‘नेता’ बनने पर उदंडता का लायसेंस नहीं ‘मिलता’
पी सी शर्मा पिछले दिनों मंत्री हुये थे। तब उनके बारे में कहा जाने लगा था कि वे जिन जिलों के प्रभारी हैं वहां के गौरख धंधों में शामिल तो नहीं हो गये? जनप्रतिनिधि होना और धनाड्य होना खुद से नियंत्रण कम कर देता है। जब नेता खुद ऐसा करेगा तो सहयोगी से इससे अधिक की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? इसलिए सरकार ने इस मामले में दोहरा रूख अपनाया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने टवीट करके डाक्टर का साथ तो दिया लेकिन उन्होंने जनप्रतिनिधि के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का आदेश नहीं दिया। इसी प्रकार से चिकित्सा शिक्षामंत्री ने भी डाक्टर को त्यागपत्र वापस लेने को मना लिया लेकिन जनप्रतिनिधि के अधिकारों की व्याख्या नहीं की। यह विशेषाधिकार नहीं हो सकता है। कम से कम आज के समय तो ऐसा अधिकार नहीं दिया जा सकता है। जनप्रतिनिधि भगवान तो नहीं हो सकता है जबकि डाक्टर को पहले भी भगवान के बाद माना जाता था और आज जब विश्व कोरोना से लड़ रहा है और इस लड़ाई में हथियार उठाने का काम डाक्टर्स की ओर से ही किया हुआ है।
पूर्व मंत्री और विधायक के कारनामें की सभी ओर से निंदा की जा रही है। मेडीकल स्टाफ ने भी की है। लेखकों ने भी और सरकार ने भी। लेकिन कोई प्रकरण दर्ज हुआ होगा ऐसा पता नहीं है। लेकिन यह पूरा वाक्या शर्मनाक और गैर जिम्मेदारी से भरा है। इसको रोकने के लिए कानून बनाने की जरूरत है। लेकिन यह उम्मीद करें किससे? जिनको यह व्यवस्था करना है वे तो खुद की इसी जमात के हैं। वे भी ऐसा ही उदाहरण पेश करते हैं। अपने मतदाता की नजर में खुद को ताकतवर दिखाने का एक ही तरीका है कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से लताड़ लगा दें और हाथ झाड़कर चल दें। सामने वाला कानून के पाश में है और जनप्रतिनिधि उदंड। यह सब कब तक चलेगा?