‘टिप्पणीकार’ नेताओं से नहीं, खतरा है अपने ‘दंतनिपोरों’ से

भोपाल (सुरेश शर्मा)। राजनीति और पत्रकारिता में चोली दामन का साथ है। पहले भी और आज भी नेता जो करते हैं मीडिया उसे आम जनता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाता है। पिछले कुछ दिनों से अजीब सी स्थिति बनी हुई है। नेता करते धरते कुछ है नहीं और मीडिया पर तोहमत लगा कर अपनी बात जनता के बीच में न ले जाने का ताना दे बैठते हैं। मीडिया में भी ऐसा सुनने की आदत सी बनती जा रही है आत्मा प्रतिकार का कहती होगी लेकिन अपने ही साथियों की दंत निपोरी देखकर प्रतिक्रिया कंठ से वापस सरक जाती है। इसलिए रह रहकर यह सवाल उठता है कि हिंदुस्तान के मीडिया में आत्मसम्मान नाम की कोई चीज बची भी है या नहीं? सरकार मीडिया से बात नहीं करना चाहती लेकिन अपेक्षा रखती है जो कर रही है उससे भी अच्छे तरीके से दिखाया जाए। विपक्ष सत्ता को कोसता रहता है और उसकी अपेक्षा है कि मीडिया उसकी इस घटना को सूर वीरता के रूप में प्रस्तुत करें। मीडिया घरानों की हालत विज्ञापनों के लालच में इस कदर कमजोर हो गई है कि पत्रकार प्रतिरोध स्वरुप बहिष्कार भी नहीं कर सकता। जिन नेताओं का ज्यादा राजनीतिक रसूख नहीं है वे भी मीडिया के किसी बंधुओं को दलीए प्रतिबद्धता के साथ जोडक़र नीचा दिखाने का प्रयास करता है।

 

पिछले ही दिनों की बात है जब राहुल गांधी अपनी सांसदी  जाने के गम में कुछ ज्यादा ही गमगीन थे। पत्रकारों से बात करने आए तो एक सहज सवाल में ही उखड़ गए। पत्रकार के व्यवहार पर व्यंग्यबाजी करते हुए राहुल यहां तक कह गए कि आपको तो भाजपा का बिल्ला लगा लेना चाहिए। केंद्र और देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा की सरकार होने के कारण विपक्षी नेता पत्रकारों पर भाजपा के प्रति अधिक समर्पित होने का आसानी से लांछन लगा बैठते हैं। बात में कुछ दम भी होगा फिर भी इस प्रकार की टिप्पणियों से बचते हुए अपनी बातें मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर ली जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। मीडिया तो दो पाटों में फंसा हुआ है। विपक्ष उसे सत्ता पक्ष का अधिक समर्थक कहता है जबकि सरकार मीडिया घरानों पर न तो मेहरबान है बल्कि डंडा ही लिए खड़ी रहती है। ऐसे में जरूरत यह है कि मीडिया अपने वजूद की बचाए या अपनी अहमियत के बारे में मंथन करें। कभी यह स्थिति न बन जाए कि क्या से क्या हो गए देखते देखते? मीडिया की प्रतिस्पर्धा का लाभ राजनेता और अन्य संस्थान उठा रहे हैं। यदि एक पत्र या चैनल के प्रतिनिधि को किसी दलीय प्रतिबद्धता के साथ लांछनित किया जाता है तो बाकी साथियों में आक्रोश की बजाए दांत निकालने की मानसिकता अधिक बनती है। जिसका लाभ टिप्पणीकार उठा ले जाता है। एक चीज बिल्कुल साफ है कि अब संस्थानों की नौकरी कर रहे पत्रकारों में किसी भी नेता, अधिकारी या अन्य की पत्रकार वार्ता का बायकाट करने का साहस नहीं बचा है। यहां व्यक्तिगत पहल करना होगी। जिन्हें संगठन चलाने का अवसर मिल रहा है उन्हें आगे आना होगा। उनकी प्रेरणा से संस्थानों में दबाव बनेगा और मीडिया के ये दांत निपोर घट जाएंगे। तब सरकार को भी मीडिया के महत्व का पता चलेगा और विपक्षी दलों की नाराजगी भी कम होगी। लेकिन इन दिनों मीडिया पर लांछन लगाने की प्रवृत्ति चिंताजनक स्थिति तक पहुंच चुकी है।

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