कई कांग्रेस राज्यों में गृहयुद्ध के आसार

मोदी की आलोचना में मसगूल राहुल गांधी (सुरेश शर्मा)। जब पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष और गांधी परिवार के प्रमुख सदस्य राहुल गांधी अपनी ही पार्टी के नेताओं से कहते हैं कि जिनको डर लगता है वे आरएसएस या भाजपा में चले जायें, तब इसके बड़े मायने हैं। पिछले सात साल से राहुल गांधी या प्रियंका वाड्रा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने में लगे रहे और कांग्रेस पार्टी डर के मारे नेताओं का जमावड़ा बन गई। न संगठन की ओर ध्यान और न ही आगे की जमावट। केवल एक ही काम हर दिन की शुरूआत मोदी का नाम लेने और आलोचना का कोई सूत्र तलाशने में होती है। परिणाम यह निकला की चुनाव वाले राज्यों में कांग्रेस का ग्राफ गिरता ही जा रहा है और जिन राज्यों में कांग्रेस कुछ पावरफुल है वहां अन्तर कलह चरम पर है। राजस्थान में सचिन पायलट की बगावत अभी भी नहीं थमी है तो पंजाब में चुनाव से पहले मचा घमासान अकालियों की सत्ता की आस को जगा रहा है। छत्तीसगढ़ में ढाई साल का फार्मूला स्वीकार नहीं करने की चर्चा ने वहां भी कान खड़ कर रखे हैं। जबकि मध्यप्रदेश में वे कमलनाथ अपनी सरकार नहीं बचा पाये जिनको अब कांग्रेस बचाने की जिम्मेदारी देने की बात चल रही है। कांग्रेस महात्मा गांधी के उस कथन को पूरा करने की दिशा में कदम दर कदम चल रही है जो उन्होंने आजादी मिलने के बाद कही थी। कांग्रेस की विचारधारा मोदी व संघ का विरोध भर रह गई है। ऐसे कार्य पार्ट टाइम होते हैं बाकी समय संगठन की संरचना की योजना बनती है।

राहुल गांधी की मोदी पुराण अब जनता को छोडिय़े कांग्रेस के नेताओं को भी असहज कर देती है। जब राफेल के मामले में न्यायालय में राहुल गांधी को हार और फटकार मिली तब से कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये थे। जनता ने दो चुनाव में विपक्ष का नेता बनने लायक हैसियत भी नहीं दी अब तो विश्वास का संकट भी सामने आता दिखाई दे रहा है। जिन राज्यों में किसानों की कर्जमाफी का चमकदार नारा देकर सत्ता पाने में सफलता पा ली वहां सरकारों पर अविश्वास के बादल मंडराने लग गये हैं। मध्यप्रदेश में तो सरकार ही चली गई जबकि राजस्थान में सरकार चल तो रही है लेकिन अन्तरकलह चरम पर है। बे सिर पैर के आरोप लगाने के कारण पार्टी के राष्ट्रीय स्तर पर विश्वास का संकट मंडराता दिखाई दे रहा है। पिछले दिनों हुए बंगाल चुनाव में बिना संगठन वाली भाजपा को तीन से 77 सीटें मिल गई जबकि विपक्ष के नेता की ताकत रखने वाली कांग्रेस और वाम पार्टियां शून्य के स्कोर तक सिमट गई। यह स्थिति कांग्रेस को शर्मनाक लगने की बजाए भाजपा की आलोचना करने का इसमें भी रास्ता दिखाई दे रहा था। असम के चुनाव में पार्टी की हालात कोई उत्साह देने वाली नहीं रही।

अब यूपी सहित कुछ राज्यों के चुनाव की संभावना बन रही है। जिसमें कांग्रेस शासित पंजाब भी शामिल है। पंजाब में भाजपा में स्टार प्रचारक रहे नवजोत सिंह सिद्धु को स्थापित करने में पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह के वंशज कैप्टन अमरिन्द्र सिंह को कमजोर किया जा रहा है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी को सत्ता के करीब पहुंचने का रास्ता खोला जा रहा है। कांग्रेस की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस गुजरात में उसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से मुकाबला करना है वहां पर पार्टी की कमान हार्दिक पटेल को सौंपी हुई है। जिनका राजनीतिक अनुभव आन्दोलन भर का रहा है। अब पंजाब में क्रिकेटर और लाफ्टर नवजोत सिंह सिद्धु को पंजाब कांग्रेस की कमान दिये जाने की चर्चा चल रही है। जो कांग्रेस की संस्कृति और विचारधारा को पहचानते तक नहीं हैं। पंजाब में सरकार राजस्थान की भांति बदल-बदल की दी जाती है। एक बार कांग्रेस दूसरी बार अकाली दल। पिछली बार दोबारा आकाली दल को मोदी की चमक का लाभ मिलने से दोबारा सरकार मिल गई थी। अब अकाली दल मोदी से दूर किनारे पर खड़ा है तब कांग्रेस की संभावना दिखाई दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी और अन्य नेता भाग्य को ठोकर मारने का प्रयास करते दिखाई दे रहे हैं।

