कुत्ते की पूंछ पर बी फॉर्म बांधने का समय अब तो बिल्कुल भी नहीं है
भोपाल (सुरेश शर्मा)। भाजपा के सबसे बड़े नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री स्व.सुंदरलाल पटवा ने भोजपुर विधानसभा की टिकट के संदर्भ में स्थानीय दावेदारों को धमकाते हुए एक बार कहा था। मैं कुत्ते की पूंछ पर बी फार्म बांधकर भेजूंगा तो वह भी विधायक का प्रमाण पत्र लेकर लौटेगा। हालांकि वह चुनाव भाजपा हार गई थी। वह ऐसा ही समय था किंतु आज न तो जनता में और न ही पार्टी के कार्यकर्ताओं में नेताओं की इतनी ठसक शेष बची है। नेता खुद को सर्वव्यापी मानने लग गए और कार्यकर्ता पेशेवर हो गया। ऐसे में जिन – जिन क्षेत्रों में नेताओं ने जिद करके टिकट बांटी वहां कार्यकर्ताओं ने उन्हें हार का स्वाद चखा दिया। बात चाहे कटनी की हो या फिर जबलपुर की। इंदौर में जरूर कड़े मुकाबले में भाजपा के पुष्यमित्र भार्गव विजयी रहे। निकाय चुनाव में जनता यद्यपि भाजपा के साथ दिख रही है लेकिन कार्यकर्ताओं के गुस्से ने कांग्रेस को गदगद कर दिया।
नगरीय चुनाव परिणामों के बाद भाजपा में चिंतन की जरूरत, कार्यकर्ता को बंधुआ समझना खतरनाक
इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये है कि स्व.पटवा और मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की कार्यशैली में बड़ा अंतर है। पटवा जी जनाधार वाले नेता थे लेकिन उनकी ठसक और अंदाज ही उनकी राजनीतिक ताकत थी। वहीं श्री चौहान जनता के बीच में परिवार के सदस्य की भांति लोकप्रिय हैं। इसलिए वे प्रदेश की सत्ता पर सबसे अधिक समय तक काबिज रहने वाले नेता बन गए हैं। जिस प्रकार के निकाय चुनाव परिणाम आये हैं उसे उनकी लोकप्रियता में किसी भी प्रकार की कमी का संकेत मान लेना जल्दबाजी होगी। यह माना जा सकता है कि भाजपा की सत्ता को मीडिया के विषयों में छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस की ओर से कोई चुनौती दिख नहीं रही है। कांग्रेस के जो पांच महापौर जीते हैं उनमें केवल छिंदवाड़ा और मुरैना वाले के पास ही सदन में भी बहुमत है। बाकी स्थानों पर पार्षदों के बहुमत के कारण अध्यक्ष भाजपा का ही होगा। नगर परिषद और नगर पालिकाओं में तो कांग्रेस कहीं भी ठहरती दिख नहीं रही है। केवल महापौर के 5 आंकड़ों के साथ मीडिया सरकार को घेरने का प्रयास कर रहा है और उसी का आनंद उठा कर जश्न मना रही है कांग्रेस।
भाजपा के साथ जनता पर गलत प्रत्याशी का चयन पड़ा भारी
पार्षदों की बड़ी संख्या में जीत इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जनता भाजपा के प्रत्याशी को जिताना चाहती है परंतु जिन स्थानों पर प्रत्याशी चयन सही नहीं हुआ वहां जरूर वह हार गई। अन्यथा यह माना जा सकता है कि सिंगरौली में आरक्षण का प्रयोग, कटनी में अपने-पराए का भेद और जबलपुर में पैराशूट पद्धति से प्रत्याशी नहीं उतरता तो महापौर की 3 सीटें भाजपा के खाते में और आ जातीं। ग्वालियर के मामले में सबको पता है नेताओं की आपसी टकराहट का मजा कांग्रेस प्रत्याशी और पुरानी भाजपाई नेता को मिल गया। कांग्रेस खुश है और भाजपा अपने किए गए गलत निर्णय के कारण जश्न मनाने का ढोंग कर रही है।
गंभीर सवाल संगठन के संगठकों पर
उम्मीद है निकाय चुनाव के बाद भाजपा में किसी भी प्रकार के टकराव की संभावना अब नहीं बनेगी और मंथन में सब एक दूसरे की गलतियां ढकने का प्रयास करेंगे। संगठन की अधिक जि मेदारी होने पर गंभीर सवाल संगठन के संचालकों पर होगा। प्रदेश संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा पर यह सवाल होगा कि वह प्रत्याशियों की जिद पर राजनीतिक नेतृत्व की बात कैसे मान गए? केंद्रीय सह संगठन महामंत्री शिवप्रकाश जो पार्टी में निचले स्तर तक गए उसके बाद भी महापौर की संख्या घटने का लांछन वे अपने ऊपर कैसे नहीं आने देंगे? प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव से न कोई सवाल पूछेगा न कहीं उल्लेख होगा।
क्या पार्टी की दुर्दशा कराने वाले दो केंद्रीय मंत्रियों से चर्चा होगी
ग्वालियर चंबल अंचल में पार्टी की दुर्दशा कराने के लिए केंद्रीय मंत्रीद्वय नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ वन टू वन चर्चा कब होगी यह सवाल सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रदेश अध्यक्ष की व्यक्तिगत इच्छा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा प्रत्याशियों के नाम का फतवा जारी करने की प्रवृत्ति को मिली चुनौती से भाजपा क्या फिर से सामूहिक नेतृत्व में चर्चा करने की पद्धति के साथ आगे बढ़ेगी? यदि ऐसा हुआ तो 2023 में स्थिति बदलेगी अन्यथा 2018 जैसे हालात से रूबरू होना पड़ सकता है। यहां उल्लेख करने वाली बात यह है कि कांग्रेस के कार्यालय में जो जश्न का माहौल बना है वह उसके पुरुषार्थ से कम भाजपा की गलतियों से अधिक है। सही बात तो ये है कि भाजपा में तेजी से कार्यकर्ता को बंधुआ समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो खतरनाक हो सकती है।