कर्नाटक से भोपाल आकर चुनाव लड़े जगन्नाथ राव जोशी जनसंघ को दिलाई पहली जीत
भोपाल में नवाबी शासन रहा है। देश की आजादी के बाद यहां के समीकरण कुछ खास किस्म के रहे हैं। जब 1952 में पहला आम चुनाव हुआ तब नवाब घराने की मैमूना सुल्तान को चुनावी मैदान में उतर गया था। पहले चुनाव में दो सदस्यों के निर्वाचन की परंपरा थी इसलिए मैं मैमूना सुल्तान के अलावा पंडित चतुर नारायण मालवीय भी लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे। 1957 और 1962 के आम चुनाव में भोपाल का प्रतिनिधित्व मैमूना सुल्तान ने ही किया था। लेकिन 1967 के चुनाव में कर्नाटक से भोपाल आकर चुनाव लड़े जगन्नाथ राव जोशी यहां से जनसंघ की टिकट पर पहली जीत दर्ज कराई थी। इसके बाद यह संदेश चला गया भोपाल में एक बड़ा राजनीतिक बदलाव आ सकता है। भारत के राष्ट्रपति रहे डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा भोपाल लोकसभा सीट से दो बार सांसद रहे।

सुरेश शर्मा। भोपाल में नवाबी शासन रहा है। देश की आजादी के बाद यहां के समीकरण कुछ खास किस्म के रहे हैं। जब 1952 में पहला आम चुनाव हुआ तब नवाब घराने की मैमूना सुल्तान को चुनावी मैदान में उतर गया था। पहले चुनाव में दो सदस्यों के निर्वाचन की परंपरा थी इसलिए मैं मैमूना सुल्तान के अलावा पंडित चतुर नारायण मालवीय भी लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे। 1957 और 1962 के आम चुनाव में भोपाल का प्रतिनिधित्व मैमूना सुल्तान ने ही किया था। लेकिन 1967 के चुनाव में कर्नाटक से भोपाल आकर चुनाव लड़े जगन्नाथ राव जोशी यहां से जनसंघ की टिकट पर पहली जीत दर्ज कराई थी। इसके बाद यह संदेश चला गया भोपाल में एक बड़ा राजनीतिक बदलाव आ सकता है। भारत के राष्ट्रपति रहे डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा भोपाल लोकसभा सीट से दो बार सांसद रहे। एक बार 1971 में और दूसरी बार 1980 में। हालांकि 1984 के गैस कांड के बाद भोपाल लोकसभा चुनाव के परिणाम की यह अपेक्षा की जा रही थी कि वह भाजपा प्रत्याशी लक्ष्मी नारायण शर्मा के पक्ष में जाएंगे। लेकिन के एन प्रधान ने उन्हें लंबे अंतर से पराजित कर दिया। इसके पीछे कांग्रेस के परंपरागत मुस्लिम वोट और कायस्थ समाज के वोटो का समीकरण देखा गया। यहां परंपरागत मुस्लिम वोटो का उल्लेख करना विशेष घटनाक्रम की ओर इंगित करता है।
1980 के लोकसभा चुनाव के समय डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा के लिए यह सीट जीत पाना काफी कठिन प्रतीत हो रहा था। उस समय वोटो के लिए एक विशेष समझौता हुआ था। भोपाल की सुप्रसिद्ध ताजुल मस्जिद के पास जितनी भी सरकारी जमीन थी वह ताजुल मस्जिद को दे दी गई। विचित्र विषय तो यह था वहां लोक शिक्षण संचालनालय का कार्यालय था वह स्थान भी स्थानांतरित करने की शर्त पर मुस्लिम समुदाय को दे दिया गया। इस संचालनालय में स्थित एक मंदिर जिसमें बरसों से अखंड रामायण का पाठ चलता था। इस समझौते में उस मंदिर को भी वहां से हटाकर किसी अन्य स्थान पर ले जाने की भी एक शर्त थी। अंततः वह शर्त पूरी हुई और हिंदू एकता मंच के द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन का भी उस पर कोई असर नहीं हुआ। हालांकि केएन प्रधान यहां से एक बार लोकसभा का चुनाव जीते। इसके बाद यह सीट कभी भी कांग्रेस के पक्ष में नहीं गई। चार बार सुशील चंद्र वर्मा जो प्रदेश के मुख्य सचिव भी रहे थे। दो बार कैलाश जोशी, एक बार उमा भारती तथा एक-एक बार आलोक संजर और साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर निर्वाचित हुई है। इसी सीट से भाजपा ने अपने पूर्व महापौर आलोक शर्मा को टिकट दिया है। उनके सामने जिला पंचायत की अध्यक्ष रही श्रीमती विमला श्रीवास्तव के पुत्र अरुण श्रीवास्तव मैदान में है। चुनाव परिणाम को लेकर किसी को भी अधिक संशय नहीं है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम ने मुस्लिम बहुलता वाली इस लोकसभा सीट को भाजपा के खाते में ला खड़ा किया।
यह आलेख हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है