‘बराबरी’ की प्रतिस्पर्धा में क्यों डाली जा रही हैं ‘महिलाएं’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। समाज की संरचना और वोटों की राजनीति दोनों अगल बात हैं। समाज का सुधार और न्याय करना यह भी दोनों अलग-अलग विषय हैं। लेकिन न्यायालय के निर्णय की समीक्षा करने और उनकी नियत को देखने की बजाय हम उसका सम्मान करते हैं। हाल में महिलाओं को सेना में कमीशन दिये जाने को न्यायालय का निर्णय महत्वपूर्ण और मील का पत्थर साबित होने वाला है। यह निर्णय सेना में युद्ध और केन्द्र को छोड़कर अन्य स्थानों पर कमीशन देने का आदेश दिया है। अपने निर्णय को लागू कराने के लिए माननीय न्यायालय ने ब्रह्मास्त्र को भी चला दिया। कह दिया कि यदि इसमें देरी की तो यह न्याय की अवमानना माना जायेगा। इसलिए अब इसको लागू करा ही दिया जायेगा। लेकिन इसमें समानता का मसला यदि नहीं भी उठाया जाता को भी निर्णय और आदेश में कोई अन्तर नहीं आता। वास्तव में यह विषय इन दिनों अधिक गंभीरता से कहा व सुना जाने लगा है कि महिलाओं से समानता की बात संविधान भी करता है लेकिन उसे लागू नहीं किया जाता है। यदि ऐसा ही होता तो बेटी अपने पिता की संपत्ति में भी हिस्सेदार बना दी गईं हैं और ससुराल में पति की संपत्ति में भी। यह तो समानता से भी एक कदम आगे है। इसलिए भी विरोधाभाषी है कि बेटी का धन देना दहेज है लेकिन वह हिस्सेदारी मांगने की पात्र बना दी जाती हैं क्यों?

महिलाओं को पुरूषों का पूरक बनाया जाना चाहिए न कि प्रतिस्पर्धी। यह वोट की राजनीति का हिस्सा है। लेकिन माननीय न्यायालय जब यह कहता है कि महिलाओं को बराबरी की बात तो कही जाती है लेकिन अधिकार देने की बात में उसे लागू नहीं किया जाता है। यह पुरूष और महिला को दो बिन्दु के रूप में पेश करता है और प्रतिस्पर्धी बनाता है। जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सृष्टि की संरचना बिना दोनों के संभव नहीं है। इसलिए पूरक हैं। रोजगार काम-काज और अन्य का बंटवारा समाज मनीषियों ने उस समय की परिस्थितियों के हिसाब से बनाया था। जब की समाज संरचना को आज यदि बदलने की जरूरत है तब बदल दीजिए लेकिन प्रतिस्पर्धा का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता है। महिलाओं में पुरूष से अधिक प्रजजन की क्षमता होती है। वह अधिक मूल्यवान है। मनुष्य कर संरचना करने वाले ने भी दोनों का अलग-अलग दायित्व आवंटित किया है। तब मानव कैसे भेद कर सकता है। तब भी यही बात कही जायेगी कि प्रतिस्पर्धा क्यों?

आज समाजिक संरचना में बदलाव की जरूरत है। सरकार और कानून उसे तय करते हैं तब एक बात है कि वे समाज की भविष्य की संभावनाओं की जिम्मेदारी लें। हम शिक्षा में चरित्र की बात करते हैं तब मानवता में चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी कौन लेगा सरकार या न्यायपालिका? हम बदलाव कर सकते हैं लेकिन इन बदलाव की मांग करने वाला पक्ष वही है जिसको प्रतिष्ठा और परिवार का सम्मान मूर्खतापूर्ण शब्द लगते हैं। जिनको फटी जींस पर टिप्पणी नागवार गुजरती है लेकिन रेप पर मोमबत्ती जलाकर सामने आ जाते हैं। यह समाज की संरचना को बिगाड़कर सनातन संस्कृति को कमजोर करने का खेल है। लिव इन, बेटियों को पिता की संपत्ती में हिस्सेदारी और बराबरी ऐसे ही डारावने शब्द हैं।

(सुरेश शर्मा)
 

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