वोट बैंक की राजनीति देशहित से हो गई बड़ी, तब कैसे होगा वोटों का बंटवारा?

सुरेश शर्मा
देश की राजनीति में हिंसा का प्रवेश चिंता की बात तो हो सकती है लेकिन इससे अधिक चिन्ता इस बात की की जाना चाहिए कि यह हिंसा खुले आम और खुलकर हो रही है। नेताओं के बयानों की मर्यादा खत्म हो गई और देश से बड़ा वोट हो गया है। यह उतना ही सही है कि जब मुसलमान वोटों को एक करने का प्रयास किया जायेगा तो आज के समय में हिन्दू वाटों का प्रतिशत भी बढ़ेगा। समस्या यह है कि हिन्दू वोटों को बांटने का फार्मूला निकालने की जरूरत नहीं है जबकि मुसलमान वोटों के लिए पूरा विपक्ष एक साथ प्रयास कर रहा है। क्या यह वोट बैंक सबको समानुपातिक हिसाब से वोटों का ऋण दे देगा या फिर इस बंटवारे में कोई तकनीक का इस्तेमाल किया जायेगा। यह भी हो सकता है कि एक साथ मिलकर आन्दोलन करने वाला विपक्ष एक साथ आकर चुनाव भी लड़ ले। यह प्रयोग कुछ राÓयों में काम आये हैं और कुछ में फेल भी हो गये हैं। केन्द्र सरकार के गठन में हालांकि समय है फिर भी अभी तक यह फार्मूला उन चुनावों में काम नहीं आया है। फिर भी सरकार के सामने एक बड़ी राजनीतिक चुनौती आई है। जिसे कमजोर और गूंगा बहरा विपक्ष माना गया था वह इतना करने की स्थिति में है। और जिस समुदाय को मौन मान लिया गया था वह इतना अधिक मुखर होकर सामने आ रहा है। सरकार का पक्ष जनता के बीच में पहुंचाने वाले मीडिया की भूमिका सकारात्मक है फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि सरकार के नियमों की मार से वह भी अछूता नहीं है जबकि इससे पहले उस पर नियमों का हमला नहीं किया जाता था।
बात मीडिया से ही शुरू करते हैं। केन्द्र की मोदी सरकार ने उसकी आर्थिक पाइप लाइन को काटा है जिससे देश के मीडिया कर्मियों के सामने रोजगार का संकट आया हुआ है। इसके बाद भी वह सरकार को कटघरे में खड़ा करने के ऐसे प्रयास नहीं करता जो मीडिया की ओर से ही दिखाई देते हों। लेकिन विपक्ष के प्रहारों को वह दिखाता है, छापता है। लेकिन सरकार को मीडिया को लेकर अपनी नीतियों की समीक्षा करना चाहिए। विपक्षी दलों की ओर से पिछले पांच साल के मोदी सरकार के कार्यकाल में ऐसा कोई व्यवधान पैदा नहीं किया गया जिससे सरकार की योग्यता और स्थिरता में फर्क पड़े। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि सरकार के काम करने के तरीके को विपक्ष समझ ही नहीं पाया था और उसे भय था कि मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देना जल्दबाजी होगा। लेकिन दूसरे कार्यकाल में तीन तलाक का बिल पास कराया गया। जिससे मुस्लिम समाज में दोहरी प्रतिक्रिया थी। पुरूष वर्ग इससे अपने को ठगा सास महसूस करने लगा क्योंकि उसकी प्रभूता को चुनौती दी गई लेकिन इसके विपरीत महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाया तो उसके मन में मोदी का साथ देने की भावना आई। विपक्ष इसे भुनाने की स्थिति में नहीं था। इसके बाद धारा &70 को हटाया गया। यह सच है कि यह धारा कश्मीर को शेष भारत के साथ जोडऩे में बाधक थी इसलिए देश के इस संवेदनशील और सहासिक मामले में न तो विपक्ष ने बोलना चाहा और न कश्मीर के मुस्लिम बाहुल क्षेत्र में हुये इस बदलाव के बारे में बाकी देश के इसी समुदाय के लोगों ने ही बोलने का प्रयास किया। इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय देकर राम मंदिर के विवाद का हल निकाल दिया। यहां भी श्री राम लला जहां विराजमान थे वह स्थान हिन्दूओं को दे दिया और मुस्लिम समाज को पांच एकड़ जमीन कहीं भी अयोध्या में देने का निर्णय दे दिया। यह निर्णय भी कहीं न कहीं वही संदेश दे रहा था जो पहले के कुछ सरकार के निर्णयों से संदेश जा रहा था। इसलिए सीएए के निर्णय के बाद एनआरसी की आड़ ली गई और देश को जलाने और हिंसा की राजनीति करने का निर्णय विपक्ष और समुदाय विशेष को लेना पड़ी।
