मीडिया के सामाजिक सरोकारों पर सवाल
पत्रकारिता में व्यापारिक घालमेल से बढ़ा संकट
सुरेश शर्मा
कई बार तो यह लगता है कि यह शोध करने की भी जरूरत नहीं है कि मीडिया में व्यवसायिक हस्तक्षेप इतना अधिक हो गया कि पत्रकारिता की आवाज तक दब गई है। वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि मीडिया चंद व्यवसायिक घरानों के अधिपत्य में आ सिमटा है जिससे पत्रकारिता अपने मूल स्वरूप को खोती जा रही है। इससे मीडिया से सामाजिक सरोकार कम हो गये हैं। मीडिया संस्थानों के संचालकों का राजनीति के सामने नत्तमस्तक होने से पत्रकारों के सामने अजीब दुविधा है कि आखिर वे करें तो क्या करें? इससे हार-थक कर कुछ प्रमुख पत्रकारों ने नियतकालीन समाचार पत्र और वेब साइटों का संचालन किया। लेकिन आर्थिक जरूरतों में विभागीय मदद का अभाव उनके न पनपने का आधार बनता जा रहा है। ऐसे में पत्रकारिता की दिशा और दशा को लेकर पुराने पत्रकारों ने एक मुहिम चलाई है। वे कहते हैं कि मीडिया का सामाजिक सरोकार से परे होना और पत्रकारिता के मूल स्वरूप में आये व्यापक बदलाव लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। समय आ गया है जब मीडिया में हो रहे बदलावों को जन सरोकार से जोडऩे की दिशा में व्यापक काम किया जाये।
देश के सबसे बड़े पत्रकार संगठन नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (इंडिया)के तत्वावधान में इन दिनों वेबिनारों का सिलसिला चल रहा है। सबसे बड़ी समस्या पत्रकारों के रोजगार में हुई छंटनी है। जिन समाचार संस्थानों ने सर्वाधिक लाभ कमाया वे कोरोना काल में अपने पत्रकारों की आजीविका संरक्षित नहीं कर पाये। उन्होंने बेरहमी से अपने खास पत्रकारों तक को सेवा से प्रथक किया। जिन्होंने अपनी पीड़ा बताई उनकी आर्थिक मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें पहले से तय वेतन में कमी करके रोजगार देने का क्रम शुरू किया। इसके बाद इस रास्ते को आगे बढ़ाया और 50 प्रतिशत तक वेतन में कमी करके पत्रकारों को सेवा जारी रखने के लिए मजबूर किया। यह परिस्थितियों का दोहन है। जिसकी चिन्ता की गूंज पूरे देश में सुनाई दे रही है और पत्रकार संगठनों ने विभिन्न स्तर पर इसकी शिकायतें की हैं। इन घराने वाले समाचार पत्रों की आय में कोई कमी नहीं आई है लेकिन कम राजस्व देने वाले ब्यूरो कार्यालयों को बंद करके पत्रकारों को बड़ी संख्या में बेरोजगार किया है। यह एक चिन्ता है।
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ससंदीय समिति की रिपोर्ट में मंत्री राव इन्द्रजीत सिंह ने कहा है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के राजस्व में 14 प्रतिशत का इजाफा हो रहा है ऐसा विश्व के किसी और देश में नहीं है। मतलब भारत में यह विश्व की सबसे तेज गति है। पिं्रट मीडिया की आय वृद्धि 8 प्रतिशत वार्षिक की दर से है। इसके बाद भी पत्रकारों की छंटनी का औचित्य समझ में नहीं आता है। श्री राय की आगे राय है कि देश का मीडिया 14 घरानों के कब्जे में आ चुका है जो न केवल पत्रकारों को संचालित करते हैं अपितु उनके दबाव के कारण मीडिया इथिक्स का पालन करने में समस्या आती है। इसलिए पत्रकारिता के स्वरूप में बदलाव आ रहा है। बाहर समाज में चमक-धमक में दिखने वाला पत्रकार अपने संस्थान में अन्य कर्मचारियों की भांति शिंकजे में आता जा रहा है। अभी पूर्ण शिंकजे में नहीं आया है।
दूसरे बड़े पत्रकार और मीडिया चिंतक अच्युतानंद मिश्र कहते हैं कि मीडिया से सामाजिक सरोकार घटता जा रहा है। मीडिया घरानों का एजेंडा बदल गया है। उसमें व्यवसायिक सरोकार अधिक होने के कारण सत्ता के समझौतों का दौर चल रहा है और पत्रकारिता का मूल चरित्र इससे प्रभावित हो रहा है। इससे पत्रकारों की साख में भी शनै-शनै गिरावट आ रही है। वे यह मानते हैं कि प्रिंट मीडिया की तुलना में इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह गिरावट अधिक है। लेकिन टीआरपी और वचस्व के कारण मीडिया संघर्ष तेजी से बढ़ा है। चैनलों में पत्रकारिता की बजाए बहस से काम चलाया जा रहा है और राजनीतिक