किसान नेताओं के कहने पर कौन देगा वोट?

किसान आन्दोलन में लगातार भटकाव

किसान नेताओं के कहने पर कौन देगा वोट?

::  सुरेश शर्मा  ::

किसान आन्दोलन अपने कार्यकाल का सैंकड़ा लगाने की स्थिति में आ गया। आन्दोलन की स्वरूप बदल गया और किसान नेता खीज निकाल रहे हैं। राकेश टिकैत जिन राज्यों में चुनाव हैं वहां पर प्रचार कर रहे हैं और भाजपा को वोट न देने की अपील कर रहे हैं। उनका कहना है कि जिसको वोट देना हो दो लेकिन भाजपा को वोट नहीं। सवाल यह है कि जो राकेश खुद चुनाव में दो-दो बार अपनी जमानत जब्त करा चुके हैं उनके कहने पर बंगाल जैसे राज्य में जनता मतदान करेगी? इस प्रश्र का उत्तर कोई भी किसान नेता देने की स्थिति में नहीं है। इतना जरूर है कि किसान आन्दोलन लगातार गिरावट की ओर जा रहा है। किसान की गरिमा का क्षरण किया जा रहा है। जबकि देश में सुधारवादी प्रोग्राम लगातार चलते रहे हैं इसलिए सुधारों का विरोध करना कभी भी उचित नहीं माना गया है। देश में कई राजनीतिक पार्टियां हैं वे चुनाव लड़ती हैं और उन्हें प्रचार करने का हक आयोग ने दिया भी है। लेकिन किसान नेताओं का इस प्रकार प्रचार के लिए मैदान में आना अपनी विफलताओं पर परदा डालने जैसा है। अभी तक किसान आन्दोलन के कारण केन्द्र सरकार का संचालन कर रही भाजपा को कोई नुकसान हुआ ऐसा कोई प्रमाण सामने नहीं है। वैसे भी अब किसान आन्दोलन किसानों का न होकर समाज और जातियों का आन्दोलन हो गया है। मसलन राकेश टिकैत के साथ आन्दोलन में किसान न होकर बालियांन खाप के लोग हैं यही हाल पंजाब के किसानों का है।

हमें इस बात पर मंथन करना होगा कि राकेश टिकैत के आंसुओं से आन्दोलन में फिर से जान आने का समाचार आया था। लेकिन वास्तव में देखने पर यह तथ्य सामने आया है कि राकेश के सामर्थन में किसान कम थे अपितु बालियांन खाप के लोग अधिक थे। जिन्होंने इसके प्रभाव में आकर समर्थन देने का सिलसिला शुरू किया था वे कुछ दिन बाद लौट आये। अब आन्दोलन सामाजिक प्रतिष्ठा का हो गया है। यह प्रतिष्ठा भी तब तक ही रहती है जब आप चुनाव प्रकिया का हिस्सा नहीं बनते हैं। केन्द्र की मोदी सरकार ने किसानों को सुधार प्रोग्राम का हिस्सा बनने के लिए किसान नेताओं से आग्रह किया था लेकिन वे उसमें सुझाव देने या शामिल होने की बजाये बिलों को रद्द करने की मांग तक ही अपने सीमित रखे रहे। सरकार और न्यायालय ने बिलों को होल्ड करने निर्णय लेने के बाद भी किसान नेता कृषि सुधार के साथ जुडऩे का तैयार नहीं हुए। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि किसान आन्दोलनकारी नेता कहीं और से गर्वन हो रहे हैं। जिसका प्रमाण भी देश-विदेश से मिलता ही रहा है। इसलिए किसानों की मांग मानने और अन्य सुझाव देने की बात आगे चल ही नहीं पाई? कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने संसद में सभी का आव्हान किया था बिलों में क्या कमी है यह बताने के लिए कोई भी आगे आ सकता है। हालांकि किसी ने बिलों में कोई कमी तो नहीं बताई लेकिन किसानों को राजनीतिक लाभ के लिए समर्थन देते रहे और वह समर्थन भी अब कम होता दिखाई दे रहा है।

