‘जीतने’ के लाले और इच्छा पीएम ‘बनने’ की
कोई भी प्रधानमंत्री केवल ज्ञान बगारने से नहीं बन सकता है। उसके लिए संसद में सदस्यों की संख्या या फिर सहयोगी दलों के समर्थन की जरूरत रहती है। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को अपनी पार्टी की हालात के बारे में आभास नहीं है ऐसा तो नहीं माना जा सकता है। देश में तीन राज्यों में उसकी अपने दम पर सरकार हैं। दो राज्यों में सहयोगी दलों के साथ समर्थन के साथ सरकार का हिस्सा हैं। लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने के लायक भी दो बार से सांसद नहीं हैं और राज्यसभा में भी सबसे बड़े दल का खिताब खो दिया है। ऐसे में यदि किसी विदेशी शिक्षण संस्थान के संचालकों से प्रधानमंत्री बनने की बात करने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। फिर भी ख्वाब देखने पर टेक्स कहां लगता है। राहुल गांधी विश्व के प्रमुख लोगों के साथ बातचीत को टवीट करके बताते हैं कि भारत के हालात खराब हो रहे हैं। सरकारी संस्थाओं की वैधानिकता समाप्त हो रही है। जबकि ऐसा नहीं है जनमानस को साथ लेने की बजाये आरोपों की सीढ़ी चढऩे का प्रयास किया जा रहा है। जिस सरकार की खरीद की फाइल सर्वोच्च न्यायालय देख चुका हो और कोई आरोप नहीं लग पाये हों उस प्रधानमंत्री पर आरोप वे लगा रहे हैं जिन पर तीनों लोकों में भ्रष्टाचार के जुमले उछलते रहे हों।
समूचा विपक्ष नरेन्द्र मोदी को झूठा, रोजगार न देने वाला, संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा करने सहित ऐसे कई आरोप लगाता रहा है लेकिन जनता इस पर विश्वास नहीं कर पा रही है। इसका मतलब यह है कि यह आरोप राजनेताओं के द्वारा तो लगाये जाते हैं लेकिन जनता में इसकी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं होती है। जो राहुल गांधी अपनी ही सरकार के अध्यादेश को पत्रकारों के सामने फाड़कर फैंक देते हों वह संवैधानिक संस्थाओं के सम्मान की चिन्ता कर रहे हैं? इस प्रकार के आरोपों के बीच राहुल गांधी खुद कटघरे में खड़े होते दिखाई देते हैं।