‘सत्ता’ के लिए गठबंधन और हिन्दुत्व पर ‘प्रतिस्पर्धा’

भोपाल। वीर सावरकर मामले में महाराष्ट्र में राजनीतिक घमासान मचता दिख रहा है। कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल गांधी ने अपनी आदत के अनुसार वीर सावरकर पर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। जबकि मानहानि मामले में उनकी लोकसभा से सदस्यता तक जा चुकी है। सावरकर को हीरो मानने वालों की संख्या कम नहीं है इसलिए राहुल का विरोध तेज हो गया। जिन नेताओं ने जेल में रह किताबे लिखीं और जिन्हें कालापानी की सजा हुई उनकी तुलना करने का प्रयास किया जा रहा है। इसीलिए राहुल गांधी के बाद बयान के बाद उद्धव ठाकरे के सामने स्थिति भिन्न हो गई। संजय राउत ने अपनी मजबूरी बता दी और राहुल को इस मामले में नरम रूख रखने के लिए आग्रह किया। यह शिवसेना और बाला साहब ठाकरे के विचारों से विपरीत है। क्यों बाल ठाकरे सावरकर मामले में लचीला नहीं आक्रामक रूख अपनाते थे। भाजपा और असल शिवसेना ने प्रदेश भर में सावरकर गौरव यात्रा निकालना शुरू किया है। इसमें शिंदे भी बोले और फडनवीस भी। अब उद्धव कह रहे हैं कि वे भाजपा के हिन्दुत्व को नहीं मानते? यह स्वभाविक है क्योंकि सत्ता के समझौते करने वाले नेताओं का सोचने का तरीका अलग होगा यह स्वभाविक है। इसलिए उद्धव और भाजपा की दो राह हुई हैं।
उद्धव ने हिन्दुत्व पर भाजपा को नसीहत दी है लेकिन साथ में यह भी कहा है कि उन्होंने सत्ता के लिए महा अघाड़ी बनाया है। तीन दलों ने सरकार चलाई। शिवसेना में टूट-फूट हुई। अब भाजपा और शिवसेना चुनाव से पहले की स्थिति के अनुसार सरकार चला रहे हैं। आने वाले आम चुनाव की समस्या अभी से विरोधियों को सता रही है। तभी भाजपा के हिन्दुत्व पर सवाल उठाया जा रहा है। बाला साहेब ठाकरे का हिन्दुत्व निश्चित ही सबसे अलग था। वे आक्रामक रूख अपनाते थे। इसीलिए उनकी पटरी भाजपा के साथ बैठती थी। उन्होंने भाजपा को राज्य में छोटा भाई बनाया और भाजपा ने उसे स्वीकारा भी। लेकिन सत्ता के लिए उद्धव ठाकरे ने जिस प्रकार पिता के द्वारा ठुकराये लोगों का साथ दिया उनकी राजनीति का विश्वास ही खत्म हो गया। इसी अविश्वास के कारण शिवसेना में टूटफूट हुई और आज उव के पास असल शिवसेना नहीं है। सभी कानूनी दांवपेंच में ठाकरे के हाथ खाली हैं। जब हाथ खाली रहते हैं तब विरोध भी पनपता है और कटुता की भावना भी आती है। अत: उद्धव ठाकरे की राजनीतिक स्थिति को समझा जा सकता है।
राजनीति का मतलब ही प्रतिस्पर्धा होता है। कुछ समान विचारों के लोग साथ मिलकर राजनीति का गठबंधन बनाते हैं। भाजपा के साथ समान विचार के शिवसेना और अकली दल का गठबंधन था। दोनो ही जगह इसलिए अलग हुए क्योंकि सत्ता का सुख मिल जाये। शिवसेना ने तीन दलों के साथ मिलकर सरकार बना दी और चुनाव पहले का गठबंध तोड़ दिया जबकि अकाली दल ने विदेशों से पोषित किसान आन्दोलन का समर्थन पाने के लिए। इसलिए शिवसेना भाजपा की आलोचना करेगा ही। हिन्दुत्व दोनों के बीच की प्रतिस्पर्धा रहेगी ही। इसलिए उद्धव ठाकरे का बयान इस मायने में महत्वहीन हो जाता है जिसका सिद्धान्त से कोई वास्ता नहीं है वे ऐसे ही बोलते हैं।

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