‘चुनाव’ में किए गए वादे मतलब बुरा न मानो ‘होली’ है
वादे हैं वादों का क्या? कर्जमाफी का वादा पूरा नहीं हुआ ऐसे आरोव भाजपा की ओर से लगाये गये। तर्क दिया गया कि कांग्रेस के वचन पत्र में लिखा गया था कि दो लाख तक के कर्ज माफ किये जायेंगे लेकिन दो लाख का तो एक भी कर्ज माफ नहीं हुआ। वादों का एक फैशन आरक्षण को लेकर होता है। पिछड़ा वर्ग में आरक्षण देने की होड़ राजनीतिक दलों में मची हुई है। हर कोई मूंह उठाता है और घोषणा कर देता है। कानून भी बना देता है और सभी कानून सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय के आधार पर समाप्त हो जाते हैं। जनता को कह दिया जाता है हम तो देना चाहते हैं। लेकिन कोई भी दल सर्वोच्च न्यायालय के पहले वाले आदेश को चुनौती नहीं देता और न ही कानून बनाकर संसद का उपयोग करता। मतलब वादा है वादों को क्या? जनता का भावनात्मक शोषण करना सभी राजनीतिक दलों का काम है। सत्ता में आने के बाद राज्य का खजाना दिखता है और अधिकारियों की टीप का सामना करना पड़ता है। घोषणा के समय गज भर की जुबान सरकार में आने के बाद सूखकर कंठ तक पहुंच जाती है। आरक्षण और कर्जमाफी या फिर केजरीवाल की मुफ्तखोरी में देखी जा सकती है।
इन दिनों पुरानी पेंशन का वादा रसगुल्ले की भांति मूंह में रस भर रहा है। कर्मचारी जानते हैं कि पेंशन मिल जायेगी तो बची जिंदगी में भी ऐश करेंगे। इसलिए उन्हें सरकार किसकी है उससे क्या लेना-देना। इसी भावना का दोहन करके विपक्षी दल पुरानी पेंशन शुरू करने का वादा कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही वादा कमलनाथ कर रहे हैं। यह पेंशन बंदी की घोषणा दिग्विजय सिंह के काल में हुई थी। अब कमलनाथ उसे पूरा फिर से खोलना चाहते हैं। जिस दौर में राज्यों की अर्थव्यवस्था बदहाली में है उस समय इस प्रकार के वादों का क्रियान्वयन कठिन काम है। फिर भी चुनाव के वादे हैं क्योंकि बुरा न मानो होली है।