पुत्रों के लिए राजनीतिक घराने के हस्तान्तरण का दौर, निराशा में राजनीतिक भगदड़ और अस्थिरता
[सुरेश शर्मा] देश की राजनीति में यह ऐसा दौर चल रहा है जब नोटबंदी के समय अर्थ व्यवस्था का था। मनमोहन सिंह ने कहा था कि अर्थव्यवस्था 2 प्रतिशत गिरेगी। वह गिरी भी। लेकिन जब भी व्यवस्था बदलती है मंदी आती ही है। ठीक वैसे ही देश की राजनीति की दिशा बदल रही है। इसमें सबसे खास बात यह है कि एक पीढ़ी के राजनीतिक घराने को अपने पुत्रों को हस्तान्तरण का दौर चल रहा है। दसरे कांग्रेस में आई शून्यता का प्रभाव यह हो रहा है कि वहां से भगदड़ की स्थिति बन रही है। कर्नाटक में विधायकों का इस्तीफा बताता है कि कांग्रेस के विधायक अपने भविष्य की तलाश कर रहे हैं। गुजरात हो या फिर आने वाले समय राजस्थान और मध्यप्रदेश हो सरकारों की अस्थिरता की कहानी कही जाने लग गई है। चूंकि भाजपा ने बड़े समर्थन से लोकसभा में वापसी की है इसलिए उसी तरफ सब नेताओं को अपना भविष्य दिखाई दे रहा है। यहां विचारधारा का कोई स्थान नहीं है। सबकी मंशा है कि पहले खुद को स्थापित करें फिर विचारधारा को संवारेंगे। जब भाजपा में जगदम्बिकापाल समा सकते हैं औीर शिवसेना में प्रियंका चतुर्वेदी समा सकती हैं तब कोई भी किसी दल को स्वीकार कर सकता है।
देश की राजनीति में पुत्रों को अपनी विरासत सौंपने का दौर चल रहा है। कर्नाटक की भगदड़ के लिए कहा जा रहा है कि मल्लिकार्जुन खडगे के बेटे प्रियांक एम खडगे को मंत्री बनाये जाने के विरोध में या उससे निराश होकर अधिक समय के विधायकों में नाराजगी इस स्वरूप तक पहुंची है। हालांकि प्रियांक सिद्धारमैया सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं। उसके काम को भी सराहा गया था। लेकिन सत्ता का हस्तांतरण जब बेटों का करने का दौर आता है तब समर्थकों में नाराजगी स्वभाविक है। कांग्रेस में यह दौर भाजपा से अधिक है। यहां तो बेटों ने अपनी क्षमता को दिखाया है। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह राहुल, जयवर्धन सिंह, कमलेश्वर सिंह सहित कई नाम हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी बेटों को राजनीति का सर्वेसर्वा बनाने को दौर चल रहा है। भाजपा में भी ऐसे कई नाम हैं। सबसे अधिक चर्चा का विषय आशका विजयवर्गीय रहा है जिसके बल्ले की गूंज पर प्रधानमंत्री को बोलना पड़ा है। हालांकि राजनीति के जानकार यह बात रहे हैं कि बल्ला चला निगम के कर्मचारियों पर और असर पिता पर हो रहा है। आकाश के बल्ले की मार से भाजपा का नेतृत्व विचलित नहीं हुआ बल्कि उसकी चिन्ता का कारण बंगाल में मिली जीत का श्रेय पिता कैलाश को चला गया। जो मीडिया प्रबंधन कैलाश का रहा वह तो मोदी से आगे निकल गया इसलिए बल्ला का वार हत्याओं के आरोपी जनप्रतिनिधियों से अधिक दर्दनाक हो गया। इसलिए बेटों को राजनीतिक घराने का हस्तान्तरण सरदर्द बना हुआ है।
इस राजनीतिक भगदड़ का एक विपरीत प्रभाव यह भी हो रहा है कि विपक्ष को अधिक नुकसान होता दिख रहा है। कर्नाटक की सरकार मोदी और शाह के लिए सबसे बड़ा दर्द था। वहां सत्ता में पहुंच चुके येदुरप्पा को वापस कदम खींचना पड़ा था। यह टीस अपने आप समाप्त हो रही है। यहां सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी ने कांग्रेस की अध्यक्षी नहीं छोड़ी होती तो कर्नाटक इस प्रकार से ताश के पत्तों की तरह ढह पाता? राहुल के त्याग पत्र देने के कारण कांग्रेस पिछले दो महीने से वेंटीलेटर पर है। वहां कोई संगठनात्मक काम नहीं हो रहे हैं। मीडिया में हो रही आलोचनाओं का जवाब देने के लिए कोई जवाब देने वाला प्रवक्ता नहीं जा रहा है। नाराज होते विधायकों को संभालने का प्रयास करने वाला कोई बड़ा नेता नहीं जा पा रहा है। अब तो युवा हो या अनुभवी सबके मन में एक लड्डू फूट रहा है कि वे भी राहुल के उत्तराधिकारी बन सकते हैं। राहुल ऐपीसोड ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को निराशा के गर्त में पहुंचा दिया है। नेताओं को अनिर्णय की स्थिति में ला दिया है। जिनको हटने का डर था वे सरकारों को संभालने की स्थिति में आ गये जबकि जिनके पास प्रबंधन का अभाव था वे कमजोर दिखाई दे रहे हैं।
