांधी परिवार को कमजोर कर दिया और जनता में उसका प्रभाव कम होने के कारण उसका वापसी जैसा चमत्कार नहीं हो पा रहा है। आजादी के आन्दोलन में भूमिका का ज्वार उतर रहा है। न तो दल में उस प्रभाव के लोग बचे हैं और न ही वे लोग ही अब बचे हैं जिन्होंने गुलामीकाल देखा था। गुलामीकाल को जिंदा रखने के प्रयास भी खत्म हो चुके हैं। वे नाम और काम गायब होते जा रहे हैं।

 

सुरेश शर्मा। पांच- छह दशक तक भारत की राजनीति में अपना एकाधिकार रखने वाला गांधी परिवार अब लगता है राजनीति में धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है या फिर उसका मोहभंग होता जा रहा है। इस परिवार को चुनौती कई बार मिली लेकिन उभर कर आता रहा है। लेकिन नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की चुनौती ने गांधी परिवार को कमजोर कर दिया और जनता में उसका प्रभाव कम होने के कारण उसका वापसी जैसा चमत्कार नहीं हो पा रहा है। आजादी के आन्दोलन में भूमिका का ज्वार उतर रहा है। न तो दल में उस प्रभाव के लोग बचे हैं और न ही वे लोग ही अब बचे हैं जिन्होंने गुलामीकाल देखा था। गुलामीकाल को जिंदा रखने के प्रयास भी खत्म हो चुके हैं। वे नाम और काम गायब होते जा रहे हैं। भारत निर्माण के प्रभाव का श्रेय भी लेने जैसा नेतृत्व कांग्रेस में नहीं बचा है जो जनता के अन्दर उस भाव को जिंदा रख पाये। जनता में कमजोर होते प्रभाव का असर यह भी हुआ है कि गांधी परिवार के नेता चुनाव हारने जैसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। परिवार के नये लोग या समूचा दल भारत के बारे में क्या सोचता है और किस प्रकार के भारत का निर्माण चाहता है उसका कोई मानचित्र देश के सामने प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है। कांग्रेस की अपनी विचारधारा की कुंद हो चली है। इससे भी देश में उसके लिए समर्थन कम हुआ है। दूसरी तरफ जनसंघ और भाजपा का पक्ष इस समय मजबूत दिखाई देता है। भाजपा का नेतृत्व अपनी विचारधारा के साथ देश को कनेक्ट कर पा रहा है। उसका नेतृत्व किस प्रकार का भारत बनाना चाहता है वह भी देश के सामने पेश कर पा रहा है और सरकार मे रहते हुए उसका प्रतिफल क्या हो सकता है वह भी देश के सामने उदाहरण के रूप में रख दिया। इसने भी गांधी परिवार के प्रति लोगों के आकर्षण को कम किया है। इसीलिए गांधी परिवार चुनावी राजनीति से पीछे हटता दिखाई दे रहा है।

दशकों से देश की राजनीति पर एकाधिकार रखने वाला गांधी इस दौर में सबसे कमजोर घराना दिखाई दे रहा है। सोिनया गांधी के कालखंड में भी कांग्रेस ने सरकार बनाने का दम रखा। राहुल गांधी के समय के आते ही कांग्रेस देश के बाद राज्यों में भी सत्ता से अलग होती गई। अब राहुल का साथ देने के लिए प्रियंका आईं तब भी कोई दम दिखाई नहीं दिया। उनके दिये अनकों नारे तो चर्चित हुए लेकिन उनको जनसमर्थन नहीं मिला। चल रहे चुनाव में कांग्रेस ने राहुल गांधी को पीछे करके पि्रयंका को सामने लाने का प्रयास शुरू किया है। पि्रयंका में इंदिरा का अक्स दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इंदिरा गांधी जैसे निर्णय और आयरन लेडी वाले गुण कहां से लाये जायेंगे? अब मुकाबला मोदी से है जिसके पास विजन है और विजन देने वाली टीम है। कांग्रेस के पास विभाजनकारी मानसिकता वाले नेताओं का कवर है जिससे वी राष्ट्रवाद का मुकाबला करने की मंशा पाले हैं। पि्रयंका वाड्रा की लांचिंग राहुल जैसी न हो इसके प्रबंध किये जा रहे हैं। वैसे इस परिवार को लांच करना पड़े यह अपने आप में सवाल भी है और समस्या भी।

कांग्रेस विचारधारा के तौर पर कमजोर और भ्रमित हुई है। वह मुसलमानों को ओबीसी वाला आरक्षण देती है लेकिन जातिवादी जनगणना में उसे शामिल नहीं करती है? उसका लाभ राष्ट्रवादी और सनातन प्रभाव वाली भाजपा उठा लेती है। राम मंदिर निर्माण में अडंगे और राम को काल्पनिक बताने वाले घटनाक्रम के बीच प्राण प्रतिष्ठा का न्योता ठुकराने जैसा काम करके कांग्रेस अपनी पुरानी मानसिकता को आज के दौर में भी प्रकट कर दे रही है। इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा यह बताने वाले अब उनके साथ नहीं हैं। न जाना और न्योता अस्वीकार करने वाले निर्णयों का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है। पंडित नेहरू ने हिन्दू विचार को पीछे किया और अनेक कानूनों के शिकंजे में हिन्दू उत्थान को बांध दिया लेकिन विकास के विजन के आगे उनकी चर्चा नहीं हो पाई? करने वाले नेहरू के प्रति अविश्वास पैदा नहीं कर पाये। इसलिए कोई शक्ति पनप ही नहीं पाई। इंदिरा गांधी ने देश की मानसिकता को बदलने वाले संविधान संशोधन कर दिये। आपातकाल लगा दिया इसके बाद भी विरोधी हवा को अढ़ाई साल में ही समाप्त करके फिर से सत्ता में आ गईं। कारण साफ था कि उनके दो प्रकार के कामों में से सकारात्मक काम को जनता ने स्वीकार किया और वे वापस सत्ता में आईं।

