‘शैक्षणिक’ संस्थानों का हिंसक ‘राजनीतिकरण’

भोपाल। वामपंथी राजनीति का हिंसा से सीधा ताल्लुक रहा है। नक्सली सोच और अर्बन नक्सलियों का सामने आना इन्हीं राजनीतिक विचार का उपज है। कहते रहे हैं कि एक समय रूस में बारिश गिरती थी देश के वामपंथी छाता लेकर सड़कों पर उतरा करते थे। इसका अर्थ यह निकाला जाता था कि इनकी आस्थाएं कहां अधिक हैं कहां कम। चीन के युद्ध में इन आस्थाओं का प्रकृटीकरण हो चुका भी है। इसलिए आज के संदर्भ में यदि जेएनयू में होने वाली हिंसा कोई नई भी नहीं है और चांैकाने वाली भी नहीं है। छात्रों के आपसी विवाद को राजनीतिक तराजू पर लाकर रख देने का कला ने इसे इतना महत्वपूर्ण बना दिया है। यही कारण है कि देश में अब बराबर की बातें हो रही हैं। अनेकों शिक्षण संस्थानों ने चार प्रमुख लेकिन धार्मिक और वैचारिक आधार पर भिन्न शिक्षण संस्थानों की कारगुजारियों की जानकारी केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भेजी है। इसमें चेताया गया है कि ये शिक्षण संस्थान शिक्षा के स्तर को गिराकर इन संस्थानों की गरिमा गिराने के साथ ही देश की शिक्षण व्यवस्था को भी बदनाम व प्रभावित कर रहे हैं। सरकार इस पत्र पर जो सोचेगी वह अलग है लेकिन शिक्षण संस्थाओं के हिंसक राजनीति की ओर जाने का संदेश देश को पढऩा होगा। नहीं तो अब नये नक्सली ग्रेड का उदय होने जा रहा है।
एक समय था असमानता के कारण नक्सलवाद का जन्म हुआ था। वामपंथियों के एक समूह ने हथियार उठाये और बराबरी दिलाने निकले थे। आज वह उनकी कमाई का जरिया हो गया और वे ही बराबरी न आने देने का कारण बनते जा रहे हैं। जिन क्षेत्रों का विकास वे चाहते थे वहां के विकास के वे ही बाधक हो रहे हैं। देश की मूल सांस्कृतिक व वैचारिक विरासत को नैपथ्य में भेजने के बाद पहले की सरकारों में सुविधाओं को अपने लिये मौलिक अधिकार मानने वाले अर्बन नक्सलियों को अब बड़ी चुनौती मिली है। पिछले छह साल की मोदी सरकार के समय स्वदेशी ने अपनी जड़े जमाई हैं इसलिए उसका खौफ दिखाई देने लगा है। नक्सल विचार का तीसरा संस्करण छात्रों के माध्यम से पेश करने का प्रयास शुरू हुआ है। यह प्रयोग जेएनयू में दिख रहा है। यहां कन्हैया कुमार के विचार देश के अधिकांश छात्रों का पसंद नहीं थे। एबीवीपी ने खुलकर विरोध किया लेकिन एनएसयूआई ऐसा सहास नहीं जुटा पाई। अब वह दुविधा में है कि आखिर उसे करना क्या चाहिए? उसका राजनीतिक दल भी ऐसे ही दुविधाग्रस्त है।
सीएए केवल तीन देशों के अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने वाला कानून है। लेकिन इसका विरोध राजनीतिक तौर पर वोट बैंक की पालिटिक्स है लेकिन शैक्षणिक संस्थाओं में इसके विरोध का औचित्य क्या है? यहां हिंसा की राजनीति शुरू होने का कोई न कोई अर्थ तो होगा ही। किसी भी वैचारिक द्वंद्व को तार्किक आधार पर विजयी किया जा सकता है जिसकी क्षमता वाम विचारकों में अधिक रही है। लेकिन वे इन दिनों अपने कामों से एक्सपोज हो रहे हैं। उनकी तार्किक क्षमता कुटिलतापूर्ण दिखाई देने लग गई है। तभी वे हिंसा का सहारा लेने के लिए विवश हैं। यही जेएनयू में हो रहा है। छात्रों का आपसी संघर्ष वैचारिक संघर्ष न होकर शिक्षा का संघर्ष है।

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