‘पालिटिक्ल’ इंडस्ट्री में विचारधारा का ‘लोचा’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। राजनीतिक समीक्षक हों या कांग्रेस के कुछ प्रबुद्ध नेता अपने आलेखों में भाजपा की विचारधारा के बारे में

सुरेश शर्मा

अधिक लिखते हैं अन्य राजनीतिक दलों की विचारधारा को लेकर न के बराबर। जबकि इस बात पर बहस होना चाहिए कि पालिटिक्ल इंडस्ट्री में विचारधारा का बड़ा लोचा चल रहा है। यहां सवाल यह उठता है कि विचारधारा की बात पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व के काम-काज, चाल-चलन और जनता को मिलने वाले आउटपुट के आधार पर मापना चाहिए या हम जो समझ रहे हैं उसके आधार पर। सबसे अधिक भाजपा की विचारधारा पर टीका टिप्पणी होती है जबकि कांग्रेस और वामदल भी राष्ट्रीय पार्टियां और उनके विचार भी राष्ट्रीय रहे हैं। यहां विचारधारा और वोट प्राप्त करने के तरीकों के अन्तर को भी समझना होगा तभी सही और न्यायपूर्ण विश£ेषण किया जा सकता है। भाजपा की विचारधारा को साम्प्रदायिक लिखने वाले आखिर साफ क्यों नहीं कहते कि साम्प्रदायिक से उनका आशय हिन्दू समाज से है। जिस देश की सर्वाधिक जनसंख्या इसी समुदाय की है, आजादी के समय जिस देश का विभाजन इसी आधार पर हुआ हो तब इस समुदाय को साम्प्रदायिक कहना न तो न्याय संगत है न ही इसके पुराने इतिहास के साथ ही न्याय है। हिन्दू समाज को वोट बैंक बनने में 7 दशक लगे हैं और वह भी बन गया ऐसा नहीं कह सकते हैं। जबकि अन्य समुदाय तो विभाजन के समय से वोट बैंक ही हैं।

विचारधारा के मामले में कांग्रेस सबसे कमजोर और दरिद्र बनती जा रही है। सर्वधर्म समभाव की बात करते-करते यह पार्टी मुसलमानों और हिन्दूओं के वोटों के लिए गिरगिट बनती जा रही है। इसका नेतृत्व तो विचारधारा की परिभाषा ही नहीं जानता। सरकार में रहते तब धर्मान्तरण के लिए रास्ता देते हैं और विपक्ष में आते हैं तब मंदिरों में जाकर भ्रम पैदा करते हैं। यही हाल वाम दलों का है। किसी भी धर्म को न मानने वाले वामपंथी मुस्लमान वोटों के लिए चलवे चाटते दिखते हैं। यह विचारधारा का घालमेल है। आप का गठन इन सबसे अलग दिखने के लिए हुआ था लेकिन वह भी पुराने डर्रे पर ही चल रही है। इसलिए भाजपा को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल की कोई ठोस विचारधारा नहीं है। सरकार के वक्त सबका साथ सबका विकास और संगठन के लिए सबका विश्वास और जोड़ दिया गया। लेकिन जब बंगाल चुनाव के परिणाम की समीक्षा करते हैं और मुस्लिम बाहुल 120 सीटों में भाजपा को हराने के लिए वोट डाले गये तब सत्ता और संगठन विस्तार के लिए अपना दायरा वहीं ही तो बढ़ाया जायेगा जहां अवसर हैं।

अन्य राजनीतिक दल तो परिवार के राजघराने हैं इनकी अपनी कोई विचारधारा ही नहीं है। ये भाजपा को कोसकर मिले टुकड़ों पर सत्ता का स्वाद ले लेते हैं। इसलिए आजकल पॉलिटिक्ल इंडस्ट्री में विचारधारा का बड़ा लोचास चल रहा है। संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली भाजपा में जिस प्रकार से उसकी आलोचना करने वाले युवा नेता आ रहे हैं वे तालाब को गंदा करने वाली मछली होंगे या उसके रंग में रंग जायेंगे यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इतना सच है कि विचारधारा के मामले में कांग्रेस सबसे दरिद्र पार्टी है।

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