किसान आन्दोलन के दो धु्रव पंजाब और यूपी में तनाव बना हुआ है। पंजाब के नेतागण जिस तैयारी से आन्दोलन करने आये थे वह परिणाम की दिशा में नहीं गया जिसमें वे ले जाना चाहते थे। गणतंत्र दिवस की घटना ने किसान आन्दोलन की कमर को तोड़ दिया। उसके विश्वास को भंग कर दिया। उसमें आतंकी कनेक्शन को सामने ला दिया। उसमें विदेश हितों का उजागर कर दिया। इसलिए पंजाब के आन्दोलनकारी सबसे अधिक घाटे में रहे। वहां चुनाव में कांग्रेस ने जो पाना था वह पा लिया। समाचार यह सामने लाये गये कि पंजाब में किसानों ने भाजपा से बदला ले लिया लेकिन इसमें सच्चाई नहीं है। वहां चुनाव का सबसे अधिक नुकसान अकाली दल को हुआ है। जिसने राजग को छोड़ा। मंत्री का पद छोड़ा और बदले में मिला निकाय चुनाव में करारी हार। इसलिए भाजपा के हार का कोई मतलब निकालना ही उचित नहीं है। गुजरात में निकाय के चुनाव हुए कांग्रेस अधिकांश निकायों में दहाई तक नहीं पहुंच पाई। किसानों ने भाजपा का साथ दिया। वहां भाजपा की एकतरफा जीत हुई। अब पांच राज्यों के चुनाव हो रहे हैं। किसान नेता भाजपा को हराने के लिए वोट देने की अपील कर रहे हैं। ऐसा करने से किसान आन्दोलन का परिणाम सामने आ जायेगा तो फिर आप करिये। लेकिन जिन किसान नेताओं ने चुनाव लड़कर अपना भाग्य आजमा लिया उनके कहने पर अन्य राज्यों में वोट मिलेंगे इसकी संभावना पर सवाल उठना स्वभाविक हैं। मोदी सरकार ने किसानों को 6 हजार रुपये साल की मदद की थी बंगाल वह राज्य है जिसने किसानों को यह मदद मिलने नहीं दी। ऐसे राज्य में किसान आन्दोलन मदद देने वालों का विरोध करने आये हैं और उनका समर्थन करने आये हैं जिन्होंने मदद मिलने रोका है। यह किसान नेताओं के विश्वास को संकट में डालेगा। यह बड़ा प्रयास होना चाहिए कि किसान नेता अपने किसान होने का धर्म अदा करें।

सवाल यह है कि क्या किसान नेता चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं? यह तभी हो सकता है जब किसान एक समूह बनाये और उनमें राजनीतिक विचार घर ने करे। लेकिन ऐसा नहीं है कि देश में ऐसा वगीकरण हो गया हो। कृषि सुधार बिल एक यूनिट है जबकि मोदी सरकार का काम और पहले की सरकारों के काम  की तुलना में देश के लिए अधिक हितकारी दिखाई दिया है और प्रमाण भी ऐसे हैं। महिलाओं के लिए हुये काम, देश की सुरक्षा के लिए किये गये प्रयास, आतंकवाद और कश्मीर को लेकर लिये गये निर्णय, राम मंदिर के लिए आया न्यायालय का निर्णय जिसमें सरकार ने अनुकूलता बनाई। इतने कामों के बीच किसानों के लिए किये गये कामों के मामले में भी मोदी सरकार के काम की अनदेखी नहीं की जा सकती है। देश की आर्थिक हालात सुधारने के प्रयास। कोरोना के समय देश को संभालना और आज विश्व के वैक्सीन देकर भारत की ताकत का अहसास कराना भी मोदी सरकार की उपलब्धि है। यदि इसके बाद भी किसान नेता इस प्रकार का प्रचार करके देश में भाजपा को हराने की अपील करते हैं तब इसे केवल खीज ही कहा जायेगा। यह खीज केवल राकेश टिकैत में अधिक दिखाई दे रही है।

विपक्ष के नेतागण पहले किसानों के साथ खड़े दिखाई दे रहे थे लेकिन अब उन्हें यह मालूम है कि किसान नेताओं की नियत पर आम व्यक्ति को आशंका हो रही है। जनता में वह आकर्षण नहीं रहा जो गणतंत्र दिवस से पहले दिखाई दे रहा था। मीडिया की सहानुभूति भी किसान नेताओं ने खो दी है। आज तक कोई भी किसान नेता बिलों की कमी की बात करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। इससे किसान नेताओं के साथ सामाजिक सरोकार का साथ हो तो एक बात है। किसान नेता हैं इसलिए कुछ किसान साथ हों दूसरी बात है लेकिन बिलों का लाभ जिन छोटी जोत के किसानों को मिलेगा वे सरकार के साथ हैं। सरकार छोटे किसानों को लाभ दे रही है खाते में नकद राशि डाल रही है उसका लाभ पाने वाले किसान इन आन्दोलनकारी किसानों की बातों में आयेंगे? यह सवाल उठता है। किसान आन्दोलन कारियों में आन्दोलन को लेकर भटकाव पहले दिन से ही था अब चुनाव में कूछ कर वे अपना रास्ता पूरे तौर पर बंद करना चाह रहे हैं। यदि बंगाल के चुनाव में भाजपा की सरकार बन जाती है तब किसान नेताओं के अस्तित्व की जानकारी मिल जायेगी। यदि भाजपा की सरकार नहीं बनी तब किसान नेताओं के साथ राजनीतिक विवाद की स्थिति बनेगी ही। इसलिए किसान नेताओं का स्टेंड आने वाले समय की नई राजनीति की नई पटकथा की ओर संकेत दे रहा है। खासकर राकेश टिकैत की राजनीति का नया संस्करण सामने आयेगा? सवाल यह भी उठ रहा है कि बालियान खाप के नेता और लोग इस निर्णय से सहमत होंगे कि राकेश टिकैत के लिए खाप सरकार गिराने का पाप कर सकती है? फिर पुराने घिटे पिटे दिन वापस लाकर देश की धारा को बदलने का जोखिम उठा सकती है? शायद नहीं।
                                                        संवाद इंडिया
 

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