‘गंभीर’ हादसे हैं लडख़ड़ा न जाये ‘पत्रकारिता’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। जो सीधी में हुआ वह सीधी-साधी बात नहीं है। नग्र अवस्था के चित्र में चाहे एक ही पत्रकार हो लेकिन किसी भी मानव के साथ ऐसा होना किसी भी सूरत में उचित नहीं है। यही कारण है कि सरकार ने भी संज्ञान लिया और मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप से विषय और महत्वपूर्ण हो गया। पुलिस का चेहरा विकृत्त है और समाज भावनाओं के विपरीत भी। सवाल यह भी उठ रहा है कि एक रंगकर्मी नीरज कुंदेर को छुड़ाने धरनारत लोग एक्टिविस्ट हैं या जिस प्रोफेसन से हैं वो? लेकिन जो हुआ उसका कोई समर्थन नहीं कर सकता। देश भर से पत्रकारों की चिंता ने हिला दिया क्योंकि आखिर मध्यप्रदेश में हो क्या रहा है? एक घटना जनसंपर्क विभाग में हो गई। अधिकारों का दुरूपयोग? आरोप प्रत्यारोप में मर्यादा और भाषा में संस्कारों का गर्त में चला जाना पत्रकारिता में कभी नहीं हुआ था। लेकिन हो गया। क्या इस प्रकार का भोंडा प्रदर्शन पत्रकारिता के हित में है? अपने चरित्र के सहारे किसी और के चरित्र को दागी बनाने की स्थिति यदि पत्रकारिता के कोख से जन्म लेगी तब हम संरक्षित किसकों करेंगे? देश में पत्रकारिता और पत्रकारों की हालत पर पहले ही भय लग रहा है ऐसे में हमारी करतूतें उसे और गर्त में ले जाने के रास्ते पर चलेगी तब क्या होगा? हम भगवान भरोसे तो सब कुछ नहीं छोड़ सकते हैं।

यह माना जा सकता है कि सीधी में पत्रकार एक्टिविस्ट की भूमिका में था लेकिन अनेक अवसरों पर उसके एक्टिविस्ट बने बिना जनहित पूरा नहीं होता? देश भर में इस घटना ने पत्रकारिता की गिरावट और कमजोर होती स्थिति पर हलचल पैदा की है और प्रदेश की बदनामी भी हुई है। इसका प्रमाण पत्रकार संगठन का नुमाइंदा होने के नाते देश के सभी भागों से पूछा गया कि आपके राज्य में यह कौनसा तरीका है? तब सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता लडख़ड़ा रही है? उत्तर मिल भी नहीं पाया था। प्रदेश के जनसंपर्क विभाग में एक और घटना हो गई। एक महिला पत्रकार ने जो किया वह साथ देने के लिए दिल को तैयार कर ही नहीं पा रहा है। बोलें तो झूठ का साथ देना होगा और न बोलें तो पत्रकार आन्दोलन के साथ जुडऩे को ढ़ोग बतायेगा? इसी कशमकश के बीच एक ही बात सामने आ रही है कि हम इस स्तर पर आकर खड़े हो गये कि विज्ञापन नहीं मिलेगा तो अपने चरित्र का सहारा लेकर दूसरे के चरित्र को दागी बनायेंगे? नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए? विज्ञापन तो चाहिए लेकिन यह तरीका तो नहीं हो सकता।

हमें सोचना होगा कि क्या हम दादा माखन लाल, राजेन्द्र माथुर और  प्रभाष जोशी की राह से भटक नहीं गये? मिशन प्रोफेशन के चक्कर को छोडि़ए अब तो सरकार व जनता के सेतु से नेताओं की टवीट जुगाली को ढ़ोकर प्रतिद्वंद्वियों के घर पर फैंकने वाले कहार हो चले हैं। अपना वजूद खोते जा रहे हैं। जनसरोकार से हटकर टीआरपी के बीच खो गये हैं। ऐसे में इस प्रकार के तथाकथित पत्रकार आ गये जिनने बची खुची टोपी को बाजार में लाकर रख दिया। ऐसा नहीं है कि केवल हमारी कौम में ही गिरावट आई है अधिकारियों ने पत्रकारों को नागरिक मानकर सोचना शुरू किया है बदलाव का एक कारण यह भी है। इसलिए इन हादसों से सचेत होने की जरूरत है कहीं सच में पत्रकारिता लडखड़ा न जाये?

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