सांप निकल गया लकीर पीट रहे हैं किसान नेता

नई दिल्ली ( विशेष प्रतिनिधि )। तीन कृषि बिलों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन अब अस्तित्व हीन सा हो गया है। किसान नेता विरोध आंदोलन की रस्म अदायगी कर रहे हैं जबकि उसके प्रवक्ता बिलों की कमियां और उन्हें क्यों समाप्त किया जाए इस पर केंद्रित होने की बजाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जहर उगलने का प्रयास ही कर रहे हैं। जबकि राजनीतिक पार्टियां इससे जो लाभ लेने का मंतव्य रखती थी वे भी निराशा के गर्त में डूबी हुई दिखाई दे रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि देश का बड़ी संख्या में किसान इन बिलों के लाभ से परिचित हो चुका है। खास तौर पर पंजाब के किसान जो आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन बिना बिचौलियों के पहली बार अपना उत्पाद बेचने का फायदा भी महसूस कर रहे हैं। यह आंदोलन अब सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसा हो गया है।

तीन कृषि सुधार बिलों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन 6 महीने की अवधि को पार कर गया है जिस उत्साह और समर्थन के साथ यह किसान आंदोलन प्रारंभ हुआ था आज वह अपनी धार को पूरी तरह से खो चुका है हालांकि कुछ विपक्षी नेता और आंदोलन से लाभ प्राप्त करने वाले कतिपय नेताओं को आंदोलनरत रहने में ही फायदा दिखाई दे रहा है इसलिए यह कहा जा रहा है कि यह किसान आंदोलन सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसा हो गया है समीक्षक मानते हैं कि किसानों को पहले दौर में तो बरगलाया गया लेकिन अब उनकी आंखें भी धीरे-धीरे खुल रही है सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिलों के क्रियान्वयन पर रोक के बाद किसान आंदोलन औचित्यहीन हो गया था। कुछ विपक्षी नेता और योगेंद्र यादव जैसे तत्व आंदोलन को जिंदा रखने पर अड़े हुए थे लेकिन सरकार के समक्ष कभी यह बताने का प्रयास नहीं हुआ कि कृषि सुधार की आवश्यकता क्यों नहीं है इसलिए यह आंदोलन दिन प्रतिदिन कमजोर होता चला गया।

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और इससे संबंधित अन्य मंत्रियों जिन्होंने किसानों के साथ वार्ता करके परिणाम निकालने का संपूर्ण प्रयास किया किसान अपनी एक ही मांग पर अड़े रहे। इन बिलों की वापसी हो तभी आगे कोई रास्ता निकलेगा। बिलो को स्थगित कर दिए जाने के बाद भी किसान नेता दंभ और अहंकार में एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। परिणाम निकला सरकार की ओर से बातचीत के प्रस्ताव के बाद ही बातचीत नहीं हुई। अब किसान नेता न बात कर पा रहे हैं आंदोलन वापस ले पा रहे हैं। अब वे केवल नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के प्रति खीज निकालने का प्रयास कर रहे हैं। यह आंदोलन वैसे भी डेढ़ राज्य के क्षेत्र में सिमट कर रह गया।

6 महीने का आंदोलन होने के बाद विपक्षी नेताओं ने और आंदोलनकारियों ने काले झंडे लहरा कर या अपने आवास पर लगाकर विरोध प्रदर्शन किया। आज भी कृषि सुधार किस तरीके से किया जाए इस पर चर्चा करने को तैयार दिखाई नहीं देता। यही इस आंदोलन की विफलता का सबसे बड़ा कारण है। सूत्र कहते हैं कि कोई भी आंदोलन नकारात्मकता का विरोध करने के लिए सकारात्मक प्रस्तुति के तौर पर होता है। लेकिन यह कृषि आंदोलन पहले दिन से ही नकारात्मकता की चादर ओढ़ कर ही शुरू हुआ था। इसलिए इसकी सफलता पहले दिन से ही संदिग्ध थी  जब तक सरकार ने किसानों को सम्मान दिया तब तक यह आंदोलन पीक पर रहा लेकिन जब आंदोलनकारी किसान नेता किसानों के हितों से ऊपर अपने राजनैतिक छुद्र स्वार्थ देखने लग गए तब से आंदोलन की मर्यादा भी खत्म हुई और दिशाहीनता भी सर चढ़कर बोलने लगी। इसलिए यह किसान आंदोलन बेमौत मरता हुआ दिखाई दे रहा है।

आज भी कृषि, किसान और देश की अर्थव्यवस्था के हित में यह बहुत जरूरी है कि कृषि सुधार के कानून भी बनाए जाएं उनका क्रियान्वयन भी किया जाए और उसके लाभ कैसे किसानों को मिले इस पर केंद्र व राज्य सरकारों को गंभीर मंथन करना चाहिए। आज किसान अर्थव्यवस्था की धुरी  होने के बावजूद भी फटी लंगोटी ने घूमता है। यह किसानों की दुर्दशा का प्रतीक है जो किसान नेताओं को दिखाई नहीं देता। साल भर उत्पादन के दो खेप करने के बाद भी किसान की अर्थव्यवस्था सुधर नहीं पा रही है। यदि कृषि सुधार बिलों के माध्यम से किसान हित संरक्षण होता है तो उन्हें स्वीकार करना चाहिए। यदि किसी प्रकार की आशंका है तो संशोधन करके कानूनों को जरूर लागू कराने की दिशा में सोचना चाहिए। लेकिन इस 6 माह के आंदोलन के बाद भी किसानों के प्रति सोच स्पष्ट नहीं हो पाई। जबकि मोदी सरकार को नीचा दिखाने और उसकी छवि मलिन करने के अलावा इस आंदोलन में कुछ खास दिखाई नहीं दे रहा है।

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