राजीव गांधी के सत्ता काल के बाद जब कमान सोनिया गांधी ने कांग्रेस की राजनीतिक कमान संभाली तब तक कांग्रेस की विचारधारा दिखाने के लिए हिन्दू थी लेकिन परदे के पीछे तुष्टीकरण था, उसे बदल कर अपना एजेंडा लागू कर दिया। रामसेतु राम जी ने नहीं बनाया और राम काल्पनिक पात्र थे ऐसा शपथ पत्र देकर कांग्रेस की हिन्दू विरोधी राजनीति से परदा उठा दिया। मिशनरी समर्थन और मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति ने सोिनया गांधी के मिशन को उजाकर कर दिया। कांग्रेस का शेष नेतृत्व इस पर परदा नहीं संभाल पाया। इन्हीं कारणों से भाजपा की शक्ति का विस्तार हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी की गगनचुंबी सोच और लालकृष्ण आडवाणी का जन जागरण का सामर्थ्य ने भाजपा के प्रति सोचने को विवश कियाद्ध देश में भर में उसकी शक्ति बनने लगी। नरेन्द्र मोदी ने इस शक्ति का संचय करके वोट बैंक बनाने का आधार दिया। लेकिन यह वेट बैंक किसी तुष्टीकरण के आधार पर नहीं बना। किसी टिट फाॅर टेट की मानसिकता से भी नहीं बना। यह तो विचार के प्रति आकर्षण था। नेहरू जी, इंदिरा जी और नरसिंह राव के कार्यकाल में हिन्दू हितों के विरूद्ध बनाने गये कानूनों का प्रतिवाद करने की शक्ति ने भाजपा को ताकतवर किया है। संघ का वर्षों का प्रयास और भाजपा के नेताओं का समपर्ण ताकत का आधार बना। यह आधार कांग्रेस के लिए विषम परिस्थितियां पैदा करने का आधार बन गया।

हाल में प्रियंका वाड्रा ने यह कह कर हिम्मत दिखाई कि मोदी को देश ने चुना है और वे अच्छा काम कर रहे हैं इसीलिए उन्हें अवसर मिल रहा है। इससे कांग्रेस में सुधार की संभावना पनपती है। लेकिन उसके लिए विचारधारा और देश को किस प्रकार का देखने का सपना है यह सब भी एक साथ प्रस्तुत करना होगा अन्यथा इस प्रकार के प्रयास का कोई असर नहीं होगा। जब पि्रयंका ऐसा कह रही होती है तब गांधी परिवार चुनाव से दूरियां बनता हुआ भी दिखाई देता है। अमेठी से पिछला चुनाव हारने के बाद वहां से चुनाव लड़ने की हिम्मत गांधी परिवार नहीं जुटा पाया। राहुल के िलए मां ने रायबरेली छोड़ दिया और खुद राज्यसभा चलीं गईं। मतलब यही तो हुआ कि सोनिया गांधी भी चुनावी राजनीति से किनारा कर गईं। वे उम्रदराज हो गईं इस कारण यह निर्णय लिया गया होगा लेकिन देश को ऐसा समझाने में कांग्रेस नेतृत्व का सफल न हो पलायन के रूप में देखा जा रहा है। राहुल गांधी को अमेठी और प्रियंका को रायबरेली दे दिया जाता तब भी सोिनया के हटने का गलत संदेश नहीं जाता। लेकिन वायनाड़ से जीत के बाद रायबरेली खाली कराकर पि्रयंका का संसदीय क्षेत्र में प्रवेश दिलाना सकारात्मक संदेश नहीं दे पा रहा है। कांग्रेस औा खासकर गांधी परिवार के प्रति नेरेटिव पक्ष में नहीं बन रहा है। यही धारणा बलवती हो रही है कि गांधी परिवार अब जनता के बीच जाने में घबरा रहा है। वह चुनावी राजनीति से दूरी बना रहा है।

यही कारण है कि चुनाव में कांग्रेस की ओर से ऐसे मुद्दे उठाये जा रहे हैं जिनसे भावनात्मक उभार आये लेकिन आ कितना रहा है यह कांग्रेस भी समझ रही है और देश भी। अपना बेटा रायबरेली को सौंप रही हूं। यह भावनात्मक अपील देश भर में गूंज रही है। लेकिन रायबरेली और अमेठी ने अपनी लगाम गांधी परिवार को सौंपी थी उसके बदले में उसे क्या मिला? जो इस भावनात्मक अपील के साथ वोटों का झुंड ईवीएम में घुस जायेगा? गांधी परिवार अपनी विचारधारा को समझने वालों से इतर लोगों की घेरेबंदी में आ चुका है। उसके प्रभावशाली देश की भावना को समझ पाने में असफल हैं या समझने के बाद भी हवा के विपरीत बयान दे रहे हैं। शत्रु देशों का समर्थन करते दिख रहे हें। जिस देश से क्रिकेट खलते समय विरोध दिखाई देता है वहां के परमाणु का डर दिखाने का प्रयास होता है। इसलिए गांधी परिवार इसको संभालने की बजाए वह खुद की दूर होता दिख रहा है?

संवाद इंडिया

(लेखक हिंदी पत्रकारिता फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)

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