जो ‘आतंकी’ है तो उसकी नियति ‘मौत’ ही है
सुरेश शर्मा
भोपाल। बहुत दिनों तक इस बात पर बहस चली थी कि सेना ने जिस आतंकवादी बुरहान वाणी को मारा है उसके समर्थन करने वालों में कुछ वांछित नाम भी हैं। वाणी को प्रचार का उत्कर्ष प्रदान करने का प्रयास किया गया था। यह सेना के मनोबल को तोडऩे का प्रयास भी था। लेकिन सेना आखिर सेना है। उनके मनोबल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह योजना बनाकर काम करती है और उसकी योजना पर इस प्रकार के प्रभावों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जब किसी आतंकवादी को बचाने के लिए कुछ विशेष मानसिकता के वकील रात में कोर्ट खुलवाने चले गये थे तब हमारी न्यायपालिका की निष्पक्षता की तारीफ की गई थी। लेकिन उस समय न्यायपालिका यदि ऐसे तत्वों को डपट देती तो आज सेवानिवृत्त होते जस्टिस गुप्ता को यह नहीं कहना पड़ता कि न्याय अमीरों और प्रभावशाली लोगों के लिए अधिक सहानुभूति रखता है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश गोगई को यह नहीं कहना पड़ता कि कुछ प्रभावशाली वकील अपने पक्ष में न्याय को मोडऩे के लिए सभी हथकंडों का उपयोग करते हैं। इसलिए भारत वर्ष की सेना को पता है कि कुछ तत्व ऐसा करने के आदि हो चुके हैं और उनकी अनदेखी करने के अलावा कोई और कोई मार्ग शेष नहीं है। इसलिए यह अब मान ही लेना चाहिए कि आतंकी की नियती मौत ही है और वह उसे प्राप्त ही होगी। अब सरकार ने भी सेना के हाथ खोल रखे हैं।
भारत की सेना जांबाज है। उसके अधिकारियों में निर्णय लेने और योजना को मूर्तरूप देने की क्षमता है। उसके जांबाज सिपाही कुछ भी कर गुजरने की क्षमता रखते हैं। वे इससे विचलित नहीं होते कि ऐसा करने के बाद क्या होगा? वे तो यह सोचते हैं कि जो होगा सो होगा लेकिन करना यही है। क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार ने उन्हें अधिकार थमा रखे हैं। वे अधिकारों का उपयोग भी कर रहे हैं। बुरहान वाणी से शुरू हुआ यह सिलसिला अजा नियाज नायकू की मौत तक जारी है। आगे कोई डाक्टर मरने की इच्छा के साथ आ रहा है। आये कोई गम नहीं है। सेना ने तय कर रखा है कि या तो मुख्यधारा में आयें या फिर मौत को गले लगाने के लिए तैयार हो जायें। बस जितने दिन धरती ने शरण दे रखी है उतने ही दिन का वास है। भारत की सरकार ने भी संदेश दे दिया है कि जिस पीओके में रहकर आतंक की टे्रनिंग ली जाती है वह स्थान ही अपने कब्जे में वापस ले लेते हैं। शुरूआत हो गई। मौसम विभाग ने उसे अपना लिया है और जानकारी बुलेटिन में जारी करना शुरू कर दी। अब सरकार भी वहां पर कोई कदम उठा ही लेगी। तब आतंकियों को खत्म करने की जोखिम कम हो जायेगी।
आतंकवादियों की नियती मौत ही है। वे जितने दिन खेल लें। पहले देश के किसी भी कोने में जाकर धमाका किया जा सकता था क्योंकि उसे सरकार वोट में बदलना चाहती थी और सेना आदेश की प्रतीक्षा करती थी। अब देश के आगे वोट की कीमत कुछ नहीं है। सेना अधिकार संपन्न है। इसलिए आतंक के काले समुन्दर में कूदने की बजाये विकास के पथ पर तेजी से चल रहे देश के साथ मिलकर चलने की जरूरत है। जो समझ जाता है बेहतर है नहीं तो सेना ने रास्ता दिखाने का तय कर ही रखा है। अब जन्नत की हूर से मिलाने में हमारी सेना भी देरी नहीं कर रही है।