कैलाश विजयवर्गीय के बयान के बाद भाजपा में बढ़ी सरगर्मी, भाजपा गूंगे बहरों की पार्टी नहीं, हार की समी
- पार्षदों की संख्या में कोई कमी नहीं आने का मतलब जनता चाहती है भाजपा को। फिर हार की समीक्षा की घोषणा न होने पर सवाल।
- सिंधिया के प्रभाव वाले क्षेत्रों में चुनाव हारने की घटनाओं ने पार्टी नेतृत्व के कान खड़े किये। क्या सिंधिया के प्रभाव को कम करने में कामयाब हो गई कांग्रेस।
- प्रत्याशी चयन की गफलत से 2023 मिशन के खटाई में पडऩे के संकेत चिंताजनक
भोपाल (विशेष प्रतिनिधि)। भाजपा के महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय के खुले बयान के बाद पार्टी में बड़ी सरगर्मी दिखाई दे रही है। संगठन और सरकार इसे आदिवासियों विधायकों के क्रास वोटिंग से ढ़कने का प्रयास कर रही है। दूसरी तरफ विजयवर्गीय ने सिंधिया तक को लपेट लेने के बाद भाजपा के अन्दरखाने में सरगर्मी बढ़ गई है। सवाल दो ही उठ रहे हैं पहले जिन स्थानों पर पार्टी जीतती ही रही है वहां हार क्यों हुई और सिंधिया के आने के बाद भी ग्वालियर और मुरैना क्यों हारे। विजयवर्गीय के भी यही खास सवाल हैं।
नगर निगमों के चुनाव परिणाम के बाद भाजपा के 7 महापौर कम हो गये। पहले 16 थे अब 9 रह गये। इस हार के पीछे प्रत्याशी चयन को जिम्मेदार माना जा रहा है। ग्वालियर और मुरैना की हार के लिए तोमर और सिंधिया के तालमले की कमी को जवाबदेह ठहराया जा सकता है। यह समन्वय इस कारण नहीं बन पाया क्योंकि संगठन में इस कद का कोई भी नेता नहीं है जो दोनों को तलब करके समझा सके। इसलिए हार को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। दूसरी खास बात यह है कि जब सभी निगमों में भाजपा का महापौर था तब पार्षदों की कुल संख्या 874 में भाजपा के पास 511 पार्षद थे। अब सात निगम में महापौर हारने के बाद भी पार्षदों की संख्या 499 बरकरार है। इसका राजनीतिक जानकार यह अर्थ निकाल रहे हैं कि जनता तो भाजपा को हराना नहीं चाहती लेकिन प्रत्याशी मनमाफिक न होने का बदला कार्यकताओं ने भी लिया और जनता ने विकल्प को चुना। कांग्रेस कुछ जगह विकल्प बनी लेकिन दो जगह अन्य भी विकल्प बन गये। इस पर विजयवर्गीय ने बोल कर प्रमाणित कर दिया कि भाजपा गूंगे बहरों का संगठन
नहीं है।