‘कृषि’ सुधारों पर अब चूके तो ‘पछातना’ ही बचेगा
भोपाल। किसान आन्दोलन को लम्बा समय हो गया। गणतंत्र दिवस के दिन आन्दोलन में शामिल कुछ लोगों ने जो किया उससे आन्दोलन न केवल दिशाहीन हो गया बल्कि बेमतलब भी हो गया। उसके बाद भी देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक में किसानों को फिर से चर्चा के लिए रास्ता खोलने की बात कही। उन्होंने कहा कि एक फोन काल की दूरी है और हम किसानों के साथ बात करने को तैयार हो जायेंगे। फोनकाल का मतलब यह है कि कृषिमंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने किसानों को जो प्रस्ताव दिया था उसे किसान नेता स्वीकार करें और बातचीत के लिए आयें। लेकिन किसानों नेक चौथी बार प्रधानमंत्री की बात की अनसुनी की है। ऐसे में यह तो नहीं लगता कि किसान बात मानेंगे या सरकार झुकेगी। सरकार को झुकना होता तो इतने दिन की जरूरत क्यों लगती। लेकिन इसके बाद भी कृषि के जानकारों का अभिमत देखने के लायक है। कृषि सुधारों की जरूरत सबसे बड़ी जरूरत है। मनमोहन सिंह ने व्यापार या आर्थिक सुधारों का सिलसिला शुरू किया था। उसमें कृषि के सुधार शामिल नहीं थे। कियसान नेता तब भी नहीं बोले। डंकल प्रस्ताव को भी थोड़े से विरोध के बाद स्वीकार कर लिया। लेकिन अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में कृषि सुधार के प्रयास हुये हैं उनका विरोध यह संदेश देने के लिए पर्याप्त हैं कि सुधार रोके गये तो किसानों के पास पछताने के अलावा कुछ शेष नहीं बचेगा।
कृषि सुधारों के माध्यम से बेहतर अधोसंरचना तैयार करने का रास्ता निहित है। कृषि और उद्योगों का तालमेल ही कृषि को अधिक लाभ का ध्ंाधा बनाये जाने का रास्ता खोलेगा। आज आशंकायें ही हैं लेकिन किसान इन आशंकों को संभावनाओं में बदलने की क्यों नहीं सोच रहा है। किसान अपने लाभ के समझौते क्यों नहीं कर पायेगा ऐसी कल्पना करने में क्या जाता है? न्याय किसान को नहीं मिलेगा और उद्योग जबत ही ले जायेगा ऐसी कल्पना करने से क्या फायदा होगा। जबकि किसानों के प्रति सरकारों की सहानुभूति व्यवहारिक भी है और राजनीतिक भी। इसलिए कृषि विशेषज्ञों का मत है कि यदि किसान नेतागिरी की आड़ में बड़ी जोत और आढ़तियों के प्रतिनिधि और समर्थक राजनीतिक पार्टियां चंदे के दम पर सुधारों को रोकने का प्रयास कर रहे हैं। छोटी जोत के किसान समूह बनाकर अपनी उपज का लाभ ले सकते हैं जो अब नहीं ले पाते हैं। इसलिए जानकारों का मानना है कि सुधारों का इस हद तक विरोध करना न जो जायज है और न ही किसान हित में।
जिस प्रधानमंत्री ने अपने परिवार को एक बार भी लाभ नहीं दिया वह उद्योगों के लाभ के लिए इस प्रकार छि जायेगी यह कल्पना करना ही व्यवहारिक नहीं है। जिस प्रधानमंत्री के निर्णयों ने आजतक देश को गौरव प्रदान किया है वह किसान जैसी रीढ़ की हड्डी को तबाह करेगा ऐसी कल्पना राजनीति से अलग होकर और क्या हो सकता है? इसलिए कृषि सुधार के इन बिलों में कोई कमी है तब उसे सुधार के लिएतो कहा जा सकता है। यदि इसे समाप्त करने की जिद की जायेगी तो कोई भी नेता आरक्षण की भांति फिर किसानों के मामले में हाथ नहीं डालेगा? किसानों की पीढिय़ों को रोने के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं बचेगा?