कृषि सुधार कानूनों की देश को जरूरत
कृषि सुधार कानून वापस लिये जाने के बाद किसान नेता देश भ्सर में जीत का जश्र मना रहे हैं। हालांकि उनके जश्र में वह उत्साह नहीं है जो पंजाब से शुरू हुये आन्दोलन के वक्त था। वह उत्साह नहीं है जब राकेश टिकैत रोये थे और किसानों को हुजुम बार्डर की ओर चल दिया था। बालियान खाप ने अपने साथी की इज्जत से खुद को जोड़ लिया था। इसलिए कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के मन में दबी बात सामने आ गई। लेकिन यह बात राजनीतिक लाभहानि के बिना कही गई जिसको वापस लेने में देरी नहीं हुई। किसान नेता आन्दोलन की सफलता की बात कह तो रहे हैं लेकिन प्रमाण के तौर पर ऐसा कुछ नहीं दे पा रहे हैं जिससे उनकी जीत दिखती हो। कृषि सुधार के कानूनों को अपने हिसाब से और किसानों के हित के अनुसार संशोधित करवा कर किसानों का हित किया जा सकता था। किसान नेता इससे चूक गये। कानूनों को अपनी भावना और किसानों के संरक्षण के तौर पर नये सिरे तैयार करवाया जा सकता था और झुकी हुई सरकार ने उन्हें लागू करवा कर कथित काले कानूनों को वापस करवाया जा सकता था? लेकिन किसान नेता बिल वापस करवाने को ही अपनी जीत बता रहे हैं जो वास्तव में जीत न होकर हठधर्मी है। छोटे किसानों को इन बिलों से मिलने वाला था वह भी चला गया और हाथ में कुछ नहीं आया। एमएएसपी को लेकर अडियल रूख क्यों समाप्त हो गया यह अभी तक सामने नहीं आया है। दो बातें सभी नेता कहते थे। पहली तीनों काले कानून वापस हों और उमउसपी पर कानून बने। कानून वापस हो गये लेकिन एमएसपी पर कानून बनाने की बात तो हुई नहीं। एक कमेटी बनी है जो तय करेगी कि कानून बनना चाहिए या नहीं? अब किसान नेता पुराने जैसा उत्साह पैदा करने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे में किसानों के पास सात सौ चौहद किसानों की मौत और उनके लिए मुआवजा मात्र उपलब्धि है। पहले मरवाना और फिर मुआवजी लेना किसी आन्दोलन की उपलब्धि तो नहीं कही जा सकती है। इसलिए आजादी के बाद देश का सबसे अधिक समय तब चला कोई भी उपलब्धि लिये बिना समाप्त हो गया। विपक्षी दलों के प्रयासों को पानी फिरते देखने का यह आन्दोलन भी अपने आप में खास रहा है। विपक्ष आंख बंद करके किसानों के साथ खड़ा हो गया। उसे मोदी सरकार के कमजोर होने की उम्मीद यहीं से दिखाई दे रही थी। लेकिन रेत की तरह विपक्ष के हाथ से सब निकल गया। इसलिए प्रकार से किसान आन्दोलन के समाप्त होने का उत्साह किसानों में दिखाई नहीं दिया। अब राके टिकैत मीडिया की भूख शान्त करने का आधार भर बन गया है। राकेश से सवाल पूछे जाते हैं कि किसान भाजपा को वोट देगा या नहीं। जिन किसानों को राकेश की जमानत जब्त होने पर शर्म महसूस नहीं हुई वह उसके कहने पर वोट देगा यह मीडिया की करवा सकता है। पंजाब में किसान नेताओं को भी समझ में आ गया होगा कि आन्दोलन से आतंकवादियों की सक्रियता की बात सरकार द्वारा कही गई थी उसे किसानों से जोडक़र सहानुभूति प्राप्त की गई थी लेकिन लुधियाना कोर्ट में बलास्ट के तार की बात हो या फिर बेअदबी की आड़ लेकर भूखे व्यक्ति की हत्या का विभित्स कांड हो क्या कह रहा है। बार्डर पर भी एक दलित की हत्या का मामला पहले ही सरकार के आरोपों की पुष्टि करता दिख रहा था। पंजाब में गुरूद्वारों में नमाज पढऩे की छूट देने की बात तो अधिक चकित करने वाली बात है। यह पाकिस्तान की भाषा हो सकती है।
