‘सावरकर’ हिन्दूस्तान की आत्मा के बेहद ‘करीब’ थे

भोपाल। वीर सावरकर एक विशेष राजनीति के प्रतीक थे। बहुसंख्यकवाद को केन्द्र बनाकर देश की राजनीति करने वाले सावरकर ने गांधी को साथ में रखा लेकिन नेहरू ने उन्हें भुलाने का प्रयास किया। आजादी की लड़ाई में उनके योगदान को कोई कम नहीं आंक सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस कोटड़ी में गये जहां सावरकर को कालापानी की सजा हुई थी। वहां से उन्होंने संदेश दिये थे। यह विवाद पैदा करने का प्रयास भी किया जाता है कि उन्होंने आंग्रेजों से क्षमा मांगी थी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। आजादी का इतिहास लिखने वालों ने उस पक्ष की अनदेखी की है जिसमें गांधी-नेहरू नहीं होते थे। कई ऐसे महान नेता हुये जिनको इतिहासकारों ने न्याय नहीं दिया। सावरकर ऐसे नेता थे जिसके साथ हिन्दूत्व का पक्ष तो जुड़ता है लेकिन ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिससे उनकी अनदेखी की जाती। अब भी राजनीति का एक पक्ष उन्हें स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा की सरकार बनने के बाद से उन महान क्रान्तिकारियों का भी स्मरण होने लगा है जिन्हें राजनीतिक प्रतिशोध के कारण भुलाया गया था। कई बार लगता है कि आजादी का इतिहास गांधी-नेहरू से ही शुरू होता है उन्हीं पर खत्म हो जाता है। इस बारे में अब परतें खुल रही हैं और सावरकर उनमें अग्रणी रहने वाले हैं।
पिछले दिनों भोपाल की सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ने गोडसे को लेकर बयान दिया था। राजनीति अवधारणााओं का खेल होता है। चुनाव के वक्त दिये गये इस बयान को राजनीतिक झांझावतों में उलझाकर रख दिया गया। गोडसे की राष्ट्रभक्ति और उनके अपराध का संबंध नहीं बनाया जा सकता। लेकिन गोडसे को गांधी के साथ देखते ही कोई उन्हें प्यार करेगा ऐसा भी नहीं है। यहीं वह कारण है कि गोड़से पर पांव पीछे लेना पड़ते हैं। गांधी हत्या का वह कारण वाला पक्ष्ज्ञ दबा हुआ है। उसमें अधिक जाना भी नहीं चाहिए। लेकिन सावरकर के साथ सरकारों का अन्याय भी उसी क्षेणी में आता है जिस प्रकार से गोड़से को महिमा मंडित करने का प्रयास है। इसलिए जब भी कोई नेता और विशेष कर कांग्रेस का नेता तब वह सावरकर के साथ अन्याय को याद ही दिलाता है। दो नेशल थ्योरी का रेखांकित करने वालों को यह बताना होगा कि यदि ऐसा है तब भी भारत का आधा पाकिस्तान क्यों रहने दिया गया और यदि ऐसा हो सकता था तब सावरकर को इसके बीच में लाने की क्या जरूरत है?
कई बार लगता है कि एक बार फिर से सवारकर विचार को आगे रखने का समय आया है। वे जनसंघ के नेता नहीं थे वे हिन्दू महासभा के नेता थे। जिसका स्वरूप अब देश में बचा ही नहीं है। हिन्दू महासभा के नेता अपने विचारों के साथ कदमताल नहीं कर पाये। इसलिए सावरकर को भाजपा ने अपने पास खड़ा रहने के लिए आमंत्रित किया है। मोदी ने उनको श्रद्धासुमन अर्पित करते वक्त कमोवेश इसी भाषा में स्वयं को प्रस्तुत किया है। वीर सावरकर को देश की विचारधारा से अलग नहीं किया जा सकता है। पहले के प्रयासों की सफलता अब समाप्त होने के कगार पर खड़ी है। सावरकर की कमियों को रेखांकित करने वालों का समय चला गया है। वे भारत के विचारों की आत्मा थे।

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