यह विश्वास है कि सरकार सीएए को बदलने का मानस नहीं रखती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि ननकाना साहब में जो हुआ और पूरे विश्व ने इसे देखा वह साफ करता है कि पाकिस्तान सहित अन्य उल्लेखित देशों में वहां के अल्पसं यकों को प्रताडि़त भी करता है और धर्म के आधार पर भेदभाव भी करता है। दूसरे यदि इसी प्रकार के दबाव के बाद निर्णय बदलने की स्थिति ही बन जायेगी तो राजीव गांधी और नरेन्द्र मोदी में अन्तर ही क्या रह जायेगा। इसलिए सीएए का निर्णय जो हो गया सो हो गया। हां इस आन्दोलन का मकसद भी सीएए को वापस करवाना नहीं है। यह आन्दोलन तो एनआरसी को लेकर है। यह कहा जा सकता है कि मोदी सरकार एनआरसी को लागू तो करेगी लेकिन उसमें अधिक बंधनकारी नियम नहीं होंगे। यदि असम के नियमों को थोड़ा संशोधित करके यदि एरनआरसी आता है तब ही तय होगा कि नरेन्द्र मोदी अपनी राजनीतिक शैली में किसी भी प्रकार का बदलाव करने की स्थिति में नहीं आना चाहते हैं। अमित शाह के बयान के बाद ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि विपक्ष इस मामले में लाख प्रयास कर लें लेकिन एनआरसी को सरकार लायेगी और घुसपैठियों को निकालने का काम करेगी।
टीवी चैनलों पर दिखाई जाने वाली भीड़ का मतलब यह नहीं होता है कि वह पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करती हो। समर्थन आने का मतलब यह तो नहीं निकाला जा सकता कि पूरा समाज एकजुट हो गया और यही अर्थ विरोध करने वालों का भी है। लेकिन इतना तो हो सकता है कि जिनने विरोध करने की राजनीति की है उसने सरकार विरोध में एक समाज को खड़ा कर लिया है। इसकी प्रतिक्रिया में कितना एकत्रीकरण होता है? जागरूकता का प्रभाव कितना होता है? और जो क्रम वोट देने का चल निकला है उसमें कितनसा इजाफा होता है? यह समय बतायेगा। लेकिन राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा को केन्द्र की सरकार बनाने में इससे मदद मिलेगी और विपक्ष को राÓयों की सरकार बनाने में। जो अभी चल रहा है। देश को एक ताकतवर और निर्णय लेने वाली सरकार चाहिए वह नरेन्द्र मोदी के रूप में मिली हुई है जबकि राÓयों में रोजगार और विकास करने वाली सरकार चाहिए जिसका अभाव विपक्ष को मदद कर रहा है। इसलिए एक समुदाय विशेष का एकत्र होना विपक्ष के लिए सुखद है। यह सुखद स्थिति तब अधिक लाभकारी होगी जब समूचा विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े। दिल्ली के चुनाव में यदि कांग्रेस और आप में समझौता हो जाये तब इस धु्रवीकरण का लाभ मिलेगा या यूपी में सपा-बसपा-कांग्रेस एक साथ आयें तब इसका लाभ होगा। मायावती को प्रियंका वाड्रा की सक्रियता का नुकसान भाजपा से अधिक बसपा को होता दिखाई देने लग गया है। इसलिए एकीकरण में वोटों के बंटवारे का फार्मूला निकालने में सबकी हवा निकल जायेगी।
देश में इस प्रकार का धु्रवीकरण खतरनाक सिद्ध होगा। किसी भी देश का अल्पसं क इतना ताकतवर नहीं है जो इस प्रकार के हिंसक आन्दोलन कर सके। लेकिन भारत में अल्पसं यक समाज हिंसक आन्दोलन करने के बाद भी कह रहा है कि उसे दबाया जा रहा है। हमारे सामने प्रमाण है कि गुरूनानक देव की जन्मस्थली के ननकाना गुरूक्षरे को मस्जिद बनाने की धमकी देने वाले के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है लेकिन भारत में विवादित ढ़ांचे मामले में आयोग परन आयोग बन रहे हैं। यह भारत की सहिष्णुता है। लेकिन इस सहिष्णुता के बीच में लोगों का इस प्रकार से सड़क पर आना और राजनीतिक सत्ता के लिए संघर्ष करना आने वाले समय में देश की राजनीति का नया किरदार तय करेगा। आज भी वो ही होने जा रहा है जो बहुसं यकों को दबाकर सत्ता का चाबी अपने पास रखने का प्रयास होता था। आज भी धार्मिक आधार पर प्रताडि़तों को नागरिकता देने का विरोध उसी शैली को प्रमाणित करता है। इसलिए निर्णय आने वाले दिनों में होगा फिर भी बंटवारे का फार्मूला पहले जरूरी है?

संवाद इंडिया

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button