‘चलिए’ भूल सुधार के लिए दे देते हैं ‘धन्यवाद’
भोपाल। प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी साहब ने मन की बात में एक खास बात महसूस की है। कोरोना महामारी से लडऩे के वक्त इस्तेमाल किए गए शब्द 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ को बदलकर 'फिजिकल डिस्टेंसिंगÓ किया गया है। जब सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल किया गया तभी से शब्द परीक्षण करने वालों के जेहन में यह बात चल ही रही थी कि क्या किसी भी महामारी से निपटने के लिए सामाजिक दूरियां बनाना आवश्यक है? सामाजिक दूरियां बनाने की बात के दूसरे मायने भी निकाले जाने लगे थे। हालांकि ऐसा न समाज में सोचा गया और ना ही प्रधानमंत्री की मंशा रही होगी, न ही सोशल डिस्टेंसिंग शब्द प्रयोग करवाने वाले समूह की रही होगी? फिर भी इस शब्द से एक विशेष प्रकार का भेदभाव दिखाई देने लग गया था। इस भेदभाव की व्याख्या करना भी भेदभाव को प्रोत्साहित करना है। इसलिए खुद प्रधानमंत्री ने ही इस शब्द को संशोधित कर दिया वही बेहतर है। दूसरी तरफ संघ प्रमुख ने भी सामाजिक दूरी शब्द के स्थान पर शारीरिक दूरी शब्द का प्रदेश करके देश को नई दिशा दे दी है। इसका मतलब यह हुआ कि शब्दों के उपयोग को लेकर भी उच्च स्तर पर बातचीत होती है और समाज में किस प्रकार से सौहार्द बना रहे इसकी भी बात होती है। सभी को यह लगना चाहिए कि इसी प्रकार की सोच सभी समुदायों की होना चाहिए। लम्बे समय बाद अब इस बारे में प्रभाव दिखाई दे रहा है।
शब्दों के फेर में दूरियां बन रही थीं। सामाजिक दूरियां से यह संदेश जा रहा था कि समाजों से दूरी बनाओ। यह दो समाजों के बीच की बात हो या न हो लेकिन एक ही समाज में दूरी बनाने जैसी बात भी हो रही थी। जबकि कोरोना को हराने के लिए उसकी चैन को तोडऩे की दिशा में दो गज की दूरी ही पर्याप्त है। खांसने, छींकने के प्रभाव की दूरी बनाने से चैन टूटने की बात भी डाक्टर कह रहे हैं। इसलिए समाज में दूरी बनाने की जरूरत नहीं है शरीर के बीच दूरी बनाने की बात अधिक प्रभावशाली है। हम समझ सकते हैं कि एक समाज विशेष के एक विशेष वर्ग ने कोरोना के खिलाफ युद्ध को कमजोर करने का प्रयास किया है। उस समूह की ओर से बीमारी को छुपाया गया है। धर्म प्रचार में लगे लोग मानों बीमारी प्रचार के साधन बन गये। लेकिन उसी समाज के अन्य धर्मगुरूओं ने इसका न केवल विरोध किया बल्कि अपने समाज को प्रेरित भी किया। जिनता नुकसान हो वह हो गया लेकिन अब जागरूकता सेे वहां भी बदलाव दिख रहा है। यह प्रेरणा भारत में ही हो सकती है। यहां सभी धर्मों में प्रतिस्पर्धा नहीं है लेकिन समानता है। यही अनेकता में एकता का सूत्र है।
कुछ लोगों के अपराध का दंड समाज को नहीं दिया जा सकता है। इसलिए सामाजिक दूरियों के मायने सुधारने का प्रयास हुआ है। यह भय दूर होगा और समाज की गतिविधियां पहले की भांति चलेंगी भी। समाज शाश्वत है। धर्म शाश्वत है। धर्म में महामारियों सेे निपटने के प्रावधान समय के साथ बताये गये हैं। संयम और अनुशासन जो भारतीय संस्कृतियों में बताया गया था वही आज डाक्टर बता रहे हैं। आचरण में बदलाव और प्रकृत्ति से टकराव के कारण आई सभी महामारियों को धर्म से सीमित किया जाता रहा है। अब हम संस्कृति की ओर लौटें और समाजों को एक कर नई प्रेरणा देकर महामारी को अवसर के रूप में स्वीकार करें।