‘माली’ जब चमन उजाड़े तब उसे कौन ‘बचाए’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। विचाधाराओं के तटबंध टूट गए हैं। राजनीति अब सेवा का माध्यम नहीं रही अपितु व्यवसाय बन गई है। जिस प्रकार से पत्रकारिता से मिशन टेग हट गया और रोजगार हो गया है उससे कहीं अधिक प्रभाव राजनीति पर पड़ा है। अनेकों बार यह लिखने का मन होता है कि जनप्रतिनिधि कानून में जिस प्रकार से दल बदल की शर्तें और नियम बनाए गए हैं उसी प्रकार की कोई न कोई शर्त दल-बदल में भी होना चाहिए? ऐसा इसलिए क्योंकि लोग दलों में अपनी नहीं मनवा पाते हैं और दल बदलते हैं तब उनके पापों का हिसाब नहीं होता अपतिु उनकी तारीफ होती है। यह लोकतंत्र के लिए अवसरवाद है। एक तरफ खबर सामने आती है कि 79 वर्ष के अमरिन्द्र को भाजपा अपनी पार्टी में शामिल कराकर कृषि मंत्री बनाना चाहती है। जबकि इसका खंडन हुआ। दूसरी तरफ 93 साल के आडवाणी पर सवाल उठाए जाते हैं। 87 के मुरली मनोहर जोशी की राजनीति को बरकरार रखने की चिंता की जाती है। 89 साल के मनमोहन को राज्यसभा में भेजा जाए इसकी बात होती है। खैर! यह बात नहीं है। लेकिन राजनीतिक दल और विचारधाराओं में बदलाव को लेकर गंभीर होने से लोकतंत्र का सम्मान बचा रहेगा और राजनीति व्यवसाय में बदलने से बच जाएगी। नेताओं को दूसरे दल पनाह देंगे तो चमन बचाने की कौन सोचेगा?

पंजाब की राजनीति का जो दृश्य इन दिनों दिखाई दे रहा है वह कम से कम यह तो कहने की इजाजत देता है कि दलों के छोडऩे और दूसरे दल में जाने के भी कोई कायदे कानून होना चाहिए। सिद्धु राजनीति में भाजपा में आए थे। कांग्रेस में गए तो उन्हें प्रदेश की कमान दे दी। वे कांग्रेस के संगठन को चलाने का तौर तरीका ही नहीं जानते थे। लेकिन निर्णय हो गया तो कौन बोलता? अब अन्य नेता सवाल उठा रहे हैं कि सिद्धु को प्रदेश की कमान देने का मतलब यह हुआ कि जो हाथ में आ सकता था वह भी चला गया। बड़ा चेहरा भी चला गया और सिद्धु भी। अब तो यह भी कहा जा रहा है कि जिसे चमन की रखवाली सौंपी थी वह चमन को उजाडऩे का दोषी लग रहा है। अमरिन्द्र कह रहे हैं कि जहां से सिद्धु लड़ेगा उसे जीतने नहीं देंगे। यह कैसी लड़ाई है? जब सिद्धु बाजवा के लगे लगा था बवाल तब भी कटा था और अब जब राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही है तब भी वह गलबहियां चर्चा का विषय बनी हुई हैं। अब तो बात एनएसए तक पहुंच गई हैं। लेकिन पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का रोल महत्वपूर्ण था अब कमजोर हो गया। इसे माली द्वारा चमन उजाडऩे की संज्ञा के रूप में देखा जा सकता है।

मैंने स्वर्गीय अर्जुन सिंह से सवाल पूछा था कि राजनीतिक नेताओं को आदर्श मानने की बजाए फिल्म वालों को आदर्श मानने की परम्परा क्यों शुरू हो गई? वे असहज हो गए थे लेकिन जवाब नहीं दिया था। आज तो और बुरे दिन आ गए। जब शाम को कोई नेता किसी दल का प्रतिनिधित्व करता है और सुबह किसी और दल से चुनाव मैदान में है। बाबुल सुप्रियों इन दिनों का चर्चित चेहरा हैं ममता को कोसते-कोसते ममता की शरण में हैं। ऐसे चेहरे राजनीति में एक सीट तो बढ़वा सकते हैं लेकिन विश्वास पैदा नहीं कर सकते हैं। इसलिए पार्टियां बदलने के सामान्य नियमों की जरूरत तो हो ही रही है। अन्यथा चमन को कौन बचाएगा?

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