अब यह कहने में गुरेज नहीं है कि पंजाब की हालात को ध्यान में रखकर मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है। इसमें किसानों का सम्मान भी छुपा हुआ था क्योंकि बिना कानून वापस लिये आन्दोलन समाप्त नहीं होना था और आन्दोलन के रहते देश विरोधी ताकतों पर कार्यवाही संभव नहीं थी। पंजाब के चुनाव का मसला अधिक प्रभावी नहीं था क्योंकि यहां भाजपा के पास अपनी कोई खास ताकत थी ही नहीं। वह तो अकाली दल की सहयोगी पार्टी थी। पंजाब में भाजपा का कोई प्रभावशाली संगठन भी नहीं है। अब वहां पर संगठन को खड़ा करने और हरियाणा की तर्ज पर काम हो रहा है। संगठन भी खड़ा हो रहा है और बूथ कमेटिया भी तैयार हो रही हैं। इसमें पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह और अकाली दल के बड़े नेता रहे सुखदेव सिंह ढ़ीडसा के साथ मिलकर बड़ी रणनीति तैयार की है। भाजपा ने जालंधर में पार्टी का बड़ा मुख्यालय खोल लिया है और वहां से चुनाव का संचालन किया जायेगा।
अब बारी आती है केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के नागपुर में दिये बयान की। जिसमें पहला बयान सामने आया था कि हमने एक कदम पीछे किया गया है। हम फिर से आगे बढ़ेंगे। कृषि सुधार कानूनों से किसानों का भला होने वाला था। बिलों को वापस लाया जायेगा। अगले दिन यह बयान वापस ले लिया गया क्योंकि इस पर किसान नेता भी नाराज हो गये और विपक्ष भी राजनीति करने लग गया था। जिस प्रकार से किसान नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया दी है उससे यह लग सकता है कि किसान नेताओं को यह पता है कि पांच राज्यों के चुनाव के बाद केन्द्र की मोदी सरकार तीनों बिलों को सर्वमान्य फारमेट में फिर से पेश करेगी। इसलिए उनका तीखा विरोध नहीं आया। कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने भी उसी बात को नई भावना और प्रतिक्रिया का दम देखने के लिए यह बात कही है। जिन किसानों को यह लग रहा है कि सरकार ने उनका नुकसान कर दिया है उनके पास भी संदेश चला गया कि कानून तो वापसी के लिए ही वापस लिये गये हैं। इसलिए कृषि का मंत्री का बयान भी महत्वपूर्ण हो जाता है और बयान की वापसी उससे अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। देश को कृषि सुधार व्यवस्था की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान वाली कृषि को आधुनिक बनाने की दिशा में उद्योगों की तुलना में कम साथ मिला है। वैज्ञानिकों का प्रयोग कृषि पर उतना नहीं हो पाया है जिनता अन्य क्षेत्रों में मिला है। जिस महामारी की वैक्सीन हमारे वैज्ञानिक एक साल में तैयार करके दे सकते हैं लेकिन कृषि के सुधार खेतों में आजादी के पच्हतर वर्ष के उपरान्त भी दिखाई नहीं देते हैं। ऐसे में किसान नेताओं को भी पुरानी परम्पराओं को बदलने में साथ देना चाहिए और सुधार प्रोग्राम को मिलकर प्रभावी बनाने की दिशा में साथ देना चाहिए।
संवाद इंडिया