‘सिंधिया’ फौज की अब मंत्रीमंडल में ‘जरूरत’ है?
सिंधिया ने सरकार बनवाई यह भाजपा पर अहसान है। लेकिन यदि कोई डील हुई भी होगी तो वह पूरी हो गई। यह तो डील नहीं हुई होगी कि 2023 में सरकार न बनने दी जाये। निकाय चुनाव के परिणामों के दो साफ संदेश हैं पहला सिंधिया कोई कमाल नहीं दिखा पाये और दूसरा नेताओं ने सामुहिक निर्णय से परे होकर जहां भी मनमानी की वहां उसे कार्यकर्ताओं ने नकार दिया। कटनी में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष की जिद हो या फिर जबलपुर में शिवराज सिंह चौहान का फतवा हो। दोनों ही जगह कार्यकर्ता ने भाजपा को हरा दिया। यह संदेश साफ है कि जनता भाजपा को नहीं हराना चाहती है वे गलत टिकिट बांटकर खुद ही हारना चाहते हैं। इंदौर और देवास बच गये लेकिन रीवा और ग्वालियर हार गये। अब सवाल यह है कि क्या सिंधिया भाजपा के लिए लाभ का सौदा नहीं रहे या फिर उनका पूरे तौर पर भाजपाई हो जाने के बाद उनकी फौज के लिए छावनी दिये जाने से कार्यकर्ता नाराज है? ग्वालियर चंबल के परिणामों से इस सवाल को बल मिलता है। वर्तमान भाजपा नेतृत्व को समझना होगा कि वे कुशाभाऊ ठाकरे नहीं हैं लेकिन कुशाभाऊ की भाजपा के उत्तराधिकारी हैं।
कार्यकर्ता का प्रोफशनल स्वरूप हो गया है। वह काम के बदले कीमत नहीं चाहता लेकिन कीमत वसूलने के खिलाफ भी है। भाजपा में सामुहिक नेतृत्व का फार्मूला चला है जबकि निर्णय चंद लोग करते हैं और उसे सामुहिक बना दिया जाता है। अबकी टिकिट तो व्यक्तिगत टिकिट रही और जिद के साथ दिलवाई गई। ऐसे में हार कम हुई अपमान और उसका शोर ज्यादा हुआ। ऐसे में भाजपा को 2023 जीतना है तो जनता का साथ उसके लिए दिख रहा है लेकिन मंत्रीमंडल में सिंधिया की भीड़ को छांटकर भाजपा की भीड़ दिखाना जरूरी है।