विषयों, समस्याओं पर बहस के बाद अब आपसी विवादों पर भी बहस कराई जाने लगी है। उन बहसों में शामिल होने वाले लोगों का भी निर्धारण होता है और वे अपनी बात कहने की बजाये तोता रटंत करके चले जाते हैं। इससे पत्रकारिता की साख गिर रही है। सोशल मीडिया ने तो विश्वास के संकट को और बढ़ा दिया है। श्री मिश्र कहते हैं कि पत्रकार संगठनों ने 'पेड न्यूजÓ पर चिन्ता की तब वह कम होने की बजाये 'फेक न्यूजÓ और आ गई। अब तो इसका और विस्तार हो गया और 'हेक न्यूजÓ का चलन तेजी से बढ़ रहा है। वे मानते हैं कि अब समय आ गया है कि हम पत्रकारिता के गौरव को वापस लौटाने की दिशा में काम करें।
गौरवपूर्ण पत्रकारिता लोकतंत्र की जरूरत है। यह कहने में भी किसी को कोई संकोच नहीं है कि पत्रकारिता सभी स्तंभों को नियंत्रित करने का एक ऐसा स्वभाविक तरीका है जिसका विरोध भी नहीं होता और अतिरिक्त खर्चा भी नहीं आता। इसे मीडिया स्वभाव के रूप में देखा गया। बड़े और पुराने पत्रकारों की यह चिन्ता समय के साथ आई है इसमें अभी देरी नहीं हुई। अपितु यह कहा जा रहा है कि क्षरण शुरू हुआ है और चिन्ता सामने आ गई है। क्या पत्रकार संगठनों को इसे अपने एजेंडे में प्राथमिकता के आधार पर शामिल नहीं करना चाहिए? सवाल यह उठता है कि मीडिया घरानों की आर्थिक चाहत को मीडिया में गिरावट मानना चाहिए? तब ध्यान रखना होगा कि आजादी के दौर में मिशन पत्रकारिता होती थी। मतलब मीडिया घराने का संपादकीय में लेस मात्र भी हस्तक्षेप नहीं होता था। अगले दौर में संपादकीय का स्वरूप बदला और संपादक नामक संस्था को कमजोर किया गया। यहां संपादक मीडिया घरानों के व्यवसाय का हित देखकर काम करने वाले को बनाया जाने लगा। आज के दौर में मीडिया घराने वे बनते जो रहे हैं जो अपने काले काम को संरक्षण देने के लिए संपादक नाम की संस्था का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसके विरूद्ध आवाज उठाने के सभी प्रयास ध्वस्त ही हुये हैं। यह चिन्ता ही पत्रकारिता की सबसे बड़ी चिन्ता है।
पुराने और अनुभवी पत्रकारों या मान्य पत्रकारों का संरक्षण ही इस समस्या से छुटकारा दिला सकता है। इसके लिए सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा। सरकार को विचार करना होगा कि जिस डीएव्हीपी संस्था के माध्यम से वह विज्ञापनों का वितरण कराती है उसका शुद्धिकरण भी किया जाये। वहां पर सब तय है कि किसको कितना विज्ञापन दिया जायेगा। क्योंकि कुछ समाचार संस्थानों को छोड़ दिया जाये वहां 40 प्रतिशत कमीशन तय है। कमीशन भी इतना ईमानदारी से लिया जाता है कि मध्यम और छोटे समाचार पत्रों से अपने बैंक खाते मेंं रकम डलवाई जाती है। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया की टीआरपी पर विवाद हो रहा है। लेकिन समाचार पत्रों की प्रसार संख्या को मान्यता देने वाली संस्थाएं खुले लेनदेन के बाद प्रसार संख्या को मान्यता देती हैं। इसकी जांच पर बड़ा घोटाला सामने आ सकता है।
यदि पत्रकारिता के गौरव को वापस लौटाने के लिए काम करने में सरकारें अपना सहयोग देना चाहती हैं तब उन्हें विज्ञापन नीतियों में व्यापक बदलाव करना होगा। सूचना विभाग जानता है कि कौन विशुद्ध पत्रकार है। उसके संरक्षण की योजना बनाना होगी और उसके घरानों से मुक्त पत्रकारिता के लिए प्रोत्साहन की मदद करना होगी। छोटे समाचार पत्रों व वेब पोर्टल की प्रसार संख्या की बजाय उनकी खबरों की गुणवत्ता को विज्ञापन देने का आधार माना जाना चाहिए। जिससे पत्रकारिता फिर से जिंदा होगी और उसका गौरव भी लौट आयेगा। यह भाव पत्रकारों में भी आना चाहिए कि उन्हें पत्रकारिता के गौरव की चिन्ता करना है। वे घरानों में काम करने की विवशता के साथ भी इस गौरव का संरक्षण कर सकते हैं। कई पत्रकार ऐसा कर भी रहे हैं। पत्रकार संगठनों का यह दायित्व है कि वे जागरूकता पैदा करें और पुराने गौरवशाली इतिहास की जानकारी आज के डिप्लोमाधारी पत्रकारों तक पहुंचाएं। पत्रकारिता किताबी ज्ञान भर नहीं है बल्कि एक समझ का प्रतिफल है जिसमें सामाजिक सरोकार और लोकतंत्र की मान्यताएं शामिल हों।
संवाद इंडिया