‘बेमानी’ है मरकज और कुंभ के बीच की ‘तुलना’
पिछले दिनों से देश में ऐसे तर्क शास्त्री पैदा हो रहे हैं जो ऐसी तुलना करते हैं जिसका कोई मायने नहीं होता, जिसका कोई स्तर नहीं होता और जिनकी गणना भी कमजोर रहती है। इसलिए वे कहते तो अच्छे लगते हैं लेकिन जब तुलना का औचित्य समझने का प्रयास होता है तब वह बात बेमानी लगती है। जैसे मरकज की महामारी फैलाने की क्षमता और कुंभ में महामारी की आशंका। जिन संतों को पृथ्वीलोक पर रहना है वे तो बीमार हो सकते हैं लेकिन जिनका कुंभ के बाद फिर से वहां जाना है जिसकी खोज बाद में कोई नहीं कर पाता है तब क्या करेंगे? कुंभ में जो संत दिखते हैं वे राम मंदिर आन्दोलन में आगे आये थे? जो संत कुंभ में दिखाई देते हैं वे वोट डालने आते दिखते हैं? वे कहां से आते हैं कहां जाते हैं यह रहस्य है। तब उनकी मरकज से तुलना करने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। अब व्यवस्थाओं की बात सामने रखना चाहिए। मरकज में लोगों का समूह रूका और बीमार होने पर उनको बाहर निकाला गया था। यह चारदिवारी थी। लेकिन हरिद्वार में गंगा खुले आसमान में है। पर्यावरण का संरक्षण। पापमोचनी गंगा आस्था का प्रतीक है।
जिस प्रकार गांधी की तुलना गोडसे से हो रही है। जिस प्रकार वीर सवारकर को अंग्रेजों से माफी मांगने वाला कहा जाता है। ठीक वैसा ही तर्क मरकज के साथ कुंभ की तुलना करना है। मरकज एक मकान में बंद धर्मप्रचाकरों का टोला है तो दवा और अल्लाह के दायित्वों का अन्तर नहीं जानता और कुंभ वह व्यवस्था है जिसकी व्यवस्था राजसत्ता नहीं बल्कि धर्मसत्ता करती है जो किसी नियंत्रण के बिना नियंत्रित होती है। इसलिए दोनों के बीच की तुलना बेमानी है।