मोदी सरकार ने दोबारा सरकार में आने के बाद अपना पहला बजट पेश किया। कांग्रेस की ओर से कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई। लगता है मात्था पच्ची ही नहीं हुई। कर्नाटक में विधायकों के त्याग पत्र देने के बाद जितनी कठोर टिप्पणी देने मीडिया के सामने सुरजेवाला आये उतनी टिप्पणी बजट पर नहीं आई। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस राहुल के इस्तीफे से असमंजस की स्थिति में है और वह सरकार बचाने के लिए तो प्रयास कर रही है लेकिन सरकार बनाने के लिए किसी पंचवर्षीय योजना पर काम नहीं कर रही है। दूसरी तरफ मोदी सरकार और भाजपा का संगठन रणनीति के हिसाब से काम कर रहा है। बजट की आलोचना पूर्व प्रधानमंत्री और विश्व स्तरीय अर्थ शास्त्री मनमोहन सिंह भी नहीं पाये। कांग्रेस का थिंक टेंक भी नहीं बोल पाया। हालांकि वह उपेक्षित होने के कारण पिछले समय से मौन है। जयराम रमेश, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु संघवी का कोई बयान नहीं आया। आया तो प्रधानता नहीं पा सका। नये थिंक टेंक शशि थरूर और सेम पित्रोदा भी गायब हो गये हैं। इस मौन का प्रभाव कांग्रेस की सेहत पर पड़ रहा है।
भाजपा की मोदी सरकार का बजट दूरगामी है। पांच साल की योजना और उसके लिए जिस प्रकार का आर्थिक प्रबंधन किया गया है वह आलोचनाओं में नहीं आया। जनता के बीच किसी भी सरकार को वापस जनमत मिले इसकी संभावना तीन दशक से नहीं है। मिलीजुली सरकार का दौर चल रहा था। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने दूसरी बार स्पष्ट बहुमत और पिछली बार से अधिक बहुमत लेकर सबका मूंह बंद कर दिया। इसका प्रभाव यह हुआ कि जिसको अपना राजनीतिक भविष्य अपने दम में कमजोर दिखाई देता है वह भाजपा की ओर आ रहा है। कल तक जिस पार्टी को विचारधारा के आधार पर अछूत माना जाता था वह अब सबकी पहली पसंद बनती जा रही है। मतदाताओं की भी और चुने हुये प्रतिनिधियों की भी। इसलिए देश भर के नेता भाजपा में जाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। मोदी सरकार ने अपने काम को कभी भी भारत की जरूरतों से परे नहीं किया। बजट ने भी इसी प्रकार का संकेत दिया है। शिक्षा के क्षेत्र में विश्व स्तर की क्षमता और योग्यता वाले तीन संस्थान बनेंगे तो गरीब दुकानदार को तीन हजार रुपये की पेंशन भी मिलेगी। किसान को लाभ कमाने वाला क्षेत्र देने का प्रयास भी हुआ है तब काले धन पर वार करने के कई रास्ते खोले गये हैं। इससे भारत की अर्थ व्यवस्था को तीन लाख करोड़ डालर के समकक्ष लाने का भागीरथी प्रयास शुरू हो गया है। जिस मोदी के पास आने में नेताओं को डर लगता था वे आज मोदी की पार्टी में शामिल होने के लिए लाइन में लगे हैं। जिस तीन गुजराती बंधुओं ने मोदी का रथ रोकने का प्रयास किया था उनमें से एक उनके साथ खड़े हो चले हैं और दो का आधार खत्म हो गया। इसलिए देश की राजनीतिक अस्थिरता में मोदी की और खिंचाव है। यही कारण है कि कर्नाटक से जो भगदड़ का सिलनसिला शुरू हुआ है वह राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी प्रभाव बनाता हुआ दिखाई ेद रहा है। मानसून के इस मौसम में यह कहा जा सकता है कि कम दबाव का प्रभाव वर्षा के रूप में सामने आता है तब कांग्रेस में आई रिक्तता का प्रभाव कम दबाव का स्थान बन रहा है और उससे जनप्रतिनिधियों में भगदड़ बन रही है। पहले दल बदलता था अब इस्तीफे देने का दौर है। कम दबाव का क्षेत्र मध्यप्रदेश पर भी देखा जा रहा है। भाजपा के एक बड़े नेता की बात को माना जाये तो जो नाम चल रहे हैं वहां कम दबाव का क्षेत्र नहीं है वे अलग ही हैं और जल्द ही यहां भी इस्तीफों की बारिश हो सकती है।
संवाद इंडिया