अभी एक चर्चा बड़ी जोरों से सामने आ रही है। कहा जा रहा है कि कमलनाथ को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बना कर नया प्रयास किया जाये। इससे जी-23 नेताओं की बात मानी समझी जायेगी और कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रभाव का मूल्यांकन हो जायेगा। अभी यह बात चर्चा में है और इस संभावना के चलने मध्यप्रदेश में सरकार लुटा चुकी कांग्रेस में पदों की होड़ शुरू हो गई। लेकिन प्रदेश के कमलनाथ विरोधी नेता यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि जो कमलनाथ अपनी सरकार को नहीं बचा पाये और सिंधिया को पार्टी से निकालकर ही दम लिया। वह नेता कांग्रेस को बचा लेंगे यह कैसे संभव है? लेकिन सोनिया गांधी कमलनाथ में संगठन का मनमोहन सिंह तलाश रही हैं। समीक्षक मानते हैं कि कमलनाथ मनमोहन सिंह नहीं हो सकते हैं। उन्होंने मध्यप्रदेश में जिस तरीके से बदले की मानसिकता से काम किया है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कमलनाथ को मौन रखना और नियंत्रित करना सोनिया या शेष गांधी परिवार के बूते की बात नहीं है। इसलिए या दाव उलटा पडऩे की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

कांग्रेस में गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है। जी-23 के नेताओं ने बार-बार कहा है कि संगठन की चिंता करने वाला कोई नेता नहीं है। राहुल गांधी के बारे में प्रयोग कामयाब नहीं हुए। प्रियंका गांधी की समझ राहुल से अधिक नहीं है इसलिए उन पर दाव लगाने का मतलब यह हुआ कि मोदी को फिर वाकओवर दिया जा रहा है। कांग्रेस अपना एजेंडा भी सेट नहीं कर पा रही है। मतदाताओं में मोदी का विरोध करने और संघ की आलोचना करने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। पहली बार संघ के स्वयसेवक सभी प्रमुख पदों पर हैं। अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं। राम मंदिर बनने जा रहा है। कश्मीर से धारा 370 हट गई। समान नागरिक संहिता के लिए खुद न्यायालय निर्देश दे रहा है। पाकिस्तान और चीन पर लगाम लगी हुई है। आतंकवादियों की गोलियां रास्ता भूल गई हैं। कहीं से आवाज आ भी जाती है तब वह अन्तिम आवाज बन जाती है। ऐसे में मोदी की बुराई करने और निकालने से कांग्रेस की उपलब्धि दिखाई थोड़े ही दे सकती है। कोरोना की भयावह स्थिति, मंहगाई के कारण हर तरफ पड़ रहा प्रभाव भी कांग्रेस को ट्वीट और टीवी चर्चाओं से आगे नहीं निकाल पा रहा है। ऐसे में कांग्रेस का फिर भगवान की रखवाला हो जाये तभी काम चल सकता है। जब-जब भी केन्द्रीय नेतृत्व कमजोर होता है राज्यों के क्षत्रप अपनी मनमानी करते ही हैं। यह कांग्रेस का इतिहास रहा है। इसी मनमानी से बचने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कांग्रेस बना ली थी। अब कांग्रेस जिसमें इंदिरा का अक्स देखने का प्रयास कर रही है उसमें ऐसा करने का दम नहीं है। राहुल गांधी ऐसा कोई विजन देश के सामने नहीं रख पाये हैं जो देश के मतदाताओं को प्रभावित कर जाये। जो नेतृत्व अपने राज्यों में अन्तरकलह को नहीं रोक पा रहा है उसे देश की सरकार कोई देगा ऐसा संभव दिखाई नहीं दे रहा है।

क्षेत्रीय दलों का केन्द्र की सरकार के लिए चयन तभी किया जाता है जब केन्द्र की सरकार संभालने के लिए कोई दमददार नाम न हो। लगातार दो बार स्पष्ट बहुमत वाली सरकार की ताकत देश देख रहा है। इसके बाद भी महंगाई और महामारी की भयावह स्थिति कांग्रेस के लिए संजीवनी हो सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि नेताओं की बात जनता के पास पहुंचाने की क्षमता अब कार्यकर्ताओं में बची नहीं है। वे निराशा में डूबे हैं। यह कहा जा सकता है कि प्रवक्ता जितना जोश चैनलों पर दिखा रहे हैं वे जनता के बीच में उससे आधी दमदारी से भी बात नहीं कर पा रहे हैं। राज्यों के नेताओं की आपसी नाराजगी को रोकने का कोई फार्मूला इसीलिए नहीं निकाला जा सका है क्योंकि केन्द्रीय नेतृत्व में वह दमदारी नहीं बची है जो इन दिनों क्षत्रपों में दिखाई दे रही है। इसलिए मोदी की आलोचना का पाठ पढऩे के साथ अपने घर को संभालने का काम भी प्राथमिकता से करना चाहिए।

                                                       संवाद इंडिया

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