‘कमलनाथ’ यह सब पहले सीख लेते तो ‘फेल’ नहीं होते
सुरेश शर्मा
भोपाल। कई बार व्यक्ति घोड़े पर सवार होता है तब उसे कोई दूसरा समझदार दिखाई ही नहीं देता है। पूर्व मुख्यमंत्री और राजनीति के अजेय योद्धा कमलनाथ की स्थिति भी मध्यप्रदेश आने से पहले ऐसी ही थी। आज जिस प्रकार की राजनीति वे कर रहे हैं यदि यह प्रदेश आने के साथ ही शुरू करते तो इस प्रकार से अजेय से असफल नेता की श्रेणी में नहीं आते। हालांकि वे अब भी इस उम्मीद के साथ प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हैं कि उपचुनाव बेड़ा पार लगा देंगे। प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके कब्जे में होगी। वास्तव में कमलनाथ ने अपने डेढ़ साल के कार्यकाल में ऐसा उल्लेखनीय कार्य या तो किया ही नहीं या बताया नहीं जिसका लाभ जनता को मिल हो। अपना कर्जमाफी का वादा वे पूरा कर पाये यह भी उनके खाते में नहीं जाता। वे किसानों को गुमराह करते रहे यह अधिक प्रचारित हो गया और वे बदले की भावना से काम करने की अपनी रणनीति को भी दबाकर नहीं रख पाये। उनके सलाहकार तो चुनौती देकर बदला निकालते थे। लोकस्वामी अखबार को धूल में मिलाने के बाद जिस प्रकार से अखबारों पर दमन चक्र चलाया वह किसी से छुपा नहीं था। यही हाल राजनीतिक क्षेत्रों का भी रहा। विरोधी दल को छोडिय़े अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को सड़क पर उतरने की कह कर सभी हदें ही पार कर दी थीं। यह सब ही उनकी सरकार के अल्पजीवी होने का कारण बने थे।
भाजपा के एक बड़े नेता ने मुझ से कहा था कि कमलनाथ सरकार का अन्त उसी दिन हो जायेगा जिस दिन जनता त्राही-त्राही करने लग जायेगी। वह दिन सरकार के गिरने के समय महसूस भी हुआ। इसका प्रमाण यह था कि सरकार गिरने के बाद प्रदेश में जश्र न भी दिखा हो मायूसी दलालों को छोड़कर कहीं नहीं दिखी। कमलनाथ को सलाह देने वाले लोग लाभ लेने की मानसिकता से उन्हें गुमराह करते थे। होर्डिंग घोटाला इसका प्रमाण है। लेकिन इन दिनों कमलनाथ का बयान जनसमस्याओं को लेकर होता है। उनके लिए बयान जारी करने वाली टीम समस्याओं को रेखांकित करती है। लेकिन चूक केवल यह हो रही है कि उनके कार्यकाल की अवधि के समान काम उसकी हवा निकाल देते हैं। दिग्विजय सिंह और उनकी सरकार के गिरने वाला बयान हो या फिर प्रदेश में शिवराज सरकार की आलोचना करने के तरीकों की बात हो कमलनाथ की कार्यशैली में बदलाव तो आया है। फिर भी सब लुटा कर संभले तो क्या संभले? कमलनाथ रणनीति बनाने और उसको पूरा करने में माहिर नेता हैं। अब वे भाजपा के नेताओं को तोड़कर उपचुनाव में दांव लगाना चाह रहे हैं। लगाना भी चाहिए।
यदि कांग्रेस से भाजपा में आये लोगों को देखा जाये तो चुनाव जीतने वालों की संख्या अधिक है। जनता में उसी की स्वीकार्यता अधिक होती है जो संगठन की तय लाइन पर चलता है। लेकिन भाजपा से कांग्रेस में गये तीन बड़े चेहरों की बात की जाये तो उन्हें चुनाव में हार का सामना ही करना पड़ा। सरताज सिंह ने अर्जुन सिंह को हराया था लेकिन अपने शिष्य से ही हार गये। रामकृष्ण कुसमारिया गये थे धमक से लेकिन अब न साख बची न ही वापसी का रास्ता। कुवंर विजय शाह के भाई अजय शाह भी कांग्रेस में गये थे लेकिन जीत ने वरण नहीं किया। इसलिए जो कांग्रेस जायेंगे उनका क्या भविष्य होगा इसका मूल्यांकन तो परिणाम के बाद ही होगा?