‘सोनिया’ ने किराया देने की कही सड़कों पर आ गये ‘मजदूर’

सुरेश शर्मा

भोपाल। कई बार राजनीति विरोधाभाषों से भरी हुई दिखाई देती है। कई बार विपक्ष सरकार को घेरने की सफल राजनीति करता है। कई बार वह इतना क्रुर भी हो जाता है कि लोगों की परवाह उसे भी नहीं रहती है। जो भी राजनीतिक दल सरकार में रह चुका है उसे सत्ता की मर्यादा और विवशता का पता होता है। उसे यह भी पता होता है कि जब वह विपक्ष में रहता है तब उसके पास बोलने के लिए पूरा आसमान रहता है, वह उसे गुंजायमान कर सकता है। लेकिन जब वही दल सरकार में आता है तब उसके हाथ भी कानून से बंध जाते हैं। कर्जमाफी के मामले में कांग्रेस की घोषणा अलग थी और क्रियान्वयन अलग। लेकिन जब विश्व एक भयानक महामारी से जूझ रहा हो उस समय मौत का तावंड देखने के भय को त्यागकर सरकार को बदनाम करने की इस प्रकार की राजनीति करना कितना जन हितैषी और राष्ट्र हितैषी हो सकता है इस पर विचार करने की जरूरत तो है ही। कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने घोषणा की थी कि मजदूरों को उनके घर पहुंचाने का किराया कांग्रेस देगी। अभी तक एक हजार के आसपास ट्रेनों का आवागमन हो गया है लेकिन कांग्रेस की अंटी ढ़ीली नहीं हुई है। और तो और कांग्रेस शासित राज्यों और जहां कांग्रेस सरकारों को समर्थन कर रही है वहां ट्रेन बुलाकर ही मजदूरों को लाने की गति नहीं बढ़ी है। विरोधी दलों की सरकारों की ये बातें ही इन दिनों राजनीति के क्रुर पक्ष को उजागर कर रही हैं?

मजदूरों की राजनीति के चार प्रमुख हॉटस्पाट हैं। पहला शुरू हुआ दिल्ली से। केजरीवाल जिन गरीबों के वोटों से भारी भरकम समर्थन पाकर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुये कोरोना महामारी के समय उन्हीं मतदाताओं को प्रदेश निकाला दे दिया। बार्डर तक भगदड़ मच गई। मीडिया ने खूब कहा। कांग्रेस के समर्थन से शिवसेना की उद्धव सरकार ने अपने यहां से मजदूरों को चलता कर दिया। उत्तर भारत के मजदूरों के प्रति उनकी राजनीति से कौन वाकिफ नहीं है? फिर भी देश ने वह राजनीति देखी जिसकी कल्पना से सिरहन पैदा होती है। क्या देश में कई देश हैं? इसी बात को और सार्थक करती हुईं बंगाल सरकार दिखी। ममता जी का यह बयान की कोरोना का हव्वा ध्यान बांटने का प्रयास है। अपने राज्य के मजदूरों को वापस लेने में देरी का मतलब सड़कों पर भीड़ दिखने लग गई। सोनिया गांधी ने किराया देने की बात करके जिस राजनीति को जन्म देने का प्रयास किया था वह विपक्षी दलों की सरकारों ने बड़ा करने की संजीविनी दे दी। ऐसा नहीं है कि केवल विपक्षी दल ही इस प्रकार की राजनीति का केन्द्र बने। गुजरात की भाजपा सरकार भी अपने मजदूरों की भगदड़ा रोक नहीं पाई। जबकि अन्य भाजपाई सरकारों ने मानवता की रक्षा करने का प्रयास किया है।

क्रुर राजनीति का चेहरा इससे भी दिखाई देता है कि यूपी ने अपने मजदूरों के लिए 487 और बिहार ने अपने मजदूरों के लिए 254 टे्रन अपने राज्य में बुलवाई। लेकिन ममता जी ने 9 और छत्तीसगढ़ ने 10 ट्रेन ही बुलवाई। झारखंड ने 48 और राजस्थान ने 22। खैर! राजनीति का अन्तिम परिणाम जनता देती है। उसका काम उसी पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन यह तो जो हो गया अब आगे सभी राजनीतिक दलों को इस बात पर विचार करना कि जिस राज्यों से मजदूर पलायन करने आये वहां पूर्ति कैसे होगी और जहां वापसी हो गई वहां उन्हें काम कैसे मिलेगा? हो सकता है ऐसा सोचने से ही पाप का प्रायश्चित हो जाये

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